गाँव इतिहास बन जाएंगे।

इस मंजर को बयां करने के लिए मुझे करीब 12 -13 बरस
पीछे जाना पड़ेगा क्योंकि इतने सालों पहले जब मैं
शहर से गाँव के बीच का सफर तय किया करता था
तो खेतों में लहलहाती फसलों, खेतों में पसीना बहाते
किसानों, बहती नदियां व पेड़ पौधों से सृजित हरी
भरी जमीन को देखता। कभी कभार तो यह सफर बस
के ऊपर बैठकर भी करना पड़ता तो ये सफर और भी
मजेदार हो जाता। यह कहानी मेरी तरह और भी
बहुतों के साथ हुई होगी जो शहर के निकटवर्ती
देहातों या गांवों में रहते हैं।
यह विकासशील देश विकास की दौड़ में कब इन
गांवों को अपनी GDP व डेवलपमेंट प्लान के झांसे में
शामिल करता गया, पता ही नहीं चला। आज यह
सफर करता हूं तो तथाकथित विकास के नाम पर
गाँव इतिहास बन जाएंगे।villagemall, कुछ फैक्टरियां,कई माले ऊंची इमारतों व 2-3
BHK फ्लैट्स की कॉलोनियों को देखता हूं। कभी यह
सफर मुझे एक डेवलपमेंट प्लान लगता, कभी शहरीकरण
का विस्तार तो कभी गरीबी का निवारण। यह
कारवां इंडिया में उदारीकरण के साथ ही उदय हुआ
था जो बहुत तेजी से फैला व फैल रहा है ताकि हम
जल्द से जल्द विकसित बन जाए आंकड़ों में तो।
गांधी जी का ही कथन है कि हिंदुस्तान गांवों में
बसता है व भारत का विकास गांवों के लघु कुटीर
उद्योगों के विकास के बिना संभव नहीं। लेकिन
अफसोस कि आज की हमारी सरकारें गांवों को
खत्म करके विकास के आंकड़ों के सारे रिकॉर्ड
शानदार करने में लगी है। विविधता वाले इस देश में
महानगर और छोटे देश दोनों ही हैं। महानगरों के
आसपास के गांवों, देहातों में बड़ी बड़ी इंडस्ट्रीज,
पावर प्लांट, इन्टरनेशनल एयरपोर्ट, मैदान,
विश्वविधालय और अंग्रेजी स्कूलों का निर्माण हो
गया, किसानों की डरा धमका कर जमीनों को
लेकर। वोट बैंक के लिए विपक्षी दलों के नेता भी
पहुंच जाते हैं सांत्वना देने, लेकिन जमीनें नहीं दिला
सकते। लेकिन जब सरकार, उद्योगपति सब मिल जाए
तो किसानों की क्या हैसियत। विकास के नाम पर
सब कुछ हो जाता है लेकिन किसानों को मुआवजा
व नौकरी नहीं। मिलता भी है तो ना जैसा। पूरे के
पूरे भूमि अधिग्रहण कानून पर तो खींचतान चल रही
है सो अलग। प्रदूषण के बढ़ते आंकड़े अपना अलग ही
विकास जाहिर कर रहे हैं।
छोटे शहरों के निकटवर्ती देहात भी बड़ी तेजी से
अपने आप को शहर में शामिल करने की चाहत रखते हैं
जिसके कई कारण व मजबूरियां है। पेड़ पौधों व जंगलों
की लगातार कटाई के कारण बारिश में कमी,
किसानों को अच्छा समर्थन मूल्य नहीं मिल पाना,
जल्दी पूंजीपति वर्ग में शामिल होने की इच्छा व
बढती जनसंख्या के कारण जमीनों की आसमान छूती
कीमतें। गांवो में मूलभूत व बुनियादी सुविधाओं की
कमी भी एक कारण है। इन जमीनों को बडे बडे
उद्योगपति, बिल्डर खरीदकर उन हरे भरे खेतों को
भारत के नक्शे में विकास के रूप में पहुंचा देते हैं।
उपजाऊ जमीन को जितना अधिक व्यर्थ व
शहरीकरण में शामिल किया जा रहा है और उद्योगों
के लिए भी जमीन अधिग्रहित की जा रही है।जो
खाद्यान्नो, पशुओं के चारे, उपजाऊ भूमि में निरंतर
कमी की तरफ संकेत कर रही है। सरकारों को हरित
क्रांति जैसी कोई चीज के साथ ही किसानों को
अच्छा समर्थन मूल्य व खेती में तकनीकी विकास को
भी गति प्रदान करने की जरूरत है। साथ ही भूमि
अधिग्रहण कानून पर तो चर्चा पूरी पब्लिक कर ही
रही है।नहीं तो सिमटते हुए गांवों को बचाना
मुश्किल हो जाएगा और मेरे और आपके गाँव इतिहास
बन जाएंगे।

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