एक बहस, समवर्ती सूची में पानी
(भाग-1)
प्यास किसी की प्रतीक्षा नहीं करती। अपने पानी के इंतजाम के लिए हमें भी किसी की प्रतीक्षा नहीं करनी है। हमें अपनी जरूरत के पानी का इंतजाम खुद करना है। देवउठनी ग्यारस का अबूझ सावा आये, तो नये जोहङ, कुण्ड और बावङियां बनाने का मुहूर्त करना है। आखा तीज का अबूझ सावा आये, तो समस्त पुरानी जल संरचनाओं की गाद निकालनी है; पाल और मेङबंदियां दुरुस्त करनी हैं, ताकि बारिश आये, तो पानी का कोई कटोरा खाली न रहे।
कर्तव्य स्पष्ट : अधिकार अस्पष्ट
जल नीति और नेताओं के वादे ने फिलहाल इस एहसास पर धूल चाहे जो डाल दी हो, किंतु भारत के गांव-समाज को अपना यह दायित्व हमेशा से स्पष्ट था। जब तक हमारे शहरों में पानी की पाइप लाइन नहीं पहुंची थी, तब तक यह दायित्वपूर्ति शहरी भारतीय समुदाय को भी स्पष्ट थी, किंतु पानी के अधिकार को लेकर अस्पष्टता हमेशा बनी रही। याद कीजिए कि यह अस्पष्टता, प्रश्न करने वाले यक्ष और जवाब देने वाले पाण्डु पुत्रों के बीच हुई बहस का भी कारण बनी थी। सवाल आज भी कायम हैं कि कौन सा पानी किसका है ? बारिश की बूंदों पर किसका हक है ? नदी-समुद्र का पानी किसका है ? तल, वितल, सुतल व पाताल का पानी किसका है ? सरकार, पानी की मालकिन है या सिर्फ ट्रस्टी ? यदि ट्रस्टी, सौंपी गई संपत्ति का ठीक से देखभाल न करे, तो क्या हमें हक है कि हम ट्रस्टी बदल दें ?
स्थायी समिति की सिफारिश
पानी की हकदारी को लेकर मौजूं इन सवालों में जल संसाधन संबंधी संसदीय स्थायी समिति की ताजा सिफारिश ने एक नई बहस जोङ दी है। बीती तीन मई को सामने आई रिपोर्ट ने पानी को समवर्ती सूची में शामिल करने की सिफरिश की है। स्थायी समिति की राय है कि यदि पानी पर राज्यों के बदले, केन्द्र का अधिकार हो, तो बाढ़-सुखाङ जैसी स्थितियों से बेहतर ढंग से निपटना संभव होगा। क्या वाकई यह होगा ?
उठते प्रश्न
बाढ.-सुखाङ से निपटने में राज्य क्या वाकई बाधक हैं ? पानी के प्रबंधन का विकेन्द्रित होना अच्छा है या केन्द्रित होना ? समवर्ती सूची में आने से पानी पर एकाधिकार, तानाशाही बढे़गी या घटेगी ? बाजार का रास्ता आसान हो जायेगा या कठिन ? स्थायी समिति की सिफारिश से उठे इस नई बहस में जाने के लिए जरूरी है कि हम पहले समझ लें कि पानी की वर्तमान संवैधानिक स्थिति क्या है और पानी को समवर्ती सूची में लाने का मतलब क्या है ?
वर्तमान संवैधानिक स्थिति
वर्तमान संवैधानिक स्थिति के अनुसार ज़मीन के नीचे का पानी उसका है, जिसकी ज़मीन है। सतही जल के मामले में अलग-अलग राज्यों में थोङी भिन्नता जरूर है, किंतु सामान्य नियम है कि निजी भूमि पर बनी जल संरचना का मालिक, निजी भूमिधर होता है। ग्राम पंचायत के अधिकार क्षेत्रफल में आने वाली एक तय रकबे की सार्वजनिक जल संरचना के प्रबंधन व उपयोग तय करने का अधिकार ग्राम पंचायत का होता है। यह अधिकतम रकबा सीमा भिन्न राज्यों में भिन्न है। भौगोलिक क्षेत्रफल के हिसाब से यही अधिकार क्रमशः जिला पंचायतों, नगर निगम/नगर पालिकाओं और राज्य सरकारों को प्राप्त है।
इस तरह आज की संवैधानिक स्थिति में पानी, राज्य का विषय है। इसका एक मतलब यह है कि केन्द्र सरकार, पानी को लेकर राज्यों को मार्गदर्शी निर्देश जारी कर सकती है; पानी को लेकर केन्द्रीय जल नीति व केन्द्रीय जल कानून बना सकती है, लेकिन उसे जैसे का तैसा मानने के लिए राज्य सरकारों को बाध्य नहीं कर सकती। राज्य अपनी स्थानीय परिस्थितियों और जरूरतों के मुताबिक बदलाव करने के लिए संवैधानिक रूप से स्वतंत्र हैं। लेकिन राज्य का विषय होने का मतलब यह कतई नहीं है कि पानी के मामले में केन्द्र का इसमें कोई दखल नहीं है। केन्द्र को राज्यों के अधिकार में दखल देने का अधिकार है, किंतु सिर्फ और सिर्फ तभी कि जब राज्यों के बीच बहने वाले कोई जल विवाद उत्पन्न हो जाये। इस अधिकार का उपयोग करते हुए ही तो एक समय केन्द्र सरकार द्वारा जल रोकथाम एवम् नियंत्रण कानून-1974 की धारा 58 के तहत् केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, केन्द्रीय भूजल बोर्ड और केन्द्रीय जल आयोग का गठन किया गया था। धारा 61 केन्द्र को केन्द्रीय भूजल बोर्ड आदि के पुनर्गठन का अधिकार देती है और धारा 63 जल सबंधी ऐसे केन्द्रीय बोर्डों के लिए नियम-कायदे बनाने का अधिकार केन्द्र के पास सुरक्षित करती है।
समवर्ती सूची में आने के बाद बदलाव
पानी के समवर्ती सूची में आने से बदलाव यह होगा कि केन्द्र, पानी संबंधी जो भी कानून बनायेगा, उन्हे मानना राज्य सरकारों की बाध्यता होगी। केन्द्रीय जल नीति हो या जल कानून, वे पूरे देश में एक समान लागू होंगे। पानी के समवर्ती सूची में आने के बाद केन्द्र द्वारा बनाये जल कानून के समक्ष, राज्यों के संबंधित कानून स्वतः निष्प्रभावी हो जायेंगे। जल बंटवारा विवाद में केन्द्र का निर्णय अंतिम होगा। नदी जोङ परियोजना के संबंध में अपनी आपत्ति को लेकर अङ जाने को अधिकार समाप्त हो जायेगा। केन्द्र सरकार, नदी जोङ परियोजना को बेरोक-टोक पूरा कर सकेगी। समिति के पास पानी समवर्ती सूची में लाने के पक्ष में कुलजमा तर्क यही हैं। यह भी तर्क भी इसलिए हैं कि केन्द्र सरकार संभवतः नदी जोङ परियोजना को भारत की बाढ़-सुखाङ की सभी समस्याओं को एकमेव हल मानती है और समवर्ती सूची के रास्ते इस हल को अंजाम तक पहुंचाना चाहती है। क्या यह सचमुच एकमेव व सर्वश्रेष्ठ हल है ? पानी को समवर्ती सूची में कितना जायज है, कितना नाजायज ?? जल प्राधिकार के साथ-साथ भारत के जल प्रबंधन की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। इस पर व्यापक बहस जरूरी है।
पानी कार्यकर्ता और नामचीन विशेषज्ञ की राय क्या है ?
एक बहस, समवर्ती सूची में पानी
(भाग-2)
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इंजीनियर जनक दफ्तरी, जल-मल शोधन के विशेषज्ञ होने के साथ-साथ मुंबई के मीठी नदी की प्रदूषण व कब्जा मुक्ति की लङाई भी लङ रहे हैं। पानी को समवर्ती सूची में डाले जाने की सिफारिश पर प्रतिक्रिया देते हुए जनक कहते है – ’’यदि पिछले सात दशक में हमारी केन्द्र और राज्य सरकारों ने अपना दायित्व ठीक से निभाया होता; लोगों पर अपनी गलत नीतियां न थोपी होती; सबके पानी का इंतजाम करने का वादा न किया होता, तो इस सूखे में क्या महाराष्ट्र का हाल इतना बेहाल न होता ? अरे भाई, मैं तो कहता हूं कि पानी को केन्द्र सरकार या राज्य सरकार की बजाय, जिला स्तर की तीसरी सरकार यानी पंचायतों और नगर-निगम/नगरपालिकाओं के दायित्व व अधिकार का विषय बना दिया जाये। हो सके, तो इससे भी नीचे उतरकर पानी को सबसे आखिरी संवैधानिक यानी ग्राम/मोहल्ला इकाई का विषय बनाया जाये। लोगों को अपनी जरूरत के स्थानीय पानी की जिम्मेदारी खुद उठाने दो। शेष की भूमिका, विवाद की स्थिति में दखल देने तथा मांगे जाने पर आर्थिक व अन्य सहयोग तक ही सीमित हो। यही सर्वश्रेष्ठ होगा। स्थायी समिति की तो सिफारिश उलटी है। नदी जोङ एक विध्वंसकारी परियोजना है। समिति की सिफारिश, पानी की कीमत निर्धारण से लेकर जलापूर्ति में पीपीपी मॉडल लागू करने के एजेण्डों को लागू करने के रास्ते का केन्द्रीकरण करने जैसा है; सिंगल विंडो क्लीयरेन्स। असल में अब केन्द्र सरकार के जरिए भारत देश के पानी पर कंपनियां कब्जा करना चाहती हैं। इसका विरोध होना चाहिए।’’
सैंड्रप के प्रमुख अध्ययनकर्ता हिमांशु ठक्कर और यमुना जिये अभियान के मनोज मिश्र की राय भी पानी को समवर्ती सूची में लाने के पूरी तरह खिलाफ हैं। बुदेलखण्ड रिसोर्स सेंटर के निदेशक डॉ. भारतेन्द्रु प्रकाश ने इसे तानाशाही को बल देने वाली सिफारिश करार दिया है। भारतेन्दु जी कहते हैं : ’’ केन्द्रीयकरण से तानाशाही व्यवस्था को बल मिलता है। पानी समाज के लिए है। व्यवस्था भी समाज के हाथों में होनी चाहिए। बस, इतना जरूरी है कि समाज की तैयारी व संस्कारण व्यवस्था के अनुरूप हो।’’
पर्यावरण विकास अध्ययन केन्द्र, जयपुर के प्रमुख, प्रोफेसर मनोहर सिंह राठौर सिफारिश को ’आंशिक नफा : आंशिक नुकसान’ वाला बताया है । प्रो. राठौर मानते हैं कि यदि अंतर्राज्यीय जल प्रवाहों को समवर्ती सूची में लाने तक सीमित हो, तब तो निश्चित तौर पर लाभ होगा। अंतर्राज्यीय जल बंटवारा विवाद लंबे नहीं खींचेगे। विवाद निपटाने में ट्रिब्युनल के स्थान पर केन्द्र सरकार की भूमिका अह्म होने से लाभ मिलेगा। किंतु यदि पानी को समवर्ती सूची में लाने का मतलब, अन्य सभी सतही व भूजल संरचनाओं का के कारण है, तो इससे नुकसान होगा।
’तीसरी सरकार’ के संयोजक डॉ. चन्द्रशेखर प्राण के अनुसार 73वें और 74वें संविधान संशोधन ने क्रमशः पंचायत और नगरपालिका को ’सेल्फ गवर्नमेंट’ का दर्जा दिया है। ’सेल्फ गवर्नमेंट’ के दायित्वों में जल प्रबंधन भी एक विषय है। इस नाते पानी को समवर्ती सूची में इसी शर्त के साथ डाला जा सकता है कि राज्य और केन्द्र के अधिकार दोयम दर्जे के होंगे। सबसे पहला और प्राथमिक अधिकार तो ’सेल्फ गवर्नमेंट’ के हाथ में ही रहेंगे।
पाठकों को शायद ताज्जुब हो कि नदी जोङ परियोजना का हमेशा विरोध तथा विकेन्द्रित व सामुदायिक जल प्रबंधन की हमेशा वकालत करने वाले जलपुरुष राजेन्द्र सिंह ने भी पानी को समवर्ती सूची में लाने का समर्थन किया है। देश के कई राज्यों में चल रहे ’जल सत्याग्रह’ में अग्रणी भूमिका निभा रही लोक संघर्ष मोर्चा (महाराष्ट्र) की प्रमुख प्रतिभा शिंदे ने तो अपनी नई दिल्ली प्रेस क्लब वार्ता में स्वयं इसकी मांग की; तर्क दिया कि ऐसा करने से जंगल और जंगलवासियों का भला हुआ है; पानी और पानी के लाभार्थी समुदाय का भी होगा।
राजीव गांधी वाटरशेड मिशन के पूर्व सलाहकार कृष्णगोपाल व्यास ने सवाल किया कि पानी को समवर्ती सूची में लाने की जरूरत ही कहां है ? पानी की वर्तमान संवैधानिक स्थिति ही ठीक है। समस्याओं के समाधान के लिए केन्द्र सरकार अभी भी मागदर्शी निर्देश देने के लिए स्वतंत्र है ही। श्री व्यास इससे इंकार नहीं करते कि पानी के समवर्ती सूची में आने से जलाधिकार के संघर्ष और पानी के व्यावसायीकरण की संभावनायें घटने की बजाय बढे़ंगी। केन्द्रीय नदी गंगा बेसिन प्राधिकरण के पूर्व विशेषज्ञ सदस्य तथा लोक विज्ञान संस्थान, देहरादून के प्रमुख रवि चोपङा की राय भी श्री व्यास की राय से भिन्न नहीं है।
केन्द्र व राज्यों की राय
स्पष्ट है कि पानी के संकट से उबरने के लिए जरूरत समवर्ती सूची से ज्यादा, बेहतर आपसी समन्वय, संकल्प और नीयत का है। इस सिफारिश को लेकर अकाली दल व भाजपा के साझे गठबंधन वाली पंजाब की सरकार ने विरोध जताया है। उल्लेखनीय है कि पंजाब सरकार ने नदी जोङ परियोजना का भी विरोध किया था। दूसरी तरफ पार्टी का पक्ष ध्यान में रखते हुए केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती के साथ-साथ भाजपा शासित झारखण्ड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा की सरकारों ने सहमति जताई है।
प्रश्न यह है कि समवर्ती सूची में आने के बाद यदि पार्टी का पक्ष करने वाली नीयत केन्द्र सरकार की हुई, तो जिन राज्यों में केन्द्र सरकार के दल वाली सरकारें नहीं हुई, उन राज्यों के साथ न्याय हो पायेगा; इसकी संभावना इस सिफारिश में कहां हैं ? जब कभी भी केन्द्र में सत्तारुढ़ दल, विपक्षी दलों की सरकारों को गिराने व राज्यपालों को हटाने की नीयत रखेगी, तो क्या समवर्ती सूची में आकर पानी पर हकदारी में समानता प्रभावित हुए बगैर बच पायेगी ?
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बहुमत विशेषज्ञों की राय को सही मानें, तो स्थायी समिति की सिफारिश का असल लक्ष्य अंतर्राज्यीय जल प्रवाहों का विवाद निपटारा न होकर, भारत के पानी पर केन्द्र के जरिए कारपोरेट का कब्जा है। सिफारिश का एक संकेत यह भी है कि जल संसाधन की स्थायी समिति, भारत की जल समस्या के केन्द्रीकृत समाधान की पक्षधर है। क्या आप है ? क्या आप मानते हैं कि केन्द्र में बैठी सरकार, आपके पानी और उसके इंतजाम के तौर-तरीकों को आपसे बेहतर समझती है ? आप किसके पक्षधर हैं – पानी को समवर्ती सूची में लाने के अथवा ग्रामसभा/मोहल्ला सभा के अधिकार व दायित्व में लाने के ? आप तय करें। स्थायी समिति को भी लिखें और हमें भी बतायें।