लेखक के विरोध का तरीका केवल लेखन है

राजीव रंजन प्रसाद

व्यवस्था के विरुद्ध सभी लड़ाईयों में जो सर्वाधिक कारगर हथियार सिद्ध होता रहा है वह है – कलम। सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन हों अथवा साम्प्रदायिक असहिष्णुताओं को समरसताओं में कायांतरित किये जाने के प्रयास, यह अब तक लेखकों के कंधों का दायित्व रहा है। व्यवस्था कोई भी हो और सरकारें कैसी भी हों, लेखन ने हर खामियों को निर्वस्त्र किया, हर दाग को धोये जाने से पहले उजागर किया और ऐसी हर नीति-योजना के विरुद्ध विवेचनायें प्रस्तुत कीं जिन्हें उन्होंने जनपक्षधर नहीं माना था। यह सबकुछ अभिव्यक्ति के तमाम खतरों को देखते, जानते और समझते हुए आज तक होता रहा है तथा संवेदनशील लेखकों द्वारा आगे भी जारी रहेगा। न तो लेखन पुरस्कार अथवा सम्मान के लिये किया जाता है न ही उनके प्राप्त होने से लेखन में ताकत अथवा पैनापन कम हो जाता है। यही कारण है कि आज पुरस्कार लेने-लौटाने के प्रकरण को बारीकी से समझना होगा कि यह वास्तव में पीड़ा है अथवा ऐसी राजनीति जिसका हिस्सा लेखक समुदाय हो गया है।

हत्याओं और व्यवस्थाओं पर चर्चा से पहले साहित्य की दशा-दुर्दशा पर भी बात करना आवश्यक है। उदाहरण हिन्दी साहित्य का ही लेते हैं, पंत-प्रसाद-निराला-महादेवी के बाद कविता विचारधाराओं और नारों की पाईपलानों से जबरन गुजारी गयी, प्रगति तथा प्रयोग के उबड खाबड सड्कों से इस तरह चलाई गयी कि उसका स्वरूप बिगड़ गया। आज कवियों की भरमार है लेकिन कविता आईसीयू में है। यह दुर्भाग्य है कि आज की कविता जिसका दावा आम आदमी की पक्षधरता है, उसे आम आदमी ही नहीं समझता बूझता। मुक्तिबोध से ले कर मंगलेश डबराल तक की कविता को बूझने के लिये आपको विशेषज्ञ समझ चाहिये अथवा सहायता, तो भला बेचारे मजदूर और किसान की क्या औकात? क्रौंच पक्षी की पीड़ा से व्यथित हो कर लिखी गयी पहली रचना से ले कर आज से तीन दशक पहले तक लिखी गयी कवितायें ऐसी थी कि जनमानस को उनके करीब लगती थीं, आज की कडुवी सच्चाई है कि कविता के पास न तो पाठक हैं न ही प्रकाशक। कविता जो मंच पर है भी, वहाँ वह फूहड़ चुटकुलों की आड़ में सिसकती-अनसुनी रह जाती है। तो क्या इसी लिये मुनव्वर राणा को लाईव शो तलाशना पड़ता है पुरस्कार वापसी की घोषणा के लिये? यह प्रश्न भी तो सुरसा का मुँह खोले बैठा है। इस बात का लिटमस पेपर टेस्ट करने के लिये देश के किसी भी साहित्यकार (खास कर हिन्दी वाले) के पास बैठ कर उसकी दु:खती रग छेडिये तुरंत ही वह पाठक नहीं है, किताबें नहीं बिकती, खरीद कर नहीं पढते आदि आदि का टेपरिकार्ड सुनाने लगेगा। तो क्या यही लेखकीय अक्षमता उन्हें कलम को परे रख कर स्वयं को चर्चा में लाने के अन्यान्य बहाने तलाशने के लिये बाध्य कर रही है?

बदलाव की लड़ाई व्यवस्था के भीतर रह कर नहीं लड़ी जा सकती। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि लम्बे समय से साहित्य तथा इतिहास की विभिन्न संस्थायें उन लेखकों-साहित्यकारों को ही ढों रही हैं जो किसी न किसी धारा-विधारधारा के प्रति अपनी प्रतिबद्धतायें रखते हैं? विश्वविद्यालयों से ले कर साहित्य-कला-इतिहास के लगभग सभी संस्थान उन कलमों का बोझा ढों रहे हैं जो निर्पेक्ष नहीं हैं, राजनीतिक हैं तथा अपने अपने एजेंडे के लिये प्रतिस्थापित हैं। इसी लिये सरकारों के बदल जाने का असर ऐसी संस्थाओं पर सबसे पहले पड़ता है। लेखक को सरकारी सम्मान नहीं चाहिये यह तो दूसरा प्रश्न है पहला यह कि उसे सरकारी संस्थायें अध्यक्षता पाने के लिये, मेम्बरशिप पाने के लिये अथवा अनुदान पाने के लिये भी क्यों चाहिये? देसी क्या, बिदेसी सरकारों से भी अनुदान पाने वाले लेखकों की कोई कमी नहीं, अविभाजित रूस विशेष रूप से लेखकीय ताकत को पहचानता था और वहाँ से मिलने वाली प्रकाशन मदद और बौद्धिक अर्थशास्त्र का एक पूरा दौर गुजरा है, यह बात भी किसी से छिपी नहीं है। क्या इसे इस दृष्टिकोण से समझा जाये कि लेखन का तिलिस्म टूट रहा है तथा अपनी प्रसिद्धि बनाये रखने की ललक अथवा आवश्यकता उन्हें अब कुछ नया करने की ओर प्रेरित कर रही है जैसे मोमबत्ती जलाना, पुरस्कार लौटाना आदि।

व्यवस्थायें एक जैसी ही होती हैं और सरकारें भी। कांग्रेस की सरकार हो, वाम-कांग्रेस-खिचडी सरकार हो अथवा भाजपा की सरकार, कोई बुनियादी अंतर नहीं है। यही कारण है कि आज पुरस्कार लौटाने पर जो प्रश्न जायज महसूस होता है वही तब क्यों नहीं लौटाया जैसे सवाल भी उतने ही तीखे रूप में खड़ा करता है। उदयप्रकाश के सामने सवाल है कि क्या नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या कलबुर्गी की हत्या से कम महत्वपूर्ण थी अथवा किसी भी प्रकार से भिन्न थी? भिन्न थीं तो केवल सरकारें तो क्या पुरस्कार राजनीति में सरकार और उसके प्रति प्रतिबद्धता बड़ी भूमिका में है? ये अनुचित सवाल हैं कि नयनतारा सहगल भारत के पहले प्रधान मंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू से किस तरह जुडती हैं जबकि उचित सवाल यह है कि 1984 के भयावह दंगों की विभीषिका के बाद भी उन्हें तब साहित्य अकादमी पुरस्कार लेने में हिचक क्यों नहीं हुई, क्या वह दंगा साम्प्रदायिक नहीं था? क्या उस दंगे में तत्कालीन सरकार की भूमिका को ले कर सवालिया निशान नहीं लगाये गये थे?

इस देश में राम राज्य और वाम राज्य न आया है न आने की सम्भावना दिखती है। इसके बाद भी वाम-दक्षिण के झगड़े जो कभी राजनैतिक पार्टियों के ऑफिस तक केन्दित हुआ करते थे वे उनकी सोच से प्रभावित लेखकों के खेमों तक पहुँच गये हैं। वैचारिक असहिष्णुताओं का यह दौर यहाँ तक आ पहुँचा है कि लेखकों ने अपने अपने गुट बना लिये हैं, अपने अपने प्रसंशकों से घिरे बैठे हैं, अपने अपने पीठ खुजाने वाले तय कर रखे हैं तथा चढाना-गिराना का खेल अबाध रूप से जारी है। अभी इस घटना को बहुत दिन नहीं हुए जब राजेन्द्र यादव ने अपने कार्यक्रम में दो गुट के लेखकों को एक साथ सुनने की व्यवस्था नियत की तो बहिष्कारों के खेल आरम्भ हो गये। सरकारों और बहिष्कारों के खेल को बारीकी से समझना हो तो पिछले साल लगभग एक ही समय में सम्पन्न हुए ओडिसा साहित्य महोत्सव और रायपुर साहित्य महोत्सव की घटनाओं को देखें। ओडिशा महोत्सव आराम से सम्पन्न हुआ, बिना किसी विरोध, पलायन अथवा मुँह-फुलौव्वल के जबकि रायपुर साहित्य महोत्सव में जबरदस्त लेखकीय खेमेबाजी हुई, कौन आयेगा और कौन बहिष्कार करेगा वाले अनंत नाटक-नौटंकियाँ हुई, विरोध-समर्थन वाले भोंडे खेल हुए, और यह सब केवल इसी लिये न कि अंतर सरकारों अर्थात विचारधारा का है? ऐसा तब जायज है जब लेखक निर्पेक्षता का मुखौटा उखाड़ फेंके और खुल कर उद्घोषणा कर दें कि मैं वाम-पंथी लेखक हूँ, मैं कांग्रेसी लेखक हूँ, मैं भाजपायी लेखक हूँ आदि। इन दिनों प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले विश्व पुस्तक मेले और सस्ते में किताब प्रकाशित कर लोगों तक पहुँचाने वाला संस्थान नेशनल बुक ट्रस्ट भी सरकारी है। रायपुर साहित्य महोत्सव के पश्चात नेशनल बुक ट्रस्ट, भारत सरकार द्वारा पिछले विश्व पुस्तक मेले में रायपुर महोत्सव के विरोध में खडे अनेकानेक साहित्यकार जम कर प्रतिभागिता करते, भाषण देते और तस्वीरें खिंचाते दिखे थे और यह भी दोहरा मापदण्ड ही था।

दशकों से पुरस्कारों और सम्मानों की स्थिति दयनीय हैं। उनपर विचारों, विचारधाराओं अथवा चापलूसों के प्रति आसक्त हो कर प्रदान किये जाने के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। पुरस्कार और सम्मान पाने की लोलुपता, उनके लिये जुगाडबाजी और सेटिंग आदि की खबरें लम्बे समय से आम होती रही हैं, इसीलिये पुरस्कार लौटाने की राजनीति पर उंगलियाँ उठे तो यह कोई गलत बात भी नहीं। साहित्य अकादमी ने निन्दा क्यों नहीं की अथवा बयान क्यों नहीं दिया इससे अधिक बड़ा यक्ष-प्रश्न यह है कि इस दौर में पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों-कवियों ने कलबुर्गी की हत्या के विरोध में क्या क्या ऐसा अपनी कहानी, उपन्यास आदि में लिखा जो देश में व्याप्त माहौल के प्रतिपक्ष में जाता? ऐसी कौन कौन सी रचनायें इस दौर में आयी हैं जो आज के माहौल के विरुद्ध जनमत तैयार करने में समर्थ हों? लेखकों ने लगातार अपनी कविताओं, कहानियों, उपन्यासों आदि से प्रतिपक्षी माहौल तैयार करने की जगह स्वयं राजनीति करना क्यों सुनिश्चित किया यह बात समझ से परे है।

पुरस्कार और सम्मान कृतियों को मिलते हैं। राग-दरबारी, तमस, कव्वे और काला पानी, कितने पाकिस्तान जैसी रचनाओं में व्यवस्था विरोध भी है और वे जनमानस को झखझोरती भी हैं, इन रचनाओं को स्वाभाविक रूप से साहित्य अकादमी सहित अनेक पुरस्कार-सम्मान प्राप्त हुए हैं। लोगों का कृतियों को मिला प्यार ही वैसे तो वास्तविक सम्मान है तथापि अब लगने लगा है कि अच्छी और निर्पेक्ष रचनाओं का दौर कहीं बीतने तो नहीं जा रहा? लेखक अब लेखक संघों के मालिक हैं, प्रकाशन संस्थाओं के शेयर होल्डर हैं, बड़ी बड़ी सरकारी-गैरसरकारी संस्थाओं के आजीवन सदस्य हैं और वे राजनीति में भी दखल रखने की और अग्रसर हैं जिसका ताजा उदाहरण पुरस्कार वापसी प्रकरण है। लेखक के विरोध का तरीका केवल लेखन ही हो सकता है बाकी सब शुद्ध राजनीति है।
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