अपनी भाषा और अपनी आन को लड़ते रहे उनके हिस्से लाठियों की मार है इस देश में ?

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shyam rudra pathak

राष्ट्र भाषा हिन्दी के सम्मान के लिये आन्दोलन करने वाले श्याम रूद्र पाठक के साथ पुलिस ने लगातार अभद्रता की पुलिसिया हरकत बताती हैकि इस देश में लोक तंत्र की असलियत क्या है. लोकतंत्र के पतन पर एक ग़ज़ल पेश है .

कौन कहता है मेरी सरकार है इस देश में
आम है जो आदमी लाचार है इस देश में

जीतने का जश्न अब शातिर मानते हैं यहाँ
जो हैं सच्चे उनकी केवल हार है इस देश में

जिसने बोला सत्य उसको जेल में ठूंसा गया
इस तरह जनता पे यह उपकार है देश में

काट लेती है जुबां कुर्सी अगर सच बोलिए
किनको अब जम्हूरियत से प्यार है इस देश में

अपनी भाषा और अपनी आन को लड़ते रहे
उनके हिस्से लाठियों की मार है इस देश में

नेता, अफसर और अपनी ये पुलिस अपनी कहाँ
सारा सिस्टम आजकल बीमार है इस देश में

क्रांतिकारी लोग थे उनको मिले अब गालियाँ
ऐसे लोगों की तो अब भरमार है इस देश में

जिसको हम नायक समझते थे वही पापी मिला
अब शरीफों का ही बंटाढार  है इस देश में

थी गुलामी तब तो बाहर के लुटेरे थे यहाँ
जो था अपना अब वही गद्दार है इस देश में

देश जैसे चल रही दूकान कोई सेठ की
हम कदम पर लूट का बाज़ार है इस देश में

गिरीश पंकज

 

1 COMMENT

  1. सही कहना है , लोकतंत्र में जन भावना की उपेक्षा करके एक विदेशी भाषा को महिमामंडित करना अबूझ पहेली है ,

  2. ~~गांधी जी के भाषा विषयक विचार।

    (१)

    हिन्दुस्थान की आम भाषा अंग्रेजी नहीं पर हिन्दी है।

    प्रश्न: क्या गांधी जी ने, अंग्रेजों को भी हिंदी सीखने के लिए कहा था ?

    उत्तर: जी हाँ। गांधी जी ने शासक अंग्रेजो को, कहा था. कि …..”हिन्दुस्थान की आम भाषा अंग्रेजी नहीं बल्कि हिंन्दी है। वह आप को (अंग्रेज शासकों को) सीखनी होगी और हम तो, आप के साथ अपनी भाषा में ही व्यवहार करेंगे।……”

    (२)

    हिन्दुस्थान को गुलाम बनाने वाले अंग्रेजी जानने वाले भारतीय लोग ही हैं।

    प्रश्न: गांधी जी, ”हिंद स्वराज” में अंग्रेज़ी के लिए क्या लिखते हैं?

    उत्तर: …..गांधी जी ने ‘हिन्द स्वराज’ (पृष्ठ ९१) में लिखा, कि, क्या यह कम अत्याचार है, कि, मुझे मेरे देश में न्याय पाना हो, तो अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करना पडता है? बैरिस्टर होने पर भी, मैं स्वभाषा में बोल नहीं सकता। दूसरे किसी व्यक्ति को मेरे लिए तरजुमा (अनुवाद) कर देना पडता है? यह क्या, कम दंभ है? यह गुलामी की हद नहीं, तो और क्या है? इस में मैं अंग्रेजों का दोष निकालूं या अपना ? हिन्दुस्थान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले भारतीय लोग ही हैं।……” (क्या स्वतंत्रता के ६५ वर्ष बाद भी यह चल नहीं रहा?)

    (३) शासक अंग्रेज़ और काले अंग्रेज़

    प्रश्न: शासक अंग्रेज़ और काले अंग्रेज़ों ( सुडो या छद्म भारतीयों ) के लिए गांधी जी क्या कहते हैं?

    उत्तर: आप हिन्दुस्थान में ( शासन के लिए )आनेवाले अंग्रेज जो हैं, वे अंग्रेजी प्रजा के सच्चे नमूने नहीं हैं, और हम जो ”आधे अंग्रेज” बने बैठे हैं वे भी सच्ची ”हिन्दुस्थानी प्रजा” के नमूने नहीं कहे जा सकते।

    {लेखक: तो आज कल कौन से नमूने दिल्ली में बैठ शासन कर रहें हैं?}

    (४) अंग्रेज़ी की दैहिक और भोगवादी दृष्टि

    अंग्रेजी भाषा और संस्कृति में विज्ञान, इतिहास और अन्य सभी विषयों की दृष्टि दैहिक और भोगवादी है। यहां अंग्रेजी शिक्षा के साथ अंग्रेजी सभ्यता (?) भी आई थी। गांधी जी ने लिखा, कि, आप को समझना चाहिए कि अंग्रेजी शिक्षा स्वीकार कर, हम ने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, विलासिता, अत्त्याचार वगैरा बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाये हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे पीडित करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है।

    (५) अंग्रेज़ी शिक्षा गुलामी की जड

    (वही पृ0 91) गांधी जी ने लिखा, कि, करोड़ों (मिलियन्स) लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकॉले ने शिक्षा की जो बुनियाद (नींव) डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। उसने इसी उद्देश्य से अपनी योजना बनायी थी, ऐसा मैं नहीं सुझाना चाहता। लेकिन उस के काम का नतीजा यही निकला है। यह कितने दुख की बात है कि हम स्वराज्य की बात भी परायी भाषा में करते हैं? (वही पृ0 90)

    (६)भारत पश्चिमी सभ्यता के मोहपाश में

    (वही पृष्ठ 87) भारत पश्चिमी सभ्यता के मोहपाश में है। उन्होंने लिखा, हम सभ्यता के रोग में ऐसे फंस गये हैं कि अंग्रेजी शिक्षा लिये बिना अपना काम चला नहीं सकते। अब, जिसने वह शिक्षा पायी है, वह उसका अच्छा उपयोग करे, अंग्रेजों के साथ के व्यवहार में। और ऐसे हिन्दुस्थानियों के साथ, जो व्यवहार में निज भाषा को समझ न सकते हों, और अंग्रेज खुद अपनी सभ्यता से कैसे परेशान हो गये हैं यह समझने के लिए अंग्रेजी का उपयोग किया जाये।

    (७)अंग्रेज़ी पढनेवाले अनैतिक होने की संभावना गांधी जी ने परखी थी।

    इसी लिए वे कहते थे, कि, जो लोग अंग्रेजी पढ़े हुए हैं उनकी संतानों को पहले तो नैतिक शिक्षा देनी चाहिए, मातृभाषा सिखानी चाहिए, और हिन्दुस्थान की एक दूसरी (प्रादेशिक) भाषा सिखानी चाहिए। बालक जब आयु में, बडा हो जायें तब भले चाहे तो, अंग्रेजी शिक्षा पायें, और वह भी उस से छुटकारा पाने के उद्देश्य से, न कि उस के द्वारा पैसे कमाने के उद्देश्य से। (वही पृष्ठ 91)

    (८)

    भारत के अग्रणी नेता ,विद्वान, सुधारक, चिंतक, दृष्टा, मनीषी, इत्यादि, मिलकर, अंग्रेज़ी की विकलांग विवशता ना होती तो –तो भारत आगे बढ चुका होता।

    राम मोहन राय और भी और अच्छे सुधारक हो सकते थे, एवं लोकमान्य तिलक और भी बडे विद्वान प्रमाणित होते, यदि दोनों को (उन्हें) विकलांगता पूर्ण अंग्रेज़ी में विचार करने की, और फिर उन विचारों को व्यक्त करने की विवशता ना होती। स्वभाषा में विकास तीव्र गति से होता है।

    (९)अंग्रेज़ी शिक्षा अंग्रेज़ी पढे-लिखे भारतीय को खस्सी (नपुंसक) कर गयी है।

    गहरे चिंतन के बाद कहता हूँ, कि जिस प्रकार से अंग्रेज़ी शिक्षा दी जा रही है, वह, अंग्रेज़ी पढे-लिखे भारतीय को खस्सी कर गयी है, और उस की भाव-तन्त्रिकाओं पर भारी बोझ डालकर हमें नकलची बना दिया है।

    (१० ) कोई देश नकलचियों का वंश पैदा कर के राष्ट्र नहीं बन सकता।

    आप कुछ लोगों की उन्नति अंग्रेज़ी द्वारा कर लेंगे।

    अंग्रेज़ी एक पराई भाषा देशको निगल रही है।

    अंग्रेज़ी से आप व्यक्तिगत उन्नति कर सकते हैं, क्या समग्र भारत की उन्नति आप अंग्रेज़ी से करेंगे?

    (११)हर भारतीय भाषा की शत्रु अंग्रेज़ी है।

    अंग्रेज़ी एक पराई भाषा देशको निगल रही है। परतंत्र की भाषा होने के कारण, हमारी स्वतन्त्रता में भी एक लांछन है। नहीं, जब तक अंग्रेज़ी रहेगी तब तक हम पूर्ण रूपसे स्वतंत्र नहीं।

    भारत का युवा अपने आपको गौरवहीन अनुभव करता है। हीन ग्रन्थि से पीडित अनुभव करता है। इसी लिए वह टूटी-फूटी अंग्रेज़ी बोलता है। इस परतंत्रता के भाव को समझकर ही लगता है, गांधी जी ने कहा था कि

    (१२) गांधी जी भी तानाशाह ?

    ”यदि मैं मेरे पास शासन की एकमुखी शक्ति होती, तो आज के आज, अपने छात्र छात्राओं की परदेशी माध्यम द्वारा होती शिक्षा, रुकवा देता। और सेवा-मुक्त करने का भय दिखाकर सारे प्राध्यापकों एवम् शिक्षकों से, तत्काल बदलाव लाने की माँग करता। पाठ्य पुस्तकें तैय्यार होने तक भी राह ना देखता। वे तो बदलाव के बाद बन ही जाती। यह परदेशी माध्यम ऐसा पाप है, जिसका अविलम्ब उपचार आवश्यक है।” कोई भी भाषा पहले होती है, पाठ्य पुस्तके बाद में आती हैं। कोई उदाहरण है, जहां पुस्तके पहले थी, और बाद में भाषा पैदा हुयी?

    महात्मा गांधी —–महात्मा जी का निश्चय स्पष्ट है। विचार कीजिए।

    (१३ )

    अहिंसा में निष्ठा रखने वाले गांधी, अनेक बार भाईचारे के पक्ष में, समझौता करने वाले गांधी, जब ऐसा तानाशाही निर्णय दृढता पूर्वक व्यक्त करते हैं, तो उसके पीछे उन्होंने गहरा चिन्तन किया होगा ही।

    पाठ्य पुस्तकों के लिए भी वे रुकना नहीं चाहते।

    एकाध वर्ष में पुस्तकें भी बन जाएगी। खरिददार मिलने पर सारे लेखक दौड कर पुस्तक लिखना प्रारंभ कर सकते हैं। एक बार निर्णय लिया जाए, बाकी सब कुछ एक एक वर्ष जैसे नया छात्र कक्षा पास होते होते आगे बढेगा, वैसे वैसे बनती चलेगी।

    —मैं ने कुछ बिंदु विचार स्पष्ट करने के लिए डाले हैं। आप ”हिंद स्वराज” के आलेख, प्रवक्ता पर ही स्पष्टता के लिए देख सकते हैं।

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