फिर आरंभ हुआ शिक्षा को लेकर नया प्रयोग

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लिमटी खरे 

देश की नई पीढी की शिक्षा की दशा और दिशा निर्धारित करने के लिए पाबंद मानव संसाधन और विकास मंत्रालय जिस भी राजनैतिक दल के कब्जे में रहा है, उसी ने अपना एजेंडा इस पर थोपा है। किसी ने भी भावी पीढ़ी की चिंता नहीं की है। हाल ही में योजना आयोग के माध्यम से एचआरडी विभाग ने एसे शिक्षण संस्थानों की स्थापना के मार्ग प्रशस्त किए हैं जिनका उद्देश्य मुनाफा कमाना हो। भारत गणराज्य की सबसे बड़ी विडम्बना है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, पानी बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएं देने में ही शासक नाकाम रहे हैं। इस व्यवस्थाओं को सरकारों ने निजी हाथों में देकर अपनी ही रियाया का गला घोंटने का प्रयास किया है जिसकी महज निंदा से काम नहीं चलने वाला। देश की राजनधानी दिल्ली में बिजली के करंट से लोगों की जेबें खाली हो चुकी हैं, वहीं स्वास्थ्य के नाम पर पांच सितारा अस्पताल रूपी दुकानों में आम नागरिक इसलिए लुट पिट रहा है क्योंकि सरकार के पास अपने अस्पतालों में संसाधन नहीं हैं। देश के हृदय प्रदेश में सरकारी सड़क परिवहन पर ताला लग गया है। प्राईवेट बस आपरेटर्स के गुण्डे यात्रियों की गरदन पर छुरी रखकर मनमानी टिकिट वसूल रहे हैं। देश भर में शिक्षा की मंहगी दुकाने सजी हुईं हैं। कुल मिलाकर इस देश का धनी धोरी शायद अब कोई नहीं बचा है।

एक अप्रेल का दिन बचपन से ही अप्रेल फूल बनाने के नाम से जाना जाता रहा है। इस दिन जो चाहे झूट सच बोला जाए, सब कुछ माफ ही होता है। इस दिन किए गंभीर से गंभीर मजाक को भी माफ ही कर दिया जाता है। सरकार ने इसी दिन से अनिवार्य शिक्षा कानून लागू करने की घोषणा की थी। यह बात मजाक था या सच इस बारे में तो सरकार ही जाने पर आम जनता जरूर इसे मजाक के तौर पर ही ले रही है।

शिक्षा आदि अनादिकाल से ही एक बुनियादी जरूरत समझी जाती रही है। पहले गुरूकुलों में बच्चों को व्यवहारिक शिक्षा देने की व्यवस्था थी, जो कालांतर में अव्यवहारिक शिक्षा प्रणाली में तब्दील हो गई। आजाद भारत में शासकों ने अपनी मर्जी से शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग करना आरंभ कर दिया। अब शिक्षा जरूरत के हिसाब से नहीं वरन् सत्ताधारी पार्टी के एजेंडे के हिसाब से तय की जाती है। कभी शिक्षा का भगवाकरण किया जाता है, तो कभी सामंती मानसिकता की छटा इसमें झलकने लगती है।

वर्तमान में अनिवार्य शिक्षा के कानून में 6 से 14 साल के बच्चे को अनिवार्य शिक्षा प्रवेश, पहली से आठवीं कक्षा तक अनुर्तीण करने पर प्रतिबंध, शारीरिक और मानसिक दण्ड पर प्रतिबंध, शिक्षकों को जनगणना, आपदा प्रबंधन और चुनाव को छोडकर अन्य बेगार के कामों में न उलझाने की शर्त, निजी शालाओं में केपीटेशन फीस पर प्रतिबंध, गैर अनुदान प्राप्त शालाओं के लिए अपने पडोस के मोहल्लों के न्यूनतम 25 फीसदी बच्चों को अनिवार्य तौर पर निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान किया गया है।

जिस तरह लोगों को आज इतने समय बाद भी रोजगार गारंटी कानून के बारे में जानकारी पूरी नहीं हो सकी है, उसी तरह आने वाले दिनों में अनिवार्य शिक्षा कानून टॉय टॉय फिस्स हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस नए कानून से किसी को राहत मिली हो या न मिली हो कम से कम गुरूजन तो मिठाई बांट ही रहे होंगे क्योंकि उन्हें शिक्षा से इतर बेगार के कामों में जो उलझाया जाता था, उससे उन्हें निजात मिल ही जाएगी। अब वे धूप में परिवार कल्याण और पल्स पोलियो जैसे अभियानों में चप्पल चटकाने से बच सकते हैं।

लगता है अनिवार्य शिक्षा कानून का मसौदा केंद्र में बैठे मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली सहित अन्य महानगरों और बडे शहरों को ध्यान में रखकर बनाया है। इसमें शाला की क्षमता के न्यूनतम 25 फीसदी उन छात्रों को निशुल्क शिक्षा देने की बात कही गई है, जो गरीब हैं। हाल ही में स्वास्थ्य महकमे में दिल्ली की स्वास्थ्य मंत्री किरण वालिया ने ही बताया था कि दिल्ली के फोर्टिस अस्पताल में पिछले पांच सालों में महज पांच गरीबों का ही इलाज हो सका है। जब देश के नीति निर्धारकों की जमात के स्थल पर ही इस तरह की व्यवस्थाएं फल फूल रही हों तब बाकी की कौन कहे। आने वाले दिनों में अनिवार्य शिक्षा कानून की धज्जियां अगर उडती दिख जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।

अगर देखा जाए तो मानक आधार पर कमोबेश हर शाला भले ही वह सरकारी हो या निजी क्षेत्र की उसमें बुनियादी सुविधाएं तो पहले दिन से ही और न्यूनतम अधोसंरचना विकास का काम तीन साल में उलब्ध कराना आवश्यक होता है। इसके अलावा पुरूष और महिला शिक्षक के लिए टीचर्स रूम, अलग अलग शौचालय, साफ पेयजल, खेल का मैदान, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, बाउंड्रीवाल और फंेसिंग, किचन शेड, स्वच्छ और हवादार वातावरण होना आवश्यक ही होता है।

छात्रों के साथ शिक्षकों के अनुपात में अगर देखा जाए तो सीबीएसई के नियमों के हिसाब से एक कक्षा में चालीस से अधिक विद्याथियों को बिठाना गलत है, फिर भी सीबीएसई से एफीलेटिड शालाओं में सरेआम इन नियमों को तोडा जा रहा है। शिक्ष्कों के अनुपात मे मामले में अमूमन साठ तक दो, नब्बे तक तीन, 120 तक चार, 200 तक पांच शिक्षकों की आवश्यक्ता होती है।

अपने वेतन भत्ते और सुविधाओं में जनता के गाढे पसीने की कमाई खर्च कर सरकारी खजाना खाली करने वाले देश के जनसेवकों ने अब देश का भविष्य गढने की नई तकनीक इजाद की है। अब किराए के शिक्षक देश का भविष्य तय कर रहे हैं। कल तक पूर्णकालिक शिक्षकों का स्थान अब अंशकालीन और तदर्थ शिक्षकों ने ले लिया है। निजी स्कूल तो शिक्षकों का सरेआम शोषण कर रहे हैं। अनेक शालाएं एसी भी हैं, जहां शिक्षकों को महज 500 रूपए की पगार पाकर 2500 रूपए पर दस्तखत कर रहे हैं। अनेक शालाओं में तो सीबीएसई से एफीलेशन के बाद भी एनसीईआरटी की सस्ती किताबों के बजाए निजी प्रकाशनों की मंहगी किताबों के चलन के लिए विद्यार्थियों को बाध्य किया जाता है।

आज जमाना बदल चुका है। आज शिक्षा को एक मिशन के बजाए व्यवसाय के तौर पर देखा जाता है। एक जमाना था जब हम प्राईमारी स्कूल में पढा करते थे, तब पाठ्यक्रम के बजाए व्यवहारिक शिक्षा पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाता था। हमारा एक कालखण्ड गेम्स का एक पीटी का तो एक क्राफ्ट (इसमें तकली पोनी के सहारे रूई से धागा बनाया जाना सिखाया जाता था, चरखा चलाने की शिक्षा दी जाती थी) का भी होता था। कुल मिलाकर उस काल को हम आधुनिक गुरूकुल की संज्ञा दे सकते हैं।

आदि अनादी काल से गुरूकुलों में व्यवहारिक शिक्षा पर अधिक जोर दिया जाता था। ऋषि मुनि अपने शिष्यों को लकडी काटने बटोरने से लेकर जीवन के हर पडाव में आने वाली व्यवहारिक कठिनाईयों से शिष्यों को रूबरू कराते थे। इसके साथ ही साथ धर्म अर्धम की शिक्षा भी दिया करते थे। बदलाव प्रकृति की सतत प्रक्रिया है। जमाना बदलता रहा और शिक्षा के तौर तरीकों में भी बदलाव होता रहा।

सत्तर के दशक की समाप्ति तक बदलाव की प्रक्रिया बहुत धीमी थी। इसके उपरांत बदलाव की बयार शनैः शनैः तेज होकर अब सुपरसोनिक गति में तब्दील होती जा रही है। हमारे विचार से शिक्षा को लेकर जितने प्रयोग भारतवर्ष में हुए हैं, उतने शायद ही किसी अन्य देश में हुए हों। जब जब सरकारें बदलीं, सबसे पहले हमला शिक्षा प्रणाली पर ही हुआ।

देश के भूत वर्तमान और भविष्य को देखने के बजाए निजामों ने अपनी पसंद को ही थोपने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई। रही सही कसर शालाओं के प्रबंधन ने पूरी कर दी। अनेक सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों के लिए प्रबंधन के तुगलकी फरमान ने बच्चों की जान ही निकाल दी। शिक्षकों को अध्यापन से इतर बेगार के कामों में लगाने से उनका ध्यान अपने मूल कार्य से भटकना स्वाभाविक ही है। शिक्षक ही देश का भविष्य गढते हैं, किन्तु आज देश के भविष्य को बनाने वाले शिक्षकों से जनगणना, मतदाता सूची संशोधन, पल्स पोलियो जैसे कामों में लगा दिया जाता है। शिक्षकों को यह बात रास कतई नहीं आती है। यही कारण है कि शिक्षकों ने भी अपने मूल काम को तवज्जो देना बंद ही कर दिया है।

दिशाविहीन देश की शिक्षा प्रणाली को पटरी पर लाना निश्चित तौर पर आज सबसे बडी चुनौति बन गई है। बच्चों के कांधे आज बस्तों के बोझ से बुरी तरह दबे हुए हैं। दस से पंद्रह किलो से भी अधिक के बस्ते छोटे छोटे बच्चे अपने कांधों पर लादकर चलने पर मजबूर हैं। इतना ही नहीं ठंड हो या बरसात, हर मौसम में शालाओं का समय बच्चों के मन में शिक्षा के प्रति वितृष्णा का भाव भर रहा है। शाला प्रबंधन इतना भी निष्ठुर हो सकता है कि हाड गलाने वाली ठण्ड में अलह सुब्बह छः बजे बच्चा अपने अपने घरों से स्कूल के लिए रफत डालने पर मजबूर हैं।

इन परिस्थितियों में केंद्रीय विद्यालय संगठन की पहल का देश भर में निश्चित तौर पर खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए जिसमें उसने स्कूली बच्चों के प्रति पहली बार मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए बस्तों के वजन को कम करने का मुद्दा उठाया है। केवीसी के अनुसार बस्ते का कुल वजन छः किलो से अधिक नहीं होना चाहिए। यह सच है कि बच्चों को कम उमर में किताबी कीडा बनाने से उन्हें व्यवहारिक के बाजए मशीनी बनाने का ज्यादा प्रयास किया जा रहा है। आज हाई स्कूल की कोर्स की मोटी किताब को एक शैक्षणिक सत्र में कतई पूरा नहीं किया जा सकता है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि वर्तमान दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली में बच्चों की प्रतिभा का सहज विकास नहीं हो पा रहा है।

एसा नहीं है कि स्कूली बच्चों के बस्तों के बोझ से देश के शासक परिचित न हों। इसके पहले भी अनेकों बार बच्चों के बस्तों और होमवर्क को कम करने की कवायद की गई थी, किन्तु सदा ही इस मामले में नतीजा सिफर ही निकलकर आया। प्रोफेसर यशपाल समिति, चंद्राकर समिति ने भी कमोबेश इस पर चिंता जताई थी। यशपाल कमेटी की सिफारिश पर बस्ते का बोझ कम करने को लेकर देशव्यापी बहस छिड गई थी, जो समय के साथ पार्श्व बलात ही में ढकेल दी गई। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि देश में लालफीताशाही के चलते यशपाल समिति की सिफारिशें धूल खाती रहीं और बच्चे स्कूल बैग के बोझ तले दबते चले गए।

जनता के गाढे पसीने की कमाई से मोटी पगार पाने वाले बिगडेल नौकरशाहों के राज में शिक्षा व्यवस्था का आलम यह है कि 1988 में तत्कालीन संसद सदस्य चंदूलाल चंद्राकर की अध्यक्षता में बनी चंद्राकर समीति का प्रतिवेदन ही गायब है। संसद की आश्वासन समीति की फटकार के बाद जनवरी 2009 में एक बार फिर ‘‘चंद्राकर समीति की रिपोर्ट‘‘ खोजने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा अपने शीर्ष अधिकारियों से लैस एक ओर समिति बना दी थी। मजे की बात तो यह है कि समीति की सिफारिश ढूंढने बनाई गई समीति भी मूल फाईल को खोजने में नाकामयाब रही है।

जानकारों का कहना है कि अगर संसद की आश्वासन समिति के पास यह मामला नहीं होता तो कब का इसे ठण्डे बस्ते के हवाले कर दिया जाता। दरअसल 1992 में तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने सदन में इस समिति के प्रतिवेदन को लागू करवाने का आश्वासन दिया था। इसके बाद से यह सदन की संपत्ति के साथ ही साथ एचआरडी मिनिस्ट्री के गले की फांस बन गई है।

आज की शिक्षा प्रणाली महज डिग्री लेने का साधन बनकर रह गई है। अस्सी के दशक के उपरांत पैदा हुए अधिकांश बच्चों को यह नहीं मालुम है कि देश पर मुगलों ने कब आक्रमण किया था, कब अंग्रेजों ने हमें अपना गुलाम बना लिया था, कैसे और कितने जुल्म सहने के बाद देश को आजादी मिली। वर्तमान भारत की तस्वीर कुछ इसी तरह की है, जिसकी कल्पना न महात्मा गांधी ने की होगी और न ही पंडित जवाहर लाल नेहरू ने। आज की युवा पीढी आजादी के सही मायने और मोल को नहीं पहचानती है, यही कारण है कि आज एक बार फिर ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह चीन द्वारा सस्ते ‘‘चाईनीज आईटम्स‘‘ के बहाने हमारी अर्थव्यवस्था में सेंध लगाने की तैयारी की जा रही है।

रही सही कसर अब मानव संसाधन विभाग द्वारा योजना आयोग के माध्यम से निकाल दी है। देश में आने वाले समय में उच्च शिक्षा किस अंधेरी सुरंग में घुसने वाली है इसका अंदाजा योजना आयोग और मानव संसाधन मंत्रालय की सांठगांठ से लग जाता है। योजना आयोग की मंशा है कि देश में ऐसे उच्च शिक्षा संस्थानों की संस्थापना की जाए जिनका उद्देश्य लाभ कमाना हो। आयोग का दृष्टिकोण पत्र दर्शाता है कि एक अप्रेल 2012 से आरंभ होने वाली बाहरवीं पंचवर्षीय योजना में उच्च शिक्षा का क्षेत्र जिसमें तकनीकि शिक्षा को विशेष तौर पर चिन्हित किया गया है में निजी क्षेत्र के लिए मार्ग प्रशस्त करने की बात कही गई है।

कोई भी उद्योगपति एक का एक हजार किए बिना भला इस क्षेत्र में हाथ क्यों डालने चला? जहां पूंजी का निवेश होगा, वहां प्रतिस्पर्धा होना स्वाभाविक है। इससे गुणवत्ता भी बढ़ेगी ही इसमें शक की गुंजाईश नहीं है। यह सब तो ठीक है किन्तु यह सब लागू होने के बाद इसका एक स्याह पहलू भी है जिसे नजर अंदाज कतई नहीं किया जा सकता है। और वह है कि कहीं यह सब करने के बाद मंहगी शिक्षा प्रणाली कहीं देश के सत्तर करोड़ से अधिक आबादी में रहने वाले गरीब गुरबों की पहुंच से दूर न हो जाए। इसके लिए जरूरी है कि अगर इसकी अनुमति दी जाए तो सशर्त और शर्त में चालीस फीसदी सीट गरीब गुरबों के लिए आरक्षित रखने का बंधन रखा जाए, जिसका पालन न करने पर उनकी मान्यता निरस्त करने का प्रावधान भी किया जाए।

इसके साथ ही साथ देश के नौनिहालों को देखते हुए आवश्यक्ता इस बात की है कि अब नए सिरे से शिक्षा प्रणाली को समझा, देखा, परखा और लागू किया जाए। स्कूलों में क्या पढाना चाहिए, अनावश्यक विषयों को वैकल्पिक बनाया जाए, बच्चों को सारी कापी किताबें रोजाना शाला ले जाना गैर जरूरी किया जाना चाहिए। इस सबके साथ ही साथ पढाई में बच्चों रूचि बरकरार रहे इसके लिए मैदानी, प्रयोगात्मक और अन्य माध्यमों से बच्चों को स्कूल की ओर आकर्षित करना होगा। इस दिशा में सरकार को कठोर और अप्रिय कदम उठाने से नहीं चूकना चाहिए। सरकार का यह प्रयास महज केवीएस तक ही न सीमित रहे। इसे देश के हर स्कूल को लागू करने के लिए ठोस कार्ययोजना सुनिश्चित करना ही होगा।

साथ ही साथ जहां तक शिक्षा के अधिकार कानून को लागू करने की बात रही तो सरकार को चाहिए कि इस अनिवार्य शिक्षा कानून में संशोधन करे। इसमें भारतीय रेल, दिल्ली परिवहन निगम और महाराष्ट्र राज्य सडक परिवहन की तर्ज पर पैसेंजर फाल्ट सिस्टम लागू किया जाना चाहिए। जिस तरह इनमें सफर करने पर टिकिट लेने की जवाबदारी यात्री की ही होती है। चेकिंग के दौरान अगर टिकिट नहीं पाया गया तो यात्री पर भारी जुर्माना किया जाता है। उसी तर्ज पर हर बच्चे के अभिभावक की यह जवाबदारी सुनिश्चत की जाए कि उसका बच्चा स्कूल जाए यह उसकी जवाबदारी है। निरीक्षण के दौरान अगर पाया गया कि कोई बच्चा स्कूल नहीं जाता है तो उसके अभिभावक पर भारी पेनाल्टी लगाई जानी चाहिए। सरकार द्वारा सर्वशिक्षा अभियान, स्कूल चलें हम, मध्यान भोजन आदि योजनाओं पर अरबों खरबों रूपए व्यय किए जा चुके हैं, पर नतीजा सिफर ही है। निजाम अगर वाकई चाहते हैं कि उनकी रियाया पढी लिखी और समझदार हो तो इसके लिए उन्हें वातानुकूलित कमरों से अपने आप को निकालकर गांव की धूल में सनना होगा तभी अतुल्य भारत की असली तस्वीर से वे रूबरू हो सकेंगे।

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हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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