संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी ‘और ‘धर्मनिरपेक्ष ‘पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।

डॉ. बालमुकुंद पांडेय 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के  सरकार्यवाह श्रीमान  दत्तात्रेय होसवाले जी ने’ इमरजेंसी के 50 साल ‘ के कार्यक्रम में कहा कि ‘ समाजवादी’ और’ धर्मनिरपेक्ष ‘ शब्दों को आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया था । इन शब्दों को सत्ता की सुरक्षा के लिए शामिल किया गया था । उनका कहना हैं कि इन शब्दों को “प्रस्तावना में रहना चाहिए या नहीं, इस पर विचार किया जाना चाहिए।” “आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े गए थे। ये  दो शब्द ‘ समाजवादी’ और’ धर्मनिरपेक्ष’ है। यह प्रस्तावना में पहले नहीं थे।

भारत के संविधान को 26 नवंबर, 1949 को  भारत के लोगों द्वारा अंगीकार किया गया था। संविधान भारत की सर्वोच्च विधि हैं एवं इस भू- भाग का सर्वोच्च विधि है। सभी विधायिका ,कार्यपालिका, एवं  न्यायपालिका से सर्वोच्च है । संविधान भारत भूमि पर ईश्वर का साक्षात् पदार्पण है। संविधान सभा ने जिस संविधान को अंगीकृत किया था , उसमें ‘ समाजवादी’ और ‘ धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों का समावेश नहीं था। आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकार निलंबित थे, संसद शक्तिहीन थीं एवं न्यायपालिका पंगु थीं। लोकतंत्र निर्देशित लोकतंत्र की तरह चल रहा था। संवैधानिक शब्दों में कहा जाए तो लोकतंत्र  मुठ्ठी भर लोगों के द्वारा ही संचालित हो रहा था. इस तरह तत्कालीन परिस्थितियों में संविधान, राजनीतिक व्यवस्था और सरकार  गुट तंत्र का पर्याय  था।

 सरकार के दिनोदिन के कार्यों में राज्येतर कर्ताओं का अनावश्यक हस्तक्षेप था। ऐसी परिस्थितियों में संविधान संवैधानिक सरकार की अभिव्यक्ति नहीं रह चुकी थीं। सरकार जनता और लोकसभा (जनता के सदन) से विश्वास खो चुकी थीं।

ऐसी परिस्थितियों में संविधान की मूल भावना एवं संविधान की आत्मा का संशोधन करना लोकतांत्रिक मूल्यों एवं  आदर्शों के विरुद्ध था। प्रस्तावना की मूल भावना लोक संप्रभुता है। भारत के संविधान में संप्रभुता जनता में निवास करती हैं । जन संप्रभुता की उपेक्षा करके संशोधन लोकहित एवं समाजहित में नहीं था।

24 जनवरी ,1993 को तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी  ने भी संविधान पर नए सिरे से विचार की मांग दोहराई थीं। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी  वाजपेई जी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी थीं तो उन्होंने भी संविधान की समीक्षा के लिए एक विशेषज्ञ समिति सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति MM poonchhi  के अंतर्गत गठित करने का फैसला किया था।” जब बीजेपी सत्ता में नहीं थी, तब ऐसे मुद्दों पर आरएसएस के विचार का अलग महत्व था और  बीजेपी सत्ता में है  और संगठन का प्रभाव है तो इसका प्रासंगिक महत्व है।” साल 2014 में नरेंद्र मोदीजी पूर्ण बहुमत की सरकार के मुखिया बनते ही” संविधान को भारत का एकमात्र पवित्र ग्रंथ” और “संसद को लोकतंत्र का मंदिर” कहकर साष्टांग  प्रणाम और प्रशंसा की थी ।

साल 2018 में दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित कार्यक्रम में संघ के संघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा ” भारत के संविधान को भारत के लोगों ने तैयार किया है और संविधान का अंगीकार आम सहमति (कंसेंसस) से हुआ है , इसलिए संविधान के अनुशासन का पालन करना सबका कर्तव्य है।” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पहले से ही मानता हैं कि………… हम स्वतंत्र भारत के सब प्रतीकों का  एवं संविधान की भावना का पूर्ण सम्मान करते है, अर्थात भारत के लोगों द्वारा तैयार मूल संविधान को  लोगों ने आत्मा से अंगीकार किया  हैं जबकि 1976 में प्रस्तावना में संशोधनों के पश्चात ‘ समाजवादी ‘ और ‘ पंथनिरपेक्ष’ आमसहमति (कंसेंसस )की अभिव्यक्ति  नहीं थीं क्योंकि विपक्ष के निर्वाचित सांसदों को सरकार ने बलात् कारावासित कर दिया था । तत्कालीन परिस्थितियों में जनता को  भय  एवं डर के  वातावरण में रखा गया था। सरकार के विरोध में खड़े होने पर सलाखों के भीतर कर दिया जाता था। समाचार पत्रों को सरकार के आलोचना करने पर यातनाएं एवं प्रताड़ित किया जाता था। मूल संविधान कानूनी संप्रभुता की अभिव्यक्ति थीं जबकि 1976 में प्रस्तावना में जोड़े गए शब्द  दबावजनित राजनीति  एवं लोक संप्रभुता का असम्मान था।

प्रस्तावना अपरिवर्तनीय हैं लेकिन आपातकाल के दौरान प्रस्तावना में ‘ समाजवादी’ एवं ‘ पंथनिरपेक्ष ‘ जोड़े गए थे । इन शब्दों को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जी जोड़ने के समर्थन में नहीं थे, यहां तक कि उनके  किचेन केबिनेट में भी इन शब्दों के जोड़ने पर आम सहमति नहीं थी । यह सत्य है कि तत्कालीन परिस्थितियों में श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने निर्वाचन के रद्द किए जाने पर एवं इलाहाबाद उच्च न्यायालय के प्रतिकूल निर्णय के कारण आपातकाल जैसे उपबंध को देश पर  थोपा था। तत्कालीन परिस्थितियों में उत्पन्न भय, निराशा, सत्ता से वंचित होने  होने का भय  एवं लोकदबाव को देखते हुए भारत के संविधान में 1976 में 42 वें संविधान संशोधन के द्वारा  ‘ समाजवादी’ और ‘ पंथनिरपेक्ष ‘ शब्दों को जोड़ा गया था। प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ .बी .आर. आंबेडकर  भी संविधान में ‘ पंथनिरपेक्ष ‘ और ‘ समाजवादी’ शब्दों को जोड़ने के पक्ष में नहीं थे।

भारत को” हिंदू राष्ट्र” बनाना है  एवं हिंदू समाज को संगठित एवं एकत्रित  करना है तो इसके लिए सर्वप्रथम प्रस्तावना से ‘ समाजवादी ‘  और’ धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों  को संशोधन करके हटाना होगा।

डॉ.बालमुकुंद पांडेय 

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