व्यक्ति नहीं संस्था थे ठाकरे

महाराष्ट्र का शेर, मराठा क्षत्रप, मराठी अस्मिता का प्रतीक, हिन्दू हृदय सम्राट और भी न जाने किन किन संबोधनों से पुकारा गया बाल ठाकरे को। यहां तक कि जब उनके नाम को लिखा गया तो बाला साहेब लिखा गया और उच्चारण में बाल ठाकरे साहेब हो गए। सार्वजनिक जीवन से लेकर राजनीति के मोर्चे पर बाल ठाकरे की लोकप्रियता का आलम ही था कि उनकी शव यात्रा में २० लाख से अधिक लोगों ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें अंतिम विदाई दी। आप ठाकरे से सहमत भले ही न हों किन्तु उन्हें नकारने का साहस भी नहीं दिखा सकते। ठाकरे मात्र एक व्यक्ति नहीं बल्कि संस्था थे। उनके लिए देश हित सर्वोपरि था। ठाकरे भारतीय राजनीति के एकलौते ऐसे नेता थे जिन्होंने अपने बयानों पर कभी पलटी नहीं मारी। जो कह दिया; जीवन पर्यंत उसकी पर कायम रहे। अपने पिता केशव बलिराम ठाकरे से प्रभावित बाल ठाकरे के अन्दर व्यवस्था विरोधी गुण भी उनके पिता की देन थे। उनके पिता ने उन्हें सरकारी नौकरी करने से मना कर दिया था लिहाजा उन्होंने खुद के लिए रास्ता बनाया। और रास्ता क्या; उन्होंने एक ऐसे मार्ग का निर्माण किया जिसपर चलकर कई गुमनाम व्यक्तित्व प्रसिद्धि के शिखर पुरुष हो गए। उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल हों या शिवसेना छोड़ वर्तमान में कांग्रेस प्रवक्ता संजय निरुपम; कितने ही लोगों को उन्होंने राजनीति में स्थापित करवा दिया। बाल ठाकरे को पानी पी-पीकर गरियाने और कोसने वाले भी इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकते कि उन्होंने पद, प्रतिष्ठा और सत्ता को कभी धेय नहीं माना। शिवसेना के निर्माण और उसको स्थापित करने में ही उन्हें आत्म-संतुष्टि का भान होता था। वे हमेशा कहा करते थे कि शिवसैनिक ही उनकी प्राणवायु हैं। दरअसल ठाकरे के उत्थान को समझने के लिए तत्कालीन महाराष्ट्र की परिस्तिथियों को समझना होगा। जिस वक्त ठाकरे प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर.के लक्ष्मण के साथ फ्री प्रेस जर्नल में काम करते थे, एकीकृत महाराष्ट्र का आंदोलन अपने चरम पर था। उनके कार्टून भी आंदोलन समर्थित हुआ करते थे। आंदोलन के चलते महाराष्ट्र में बेरोजगारी चरम पर थी, राजनीतिक विचारधाराओं के बीच इतनी धुंध जमा हो चुकी थी कि जनता दिग्भ्रमित हो रही थी। चारों और गुस्सा चरम था। महाराष्ट्र जातियों की जकड़न में कैद था। ऐसे में बाल ठाकरे मराठी मानुष और उसकी अस्मिता का मुद्दा लेकर आए। चूंकि मराठी मानुष की अवधारणा में जाति, वर्ग, सम्प्रदाय का स्थान नहीं था लिहाजा जनता ने उन्हें हाथों-हाथ लिया। अधिसंख्य लोगों के लिए बिना किसी गॉडफादर के ठाकरे का कद किसी अजूबे के सच होने जैसा ही है। दरअसल एकीकृत महाराष्ट्र आंदोलन के चलते ठाकरे को यह बात समझ में आई कि यदि राजनीति करना है तो वाणी, व्यक्तित्व व ओजस्विता की ताकत को पहचान दिलानी होगी। और फिर इतिहास गवाह है कि उन्होंने इन तीन गुणों से जीवन पर्यंत समझौता नहीं किया। बाल ठाकरे ने मुंबई में चाव से खाए जाने वाले वडा पाव को भी मराठी अस्मिता से जोड़कर मराठियों को एकजुट कर दिया। उस दौर में एक आम उत्तर भारतीय वडा पाव बेचकर साल भर में ५०० से अधिक रुपये कम लेता था किन्तु १७ प्रतिशत गुजरती व ४.९ प्रतिशत मराठी वडा पाव बेचकर साल भर में ५०० भी नहीं कम पाते थे। दक्षिण भारतियों के विरुद्ध लुंगी-पुंगी आंदोलन की सफलता के बाद ठाकरे को उत्तर भारतियों के खिलाफ मुद्दा चाहिए था और उन्होंने वडा पाव को राजनीति का केंद्र बना दिया। दूसरी ओर १९६० से १९७५ के बीच कपड़ा मिलों के शहर मुंबई में समाजवाद-साम्यवाद को जड़ से उखाड़ने का श्रेय भी ठाकरे को ही जाता है। श्रीपाद अमृत डांगे, कृष्णा देसाई और जार्ज फर्नाडिस जैसे चोटी के साम्यवादी-समाजवादी नेताओं के नेतृत्व में चल रही यूनियनों के लाल झंडे की जगह शिवसेना का भगवा फहराकर ही ठाकरे ने मिल मजदूरों को शिवसेना से जोड़ा। अंतत: यही यूनियनें शिवसेना की असली ताकत बनकर उभरीं और मुंबई मुंबई को साम्यवादियों से मुक्त करवा कर एक नए युग का सूत्रपात किया।

 

आज देश में जिस गठबंधन सरकार के मॉडल का चलन बढ़ा है या यों कहें कि गठबंधन आज मजबूती की बजाए मजबूरी बन गया है, उन्हें ठाकरे के गठबंधन धर्म से सीख लेनी चाहिए। बिहार, कश्मीर सहित केंद्र में भी गठबंधन की राजनीति भले ही प्रौढ़ होती दिखाई दे रही हो किन्तु सफलतापूर्वक गठबंधन सरकार चलाने का पहला मॉडल भी ठाकरे के ही नेतृत्व में १९९५ में महाराष्ट्र की शिवसेना-भाजपा सरकार में देखा गया। सेना-भाजपा की सरकार जाने के बाद पिछले १३ साल से महाराष्ट्र में चल रही कांग्रेस-राकांपा सरकार ने भी इसी मॉडल को अपना रखा है। भारतीय जनता पार्टी लाख दावे करे कि हिंदुत्व की अवधारणा पर उसका एकाधिकार है किन्तु १९८७ के उपचुनाव में पहली बार ठाकरे ने ही हिंदुत्व के नारे का इस्तेमाल किया था। हिंदुत्व को पोषित करने में अपना सर्वस्व झोंकने वाले बाल ठाकरे पर मुस्लिम विरोधी का ठप्पा लग गया। हालांकि इसमें उनके कट्टर बयानों ने भी महती भूमिका का निर्वहन किया किन्तु इसे खराब पत्रकारिता की पराकाष्ठा कहें या बिकाऊ अखबार मालिकों का उनके प्रति द्वेष; उनके कथन को हमेशा बढ़ा-चढ़ा कर और चटखारे ले लेकर प्रस्तुत किया गया ताकि स्वयं सस्ती लोकप्रियता हासिल की जाए। जिस व्यक्ति के बयान पर सम्पादकीय लिख दिए जाते हों या राजनीतिक विश्लेषकों की फ़ौज उसका विश्लेषण करने बैठती हो; उसमें कुछ तो बात होगी ही। विख्यात पत्रिका टाइम ने एक बार ठाकरे का इंटरव्यू छापा जिसमें उन्होंने मुस्लिमों को संबोधित करते हुए कहा- किक देम आउट। उनकी इस भाषा पर उनके विरुद्ध आपराधिक प्रकरण भी दर्ज किया गया। बाद में जब उनसे उनके बयान के मायने पूछे गए तो उन्होंने निर्भीकता से कहा कि वे मुस्लिमों के विरुद्ध नहीं बल्कि देशद्रोहियों के विरुद्ध हैं। उन्होंने पत्रकारिता के गिरते स्तर पर सवालिया निशान लगाते हुए दुःख जताया। पत्रकारिता के गिरते स्तर के चलते ही उन्होंने १९८९ में सामना को दिशा दी ताकि निडर होकर वे पत्रकारिता में मिसाल बन सकें। हालांकि हाल के वर्षों में सामना की सम्पादकीय भाषा शैली में आपत्तिजनक शब्दों का चलन बढ़ा है किन्तु जो बाल ठाकरे को करीब से जानते हैं वे सार्वजनिक रूप से कहते हैं कि वे इस तरह की भाषा को पत्रकारिता में जगह नहीं दे सकते।

 

जीवन के अंतिम दिनों में भी बाल ठाकरे के जोश और देश के प्रति उनके समर्पण भाव में कोई कमी नहीं आई थी। भारत-पाकिस्तान क्रिकेट सीरीज खेले जाने के पक्ष में गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के सब कुछ भूल जाओ वाले बयान पर उन्होंने कहा था कि यह सुनकर उनका खून खौल रहा है। यदि वे बीमार नहीं होते तो शिंदे को जवाब देते। मुंबई से लेकर महाराष्ट्र; यहां तक की देशभर में उनकी छवि के साथ खिलवाड़ किया गया जिससे यह धारणा पुख्ता हुई कि ठाकरे जोड़ने में नहीं तोड़ने में विश्वास रखते हैं। और यही वजह थी कि लोग उनसे डरते थे। उसने डर का यह आलम था कि जया बच्चन के आपत्तिजनक बयान पर ठाकरे की त्वरित प्रतिक्रिया के चलते अमिताभ बच्चन ने खुद मातोश्री जाकर उनसे माफ़ी मांगी थी। हालांकि इसमें कितनी सच्चाई है यह तो मीडिया ही जाने जिसने अमिताभ के मातोश्री जाकर ठाकरे से मिलने को डर साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पर मीडिया के इसी दोगलेपन ने बाल ठाकरे के बाल हृदय को कठोर बना दिया था। अपने मुंबई प्रवास के दौरान मुझे हालांकि बाल ठाकरे से मिलने का मौका नहीं मिला किन्तु आम मुम्बईकर से उनके बारे में चर्चारत होने के बाद में इसी नतीजे पर पहुंचा हुआ कि जो छवि बाल ठाकरे की बनाई गई वे वैसे तो कतई नहीं थे। अपनी मित्र मंडली के साथ घूमना और सिगार के कश लगाना उनका शौक था जिसे वे समय के साथ जेहन में याद करते थे। ठाकरे की मृत्यु पर यदि लता मुंबई को अनाथ कहती हैं या शोभा डे महाराष्ट्र के शेर की दहाड़ को शांत बताती हैं तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ठाकरे की शख्सियत का स्तर क्या था? ठाकरे का जाना शिवसेना के लिए अपूरणीय क्षति है तो राजनीति ने एक ऐसे विरले नायक को खो दिया है जिसने पद-सत्ता से इतर सर्वोच्च सत्ता पर अपना आधिपत्य जमाया। राजनीति ठाकरे की आक्रामकता को सदा-सर्वदा याद करेगी।

 

सिद्धार्थ शंकर गौतम

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

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