नहीं होगी जाति आधारित जनगणना

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     संदर्भ-सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया मद्र्रास हाईकोर्ट का जाति आधारित जनगणना कराने का फैसला

Caste-based censusप्रमोद भार्गव

 

सर्वोच्च न्यायालय ने मद्रास उच्च न्यायालय के जाति आधारित जनगणना कराने का फैसला रद्द कर दिया। मद्रास हाईकोर्ट ने 24 अक्टूबर 2008 और 12 मई 2010 को दिए आदेश में जनगणना विभाग को जाति आधारित जनगणना कराने के आदेश दिए थे। इस आदेश की अपील सुप्रीम कोर्ट को की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने 7 नबंवर 2014 को दिए फैसले में साफ किया है कि जनगणना कैसे कराई जाए यह सरकार का नीतिगत मामला है। संविधान ने सरकार को अधिकार दिया है कि वह अधिसूचना जारी करके जनगणना के कायदे-कानून तय करे। कोर्ट नीतिगत मामलों में केवल तब दखल दे सकता है,जबकि सरकारी नीति को चुनौती दी गई हो और वह नीति संविधान के अनुरूप न हो। लिहाजा हाईकोर्ट सरकार को जाति आधारित जनगणना कराने का आदेश नहीं दे सकता है। ये फैसला न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने सुनाया है।

जातीय आधार पर जनगणना कराने की मांग संसद में शरद यादव,लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव भी उठाते रहे हैं। इन नेताओं का मानना है कि सामाजिक न्याय व समता की संवैधानिक अवधारणा तभी पूरी होगी जब जाति आधारित जनगणना हो। इससे सरकार कमजोर वर्गों के हितों के दृष्टिगत कल्याणकारी योजनाएं चला सकती है और जातीय आबादी के अनुपात में आरक्षण की व्यस्था भी की जा सकती है। देश में पहली जाति आधारित जनगणना 1931 में हुई थी। तब पिछड़ी जातियों की आबादी 35 करोड़ 30 लाख थी। मसलन देश की आबादी के 52 फीसदी। शरद,लालू,मुलायम पिछड़ों को आरक्षण का प्रतिशत इसी अनुपात में चाहते थे। बल्कि बाद में तो इन लोगों ने सामाजिक सुरक्षा का बहाना बनाकर शिक्षा में आरक्षण की मांग भी पिछड़ों के लिए उठा दी थी। किंतु संसद में हंगामा होने के अलावा कोई नतीजा नहीं निकला था।

हालांकि जाति आधारित जनगणना कराने में कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए था। इस प्रणाली से कई अहं और नए पहलू सामने आते। बृहत्तर हिन्दू समाज (हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख) में जिस जातीय संरचना को ब्राह्मणवादी व्यवस्था का दुष्चक्र माना जाता है, हकीकत में यह व्यवस्था कितनी पुख्ता है, इसका खुलासा हो सकता था ? मुस्लिम समाज में भी जातिप्रथा पर पर्दा डला हुआ है। आभिजात्य मुस्लिम वर्ग यही स्थिति बहाल रखना चाहता है, जिससे सरकारी योजनाओं के जो लाभ हैं वे पूर्व से ही संपन्न लोगों को मिलते रहें। जबकि मुसलमानों की सौ से अधिक जातियां हैं, परंतु इनकी जनगणना का आधार धर्म और लिंग है। अल्पसंख्यक समुदाओं में से एक पारसियों की घटती आबादी की स्थिति भी जातीय गणना से साफ हो जाती, क्योंकि हाल ही में इस समुदाय को प्रजनन सहायता योजना चलाकर जनसंख्या वृद्धि दर बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि जाति ब्राह्मणवादी व्यवस्था का ऐसा दुष्चक्र है कि हर जाति को अपनी जाति से छोटी जाति मिल जाती है। यह ब्राह्मणवाद नहीं है बल्कि पूरी की पूरी साइकिल है। अगर यह जातिचक्र एक सीधी रेखा में होता तो इसे तोड़ा जा सकता था। यह वर्तुलाकार है। इसका कोई अंत नहीं है। जब इससे मुक्ति का कोई उपाय नहीं है तो जाति आधारित जनगणना पर आपत्ति किसलिए ? वैसे भी धर्म के बीज-संस्कार जिस तरह से हमारे बाल अवचेतन में जन्मजात संस्कारों के रूप में बो दिए जाते हैं, कमोबेश उसी स्थिति में जातीय संस्कार भी नादान उम्र में ही उड़ेल दिए जाते हैं।

इस तथ्य को एकाएक नहीं नकारा जा सकता कि जाति एक चक्र है। यदि जाति चक्र न होती तो अब तक टूट गई होती। जाति पर जबरदस्त कुठारघात महाभारत काल के भौतिकवादी ऋषि चार्वाक ने किया था। उनका दर्शन था, ‘इस अनंत संसार में कामदेव अलंध्य हैं। कुल में जब कामिनी ही मूल है तो जाति की परिकल्पना किसलिए ? इसलिए संकीर्ण योनि होने से भी जातियां दुष्ट, दूषित या दोषग्रस्त ही हैं, इस कारण जाति एवं धर्म को छोड़कर स्वेच्छार का आचरण करो।’ गौतम बुद्ध ने भी जो राजसत्ता भगवान के नाम से चलाई जाती थी, उसे धर्म से अलग कर दिया था। बुद्ध धर्म, जाति और वर्णाश्रित राज व्यवस्था को तोड़कर समग्र भारतीय नागरिक समाज के लिए समान आचार संहिता प्रयोग में लाए। चाणक्य ने जन्म और जातिगत श्रेष्ठता को तिलांजलि देते हुए व्यक्तिगत योग्यता को मान्यता दी। गुरूनानक देव ने जातीय अवधारणा को अमान्य करते हुए राजसत्ता में धर्म के उपयोग को मानवाधिकारों का हनन माना। कबीरदास ने जातिवाद को ठेंगा दिखाते हुए कहा भी,‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहने दो म्यान‘। महात्मा गांधी के जाति प्रथा तोड़ने के प्रयास तो इतने अतुलनीय थे कि उन्होंने ‘अछूतोद्धार’ जैसे आंदोलन चलाकर भंगी का काम दिनचर्या में शामिल कर उसे आचरण में आत्मसात किया। इतने सार्थक प्रयासों के बाद भी क्या जाति टूट पाई ? नहीं, क्योंकि कुलीन हिन्दू मानसिकता, जातितोड़क कोशिषों के समानांतर अवचेतन में पैठ जमाए बैठे मूल से अपनी जातीय अस्मिता और उसके भेद को लेकर लगातार संघर्ष करती रही है। इसी मूल की प्रतिच्छाया हम पिछड़ों और दलितों में देख सकते हैं। मुख्यधारा में आने के बाद न पिछड़ा, पिछड़ा रह जाता है और न दलित, दलित। वह उन्हीं ब्राह्मणवादी हथकंड़ों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने लगता है, जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था के हजारों साल से हथकंडे रहे हैं। वस्तुतः समस्या व्यक्ति में नही है,बल्कि उस संरचना में है,जिसे तोड़ना जातिवाद से लड़ने की अनिवार्य शर्त है।

दरअसल जनगणना करते समय संविधान क अनुच्छेद 16 की जरूरतों को पूरा किया जाता है। इससके मुताबिक जनगणना करते समय कई सूचनाएं एकत्रित की जाती है। इनमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की गिनती की जाती है। लेकिन इस दायरे में आने वाली जातियों की भी जाति आधारित गिनती नहीं की जाती। संविधान के इसी प्रावधान को आधार मानकर सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट के जाति आधारित जनगणना के आदेश को खारिज किया है। जातिवादी जनगणना और उससे वर्तमान आरक्षण पद्धति में परिवर्तन की उम्मीद को लेकर पिछड़े तबके के अलंबदार चाहते थे कि पिछड़ी जातियों की गिनती अनुसूचित जाति व जनजातियों की तरह कराई जाए। जिससे आरक्षण का पिछड़ी जातियों को अतिरिक्त लाभ मिल सके।

आरक्षण किसी भी जाति के समग्र उत्थान का मूल कभी नहीं बन सकता। क्योंकि आरक्षण के सामाजिक सरोकार केवल संसाधनों के बंटवारे और उपलब्ध अवसरों में भागीदारी से जुड़े हैं। इस आरक्षण की मांग शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार और अब ग्रामीण अकुशल बेरोजगारों के लिए सरकारी योजनाओं में हिस्सेदारी से जुड़ गई है। परंतु जब तक सरकार समावेशी आर्थिक नीतियों को अमल में लाकर आर्थिक रूप से कमजोर लोगों तक नहीं पहुंचती तब तक पिछड़ी या निम्न जाति अथवा आय के स्तर पर पिछले छोर पर बैठे व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार नहीं आ सकता। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि पूंजीवाद की पोषक सरकारें समावेशी आर्थिक विकास की पक्षधर क्यों होगी ? नरेंद्र मोदी सरकार भी इसी ढर्रे पर चलती दिखाई दे रही है। वैसे भी हमारा संविधान उस साठ फीसदी गरीब आबादी की वकालात नहीं करता, जिसे दो जून की रोटी भी वक्त पर नसीब नहीं होती। क्योंकि यही वह संविधान है जो प्रत्येक देशवासी को भोजन का अधिकार तो देता है लेकिन भूमि के व्यावसायिक अधिग्रहण को जायज ठहराता है। साधारण नमक और कंपनियों को पानी का अधिकार देकर बुनियादी हकों की समस्याएं खड़ी करता है।

मुस्लिम धर्म के पैरोकार यह दुहाई देते हैं कि इस्लाम में जातिप्रथा की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए ज्यादातर मुसलमान जाति के आधार पर जनगणना को नकारते हुए जनगणना प्रारूप में केवल धर्म और लिंग दर्ज करते हैं। जाति का खाना अकसर खाली छोड़ दिया जाता है अथवा उसमें मुसलमान लिख कर कत्र्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। जबकि एम एजाज अली के मुताबिक मुसलमान भी चार श्रेणियों में विभाजित हैं। उच्च वर्ग में सैयद, शेख, पठान, अब्दुल्ला, मिर्जा, मुगल, अशरफ जातियां शुमार हैं। पिछड़े वर्ग में कुंजड़ा, जुलाहा, धुनिया, दर्जी, रंगरेज, डफाली, नाई, पमारिया आदि शामिल हैं। पठारी क्षेत्रों में रहने वाले मुस्लिम आदिवासी जनजातियों की श्रेणी में आते हैं। अनुसूचित जातियों के समतुल्य धोबी, नट, बंजारा, बक्खो, हलालखोर, कलंदर, मदारी, डोम, मेहतर, मोची, पासी, खटीक, जोगी, फकीर आदि हैं।

अल्संख्यक समूहों में इस वक्त हमारे देश में पारसियों की घटती जनसंख्या चिंता का कारण है। इस आबादी को बढ़ाने के लिए भारत सरकार ने प्रजनन सहायता योजना समेत तीन योजनाओं को लागू किया है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के एक सर्वे के मुताबिक पारसियों की जनसंख्या 1941 में 1,14000 के मुकाबले 2001 में केवल 69000 रह गई। इस समुदाय में लंबी उम्र में विवाह की प्रवृत्ति के चलते भी यह स्थिति निर्मित हुई है। बीते दस साल में इनकी आबादी किस हाल में है इसका खुलासा भी जातीय गणना से होगा। इस जाति का देश के औद्योगिक और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। प्रसिद्ध टाटा परिवार इसी समुदाय से है।

 

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