बड़ी ही कठिन हैं राह पनघट की-राकेश कुमार आर्य

atalइतिहास लिखा जाता है, संघर्षों से। संघर्षों की यदि बात करें तो भाजपा के संघर्षशील व्यक्तित्व के धनी अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी इतिहास लिखकर पटल से अब दूर हो गये हैं, और उनकी कलम वक्त ने अब नरेन्द्र मोदी और राजनाथ सिंह के हाथ में सौंप दी है। अटल और आडवाणी की जोड़ी को पटल से दूर कहने या लिखने में जोर पड़ता है परंतु वक्त की सच्चाई अब यही है। इन दोनों नेताओं का व्यक्तित्व भाजपा को और उसकी नीतियों में विश्वास रखने वाले लोगों को देर तक प्रभावित करेगा। भाजपा ने अपनी गोवा कार्यकारिणी में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को भाजपा की चुनाव प्रचार अभियान समिति की कमान सौंप दी है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के इस साहसपूर्ण निर्णय की भाजपा के कार्यकर्ताओं ने सराहना की है और उन्हें एक ‘सही निर्णय लेने वाला’ राष्ट्रीय अध्यक्ष माना गया है। राजनाथ के इस निर्णय को साहसिक इसलिए मानना पड़ेगा कि उन पर अभी इस निर्णय को न लेने का बहुत भारी दबाव था। परंतु अध्यक्ष ने जिस उत्साह से यह बैठक आहूत की थी तथा बैठक के दौरान उनके चेहरे पर जो आत्म विश्वास पहले दिन से ही झलक रहा था, उससे स्पष्ट था कि वह अवश्य ही कोई ‘राजपूती करतब’ दिखाएंगे।

भाजपा के भीतर से ही और कार्यकारिणी के मंच से भी आवाज आयी कि ‘मोदी को कमान और आडवाणी को सम्मान’ दिया जाना चाहिए। यह नारा बहुत ही उचित है। आडवाणी सारे गलत नही हैं। वह पार्टी की गोवा बैठक में नही पहुंचे और उन्होंने पार्टी के कई शीर्ष पदों से इस्तीफा देकर मामले को और भी पेचीदा बना दिया है, यह उनकी हठवादिता भी है और भारी चूक भी है। परंतु केवल यह ‘हठवादिता और भारी चूक’ ही उन्हें पार्टी पटल से उठाकर नीचे फेंक देने के लिए पर्याप्त नही है, हालांकि उन्होंने बड़े परिश्रम से जो महल बनाया था उसे स्वयं ही भूमिसात करने का उन्होंने आत्मघाती कदम उठाया है। पर यहां यह बात भी याद रखने योग्य है कि जब कभी कठिन परिश्रम और पुरूषार्थ से किसी संगठन को या संस्था को सींच सींचकर बड़ा करके उससे विदा होने का वक्त आता है और यह देखा जाता है कि अब इस परिश्रम और पुरूषार्थ के फल कोई और खाएगा तो यह सोचकर अक्सर लोगों को कष्टï होता है। एक किसान आम का पेड़ लगाता है, तो सोचता है कि इसके फल मेरे बच्चे खाएंगे, अत: इस सोच के कारण जाते समय उसे कष्टï नही होता, क्योंकि आम का पेड़ लगाया ही बच्चों के लिए था। ऐसे ही एक पिता अपने अधिकारों का और शक्तियों का हस्तांतरण धीरे धीरे अपने बेटे को कर देता है। यह प्रक्रिया इतनी सहजता से संपन्न हो जाती है कि स्वयं पिता और पुत्र को भी पता नही होता कि उनके बीच ‘सत्ता और शक्ति’ का हस्तांतरण कब हो गया? लेकिन लोकतंत्र में जब व्यक्ति का अवसान होता है और उसके किन्हीं अपनों में से ही लोग उसके किसी ‘वारिस’ का चयन करते हैं, तो पीड़ा होती है। क्योंकि राजनीति में आदमी आम अपने लिए लगाता है, वहां उसका कोई बेटा नही होता। इसलिए व्यक्ति वक्त की नब्ज को पहचानने में कई बार चूक कर जाता है और वह अपने अवसान को ‘अपनों की गद्दारी’ मान बैठता है, जबकि यह गद्दारी नही अपितु वक्त की आवाज होती है। इसलिए आडवाणी पूरी तरह गलत नही हैं, उनसे चूक हो गयी है, क्योंकि वह भी एक इंसान हैं। कुल मिलाकर वह पार्टी के लिए आज भी सम्मान के पात्र हैं। उन्हें अपना गुस्सा ठंडा करना होगा और नरेन्द्र मोदी को भी ‘सम्मान’ के इन क्षणों में अतिरेक से नही अपितु विनम्रता से काम लेना होगा। यह उन्होंने अच्छा किया कि पार्टी की कमान संभालने के बाद भी उन्होंने आडवाणी से फोन पर आशीर्वाद लिया और बाद में आडवाणी के द्वारा इस्तीफा देने पर भी मोदी ने अपने बुजुर्ग नेता को मनाने का प्रयास किया है। उनके लिए उचित यही होगा कि वे अपने बुजुर्ग नेता के घावों को धीरे धीरे भरने का काम करें। क्योंकि बुजुर्ग के अनुभव उन्हें आगे बढ़ने में मदद करेंगे। जहां तक कांग्रेस जैसी अन्य पार्टियों द्वारा भाजपा के अंदरूनी मामलों पर चुटकी लेने की बात है तो कांग्रेस के पास इस समय वैसे ही कम वजन के नेता हैं। जिन्हें कुछ न कुछ बोलने के लिए बोलना होता है। अन्यथा एक परिवार की भक्त होकर भी कांग्रेस में कितनी अंतर्कलह रहती है, ये किसी से छिपा नही है। पार्टी अंतर्कलह के कारण कई बार विघटन तक का शिकार बनी है। 1967 में पार्टी का व्यापक स्तर पर विभाजन हुआ था, उसके बाद भी कई बार कांग्रेस में टूट फूट हुई है। जहां सत्ता का दूसरा केन्द्र उभरता है वहां विघटन की आग तो निकलती ही है, बाप बेटे में सत्ता का संघर्ष बहुत कम होता है, भाई भाई में अक्सर होता है पर वहां भी तात्कालिक आधार पर ‘आग’ की चिंगारियां खूब देखी जाती हैं। इसलिए एक स्वाभाविक क्रिया प्रतिक्रिया की कार्यवाही पर अधिक चिल्ल पौं उचित नही हैं।

नरेन्द्र मोदी की स्वीकार्यता को अब भाजपा अपने सहयोगी दलों तक ले जाए। परंतु आडवाणी को पहले मनाने का प्रयास होना चाहिए और यदि वह नही मानते हैं तो फिर यह भी याद रखना चाहिए कि 1967 में इंदिरा गांधी का साथ छोड़कर जो बुजुर्ग नेता दूर हुए थे बाद में धीरे धीरे वे सब किस प्रकार इंदिरा के पास वापिस लौट आए थे। शरद यादव जैसे सुलझे हुए नेता राजग के पास हैं, जो ये बखूबी जानते हैं कि भाजपा अपना नेता बदले तो वह उनका अंदरूनी मामला है, हालांकि अब वह भी नीतीश कुमार के नकारात्मक दृष्टिकोण के कारण आडवाणी के इस्तीफे के बाद अपना नजरिया बदल रहे हैं, तो उन्हें और अन्य राजग घटकों को भी स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए। मोदी को अकेले भी चलना हो तो वे चलें, साथी और भी मिल सकते हैं और यह भी मानकर चलना चाहिए कि साथियों की तलाश ही क्यों की जाए, अपने बूते पर सरकार क्यों न बनाई जाए? इस बात के लिए मोदी को कमान और आडवाणी को सम्मान का फार्मूला तो अपनाना ही पड़ेगा। संघर्ष लंबा हो सकता है एक मौका भी हाथ से जा सकता है लेकिन उसकी परवाह नही होनी चाहिए। वैसे राजग के अन्य घटक कुल मिलाकर बहुत जल्दी राजग से नाता तोड़ने वाले नही हैं।

मोदी व्यवहार में अटल जी जैसी सर्वग्राहयता पैदा करें तो ही अच्छा रहेगा। उन्हें लोग पटेल के साथ साथ अटल भी देखना चाहेंगे। उनका ‘हिंदुत्व’ लोगों को पसंद है, जैसा कि विभिन्न सर्वेक्षणों से तथा जनता के उनके प्रति उत्साह से स्पष्टï हो रहा है। परंतु याद रहे हिंदुत्व हिंसक या आक्रामक नही हो सकता। हां, वह अपने हितों के लिए संघर्षशील हो सकता है, दूसरों का अनावश्यक तुष्टिïकरण उसे पसंद नहीं, कानून के समक्ष समानता वह पसंद करता है, इसी को वह अपना राष्ट्रवाद मानता है। भारत के भीतर जिन शक्तियों ने आजादी के बाद विखण्डनवाद फैलाने का घिनौना कार्य किया है उन्हें कांग्रेस की छद्मनीतियों ने पैदा किया। अब समय आ गया है कि देश से छद्मवाद को भगाया जाए और ‘सत्य’ को स्थापित किया जाए। इस कार्य में मुरली मनोहर जोशी जैसे हिंदुत्व की साधना करने वाले लोग नरेन्द्र मोदी की अच्छी सहायता कर सकते हैं। जोशी ने मौलाना अबुल कलाम आजाद द्वारा शिक्षा नीति में जो घालमेल किया गया था, उसमें अपने मानव संसाधन मंत्री रहते काफी सुधार किया था। उनके उस कार्य को प्रगति मिलनी चाहिए। देश केा अपना गौरवपूर्ण अतीत दिखाकर ही उसके भविष्य की सुनहरी इबारत लिखी जा सकती है। सचमुच नरेन्द्र मोदी के लिए कदम फूंक फूंक कर रखने का समय आ गया है-बड़ी ही कठिन है राह पनघट की। क्योंकि उनका पनघट सत्ता पाना नही है, ना ही भाजपा को जिताना मात्र है। देश की जनता उनसे आजादी के बाद से अब तक के सारे सत्ता षडयंत्रों का, छल छदमों का, देशघाती नीतियों का और राष्ट्रघाती नेताओं के राष्ट्रघाती कृत्यों का हिसाब किताब करने और देश को इन सब अनिष्टों से बचाकर अभीष्टï की ओर बढ़ाने की अपेक्षा करती है। 66 साल के पापों का हिसाब 5 साल में तो नही होगा पर यदि उस ओर ठोस कदम नरेन्द्र मोदी उठाते हैं तो देश की जनता उन्हें कई अन्य मौके भी दे सकती है। इसलिए लंबे सफर की कठिनताओं को परख कर आगे बढ़ने की आवश्यकता है। पनघट दूर है और रास्ता कंटकाकीर्ण है, इसलिए बहुत ही सावधानी से बढ़ना होगा। एक एक कांटे को और एक एक बाधा को धीरे-धीरे दूर करने का समय आ गया है। देखते हैं मोदी देश की इस भावना पर कितने खरे उतरते हैं?

 

2 COMMENTS

  1. न भाजपा को बहुमत मिलने जा रहा हा ना ही nda को नये घटक से इसलिए मोई का पं बनने का सप्नापूरा नही hoga

    • ईकबाल साहब,
      भारतवर्ष में सदा ही भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रत्येक व्यक्ति के लिए रही है इसे आप हिन्दुत्व का आभूषण कह सकते है। आप हिंदुस्तानी हैं इसलिए मेरी बात को बेहतर समझ गए होंगे। मैं आपके विचारो का सम्मान करता हूँ। फिर भी जिस चर्चा का जवाब भविष्य के गर्भ में छिपा हो उसपर अभी से तर्क-वितर्क की क्या आवश्यकता है। हमें अनावश्यक की बहस और व्यंग्य बाणों से बचना चाहिए। मानव,सभ्यता और संस्कृति यही कहती है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here