वो कपड़े बदलते थे ये बयान

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पिछला शुक्रवार रायपुर में काफी समाचारों के हल-चल का रहा था . कथित तौर पर केन्द्रीय गृह मंत्री द्वारा हाल में दंतेवाडा में हुए नक्सल हमले में अपनी जिम्मेदारी कबूल कर इस्तीफे की पेशकश लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा खबर का खंडन किया गया. पर इस दौरान ही प्रदेश के नेताओं से किसी भी तरह से बाईट कबार कर इलेक्ट्रोनिक चैनल के पत्रकारों द्वारा खबर को गर्म कर देने की जद्दोजहद. तब तक खबर आती है कि प्रदेश के भटगांव विधानसभा क्षेत्र के विधायक रविशंकर त्रिपाठी का एक सड़क दुर्घटना में निधन हो गया. श्री त्रिपाठी वरिष्ठ नेता एवं प्रदेश भाजपा के उपाध्यक्ष भी थे. उस ग़मगीन माहौल में भी किसी तरह से भी कथित इस्तीफे मामले पर लगभग जबरन भाजपा नेताओं का बयान लेकर खबर बना डालने की एक पत्रकार की गिद्ध हरकत ने अपने पेशे के प्रति अंदर तक शर्मशार कर दिया. लेकिन वह पत्रकार शायद इस बयान की कीमत जानता था. ज़ाहिर है भाजपा इस मामले में फूक-फूक कर कदम रखती. केन्द्रीय बल के 76 जवानों की शहादत के लिए अगर जिम्मेदार चिदंबरम साबित होते हैं तो प्रदेश सरकार को भी जिम्मेदारी लेने के लिए नैतिक तौर पर मजबूर होना ही होता. लेकिन सबसे पहले तो यह समझना चाहिए कि जिम्मेदारी लेना हमेशा ही नकारात्मक नहीं हुआ करता है. “जिम्मेदार” और “दोषी” इन शब्दों में फर्क है. कम से कम जिम्मेदारी का मतलब इस्तीफ़ा तो नहीं ही होता. मोटे तौर पर अगर किसी कि विशुद्ध व्यक्तिगत भूमिका नहीं हो तो ऐसे मामलों में जिम्मेदारी सामूहिक ही हुआ करती है…! बहरहाल…!

गृह मंत्री के तौर पर चिदंबरम द्वारा अपनी नयी पारी शुरू करते ही एक आशा का संचार हुआ था. उनके ईमानदार बयानों ने नक्सल समस्या के हल हो जाने की उम्मीद जगाई थी. पहला ही बयान उनका यह था कि केंद्र ने नक्सल समस्या को कम करके आंका. तो लगा कि विपक्ष द्वारा बार-बार इस तरह का आरोप लगाए जाने के बाद भी ऐसी स्वीकृति एक साहसी और इमानदार प्रयास ही माना जाना चाहिए. तमाम मतभेदों को अलग रख ईमानदार स्वीकारोक्ति का स्वागत भी हुआ. लोग सोचने लगे कि वास्तव में जब केंद्र इस तरह से गंभीर हो कर समस्या का हल निकालना चाहेगा तब मुट्ठी भर नक्सली किस खेत की मूली हैं. लेकिन उसके बाद जो उनके बयानों में बदलाव का दौर चला. रोज-रोज के विरोधाभाषी बयान पढ़ते-देखते तो लोगों के कान पक गए. प्रेक्षक उनके बाद के हर बयान को केंद्र में वाम-पंथियों की ताकत या उनके रुख के बरक्श देखने लगे. ऐसा लगने लगा कि राजनीति जैसा-जैसा मोड़ ले रही है चिदंबरम भी उसी तरह से अपने बयानों का रुख मोड़ रहे हैं. कभी गेंद राज्यों के पाले में डालना, कभी इसे राष्ट्रीय समस्या का दर्ज़ा देना, कभी विकास नहीं होने को नक्सल समस्या का जिम्मेदार ठहराना तो कभी नक्सल समस्या के कारण विकास नहीं हो पाने की बात. कभी बोली से हल की बात तो कभी केवल गोली से. कभी उनसे किसी भी तरह की चर्चा से इनकार तो कभी अपने कार्यालय का फेक्स नंबर मीडिया के द्वारा पहुचवाने की बचकानी कोशिश. कभी हवाई हमले की बात तो कभी उसका खंडन. तो जैसे मुंबई हमले के बाद कपडे बदलने के लिए इनके पूर्व-वर्ती चर्चित रहे उसी तरह बयान बदल-बदल कर नक्सल समस्या को उलझाने के लिए ही चिदम्बरम जाने जायेंगे. यहाँ यह दुहराना समीचीन होगा कि लेखक का आशय केवल “श्रीमुख” से दिए हुए बयान से नहीं है. जैसा कि पहले कहा गया है सरकार की सामूहिक जिम्मेदारी होती है तो केंद्र के भी हर अधिकृत व्यक्ति के दिए हुए बयानों को सरकार का ही बयान माना जाएगा. यहाँ तक कि उन्ही की पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव एवं दशक भर तक बस्तर पर राज करने वाले दिग्विजय सिंह के बयानों को भी एक जिम्मेदार व्यक्ति का ही पक्ष माना जायगा. लेकिन अफ़सोस तो यह है कि आज उनसे कोई यह सवाल नहीं पूछता कि अगर बस्तर में यह समस्या है तो आपसे बड़ा जिम्मेदार कौन है इसके लिए? अन्ततः सवाल महज़ इतना है कि लोकतंत्र के समक्ष उत्पन्न सबसे बड़ी इस समस्या के प्रति हम एकजूट और एकमत क्यूँ नहीं हो पाते ! इसी दौरान युद्ध के मोर्चे पर नियुक्त केन्द्रीय बल के जवानों की भावनाओं को जानने-समझने का मौका मिला. कुछ-कुछ अपनी समझ और कुछ उनके दर्द के आधार पर राज्य से यह निवेदन करना चाहूँगा कि जन-भावनाओं को आदर देकर एक विशुद्ध ईमानदार स्टैंड लें. किसी भी तरह के पूर्वाग्रह और दवाव से पड़े, राजनीतिक मजबूरी को नज़रंदाज़ कर सभी संबद्ध सरकारें इन कुछ बिंदुओं पर मतैक्य स्थापित करें.

अव्वल यह कि सबसे पहले घोषित करें कि नक्सली देशद्रोही हैं. उनसे किसी भी तरह की बात-चीत का अब सवाल नहीं पैदा होता. उन्हें कभी भी अब राह से भटके हुए जैसा ट्रीट नहीं किया जाएगा. अब मुख्यधारा में लौटने की भीख किसी भी कीमत पर नहीं माँगी जायेगी. देश का हर संसाधन उनसे लड़ने और निपटने हेतु इस्तेमाल किया जाएगा. अपने जवानों का मनोबल बनाए रखने हेतु हर संभव कोशिश की जायेगी. अगर ज़रूरी हुआ तो कलमकारों के रूप में छुपे हुए दुश्मनों को भी दण्डित किया जाएगा. लोकतंत्र को बाकी हर तरह के मानवाधिकारों से ऊपर समझा जाएगा. देश के संविधान में आस्था रखने वाले नागरिकों एवं अपने जवानों का मानव अधिकार प्राथमिकता की सूची में रहेगा. “लोकतंत्र” को वर्तमान दुनिया के सबसे बड़ा मानव-अधिकार मान इस की रक्षा के निमित्त सेना भी बुलानी पडी तो पीछे नहीं हटेंगे. लिखते हुए हाथ काँप रहा है बावजूद इसके कहना चाहूँगा कि अगर इस लड़ाई में कुछ निर्दोष भी दिवंगत हुए तो वह पीड़ा भी झेलते हुए स्वयं की भी कुर्बानी देने का जज्बा रखना होगा. आखिर बेकसूर तो इस हमले में शहीद वे 76 जवान भी तो थे. निश्चय यह ही नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत है कि सौ दोषी भले ही बच निकलें लेकिन एक बेक़सूर को सजा नहीं मिलनी चाहिए. लेकिन बस्तर जैसे माहौल में वास्तविक मानवाधिकार की सुरक्षा एवं कम-ज-कम अगली पीढ़ी को सुरक्षित रखने हमें यह कीमत अदा करनी ही होगी. हाँ ये करते हुए यह सन्देश देना ज़रूर समीचीन होगा कि “चढ जा बेटा सूली पर, भला करेंगे राम” जैसा सन्देश देने लायक काम नहीं करें. अगर युद्ध है तो समाज के हर लोग अपनी कुर्बानी देने को तैयार रहे. चाहे इंदिरा-राजीव की तरह प्रधान मंत्री को शहीद होना पड़े या पंजाब के बेअंत सिंह की तरह मुख्यमंत्री को. डेनियल पर्ल की तरह किसी कलमकार को या महेंद्र कर्मा या बलिराम कश्यप के परिजन की तरह आदिवासियों को. दृढ इच्छा शक्ति, मज़बूत इरादा और बलिदान की हिम्मत अगर हो तो नक्सलियों से पार पा जाना इस 125 करोड के लोकतंत्र के लिए कोई बड़ी बात भी नहीं है.

आप श्रीलंका का उदाहरण देखें. वह देश भारत के एक प्रदेश जितना भी बड़ा नहीं है. बावजूद उसके नक्सलियों से कई गुना ज्यादे ताकतवर, टेंक तक से सुसज्जित एवं अपार जन-समर्थन वाले लिट्टे की सेना को नस्तनाबूत कर लोकतंत्र की बहाली का मार्ग वहाँ के लोकनायकों ने प्रशस्त किया. या अपने पंजाब का भी उदाहरण सामने है जहां पकिस्तान जैसे सरहदी दुश्मन देश के बावजूद वहाँ पर बन्दुक के बदले गेहू की फसल लह-लहाना संभव हुआ. तो देश को अपने 76 वीर जवानो को खोने का गम सदा रहेगा. लेकिन बयान के बदले इस बार श्रद्धांजलि का तरीका यही हो कि उन जांबाजों ने जिस लोकतंत्र को मज़बूत करने में अपनी शहादत दी उस लोकतंत्र को देश के चप्पे-चप्पे में आरूढ़ करने एवं नक्सलियों से बदला लेने की भी मानसिकता रख हम इस नए तरह के धर्मयुद्ध को तैयार हो.

-पंकज झा.

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