शिक्षक नहीं बनना चाहते ये विदेशप्रेमी युवा

teacher कुछ समय पहले देश के प्रतिष्ठित भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद के निदेशक ने अपनी पढ़ाई पूरी करके जाने वाले छात्रों से दो प्रश्न किये, पहला, कि आप में से कितने लोग अपने बच्चों को इस संस्थान में पढ़ाना चाहेंगे। लगभग सभी छात्रों ने अपने हाथ ऊपर कर दिये। इसके बाद उन्होंने दूसरा प्रश्न किया, कि आप में से कितने लोग इस संस्थान में पढ़ाना चाहेंगे। इस बार छात्रों ने हाथ ऊपर न करके जवाब दिया कि शिक्षक बनने में उनकी कोई रूचि नहीं है। युवाओं की बदलती हुई प्राथमिकताओं का यह सटीक लेकिन दुखद एवं निर्लज्ज उदाहरण है।

देश के प्रमुख एवं प्रतिष्ठित संस्थानों से निकलने वाले छात्रों में शिक्षक न बनने की प्रवृत्ति एवं विदेशों मे मिलने वाले बड़े-बड़े पैकेजों के प्रति इनका आकर्षण गर्व का विषय नहीं  बल्कि शर्म एवं चिन्ता का विषय होना चाहिए। करोड़ों रूपये के अनुदान के बाद यदि ये संस्थान इस तरह के स्वार्थी एवं स्व-केन्द्रित युवा तैयार कर रहे हैं, जिन्हें शिक्षक बनने एवं अपने देश में रहने की अपेक्षा विदेशों में नौकरी करना एवं बसना अच्छा लगता है, तो हमें इन संस्थानों की कार्यप्रणाली एवं प्रासंगिकता पर पुनर्विचार करना चाहिए। हमारी शिक्षा एवं इन युवाओं के पालन-पोषण में ऐसी क्या कमी हो रही है कि आई.आई.एम एवं आई.आई.टी जैसे संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने वाले अधिकतर छात्र अपना देश छोड़कर विदेशों में नौकरी करने को अपनी उपलब्धि एवं अन्तिम लक्ष्य मान बैठे हैं तथा पैसा कमाने की एक मशीन बनकर रह गये हैं। यह सच है कि इन संस्थानों से निकलने वाले छात्रों की योग्यता पर सन्देह नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि ये अपनी योग्यता एवं क्षमता का कितना प्रयोग समाज एवं देशहित में कर रहे हैं। हमें अपनी श्रेष्ठ प्रतिभाओं को गॉवों में भेजना होगा। यदि हम प्रतिभा-सम्पन्न युवाओं को गॉवों में भेजने में असफल रहते हैं, तो गॉव और शहरों का अन्तर दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जायेगा। यदि हमारे लोक सेवक एवं इन संस्थानों से निकलने वाले युवा गॉव में रहकर अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने लगंे तथा अपना इलाज सरकारी अस्पतालों में करवाने लगें तो निश्चित ही गॉव की स्थितियों में सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिलेगा।

अभी हाल ही में ऑक्सफैम की ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि 2016 तक दुनिया के 01 प्रतिशत लोगों के पास शेष 99 प्रतिशत लोगों से अधिक सम्पत्ति होगी। यह खतरनाक एवं चौकाने वाले आंकड़ें हैं। हमें आई.आई.एम एवं आई.आई.टी. जैसे संस्थानों की सफलता का आकलन विदेशों में इनके छात्रों को मिलने वाले पैकेज के आधार पर न करके समाज, देश एवं विशेषकर गॉवों में इनके योगदान के आधार पर करना चाहिये। इन संस्थानों को ‘मेक इन इण्डिया एण्ड सर्व इन इण्डिया‘ सिद्वान्त पर काम करना होगा, वरना हमें भारतीय-अमेरिकी गर्वनर बॉबी जिन्दल द्वारा दिये गये वक्तव्य को बार-बार सुनने एवं सहने के लिए तैयार रहना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा है कि उन्हें ‘भारत-अमेरिकी‘ या ‘भारतवंशी-अमेरिकी‘ न कहा जाये, वे पूरी तरह अमेरिकी हैं। केवल इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा है कि यदि हम भारतीय ही रहना चाहते तो हमें भारत में ही रहना चाहिए था।

भारतीय संस्थानों में पढ़ाई करके तथा इसे सिर्फ एक सीढ़ी के रूप में प्रयोग करने वाले युवाओं के विदेशों में जाने एवं बसने का आकर्षण समाज, देश तथा मॉं-बाप के साथ एहसान फरामोशी एवं धोखे जैसा है। पैसे कमाने की हवस में लिप्त यह संवेदनहीन युवा अपने ज्ञान एवं योग्यता का उपयोग सिर्फ व्यक्तिगत लाभ के लिये ही कर रहे हैं। हमें इस ओर ध्यान देना होगा। हमें इस तरह की व्यवस्था लागू करनी होगी, जिससे देश में उपलब्ध विशेष योग्यता एवं प्रतिभा-सम्पन्न युवा शिक्षक बनने को अपनी पहली वरीयता देने लगें। देश को ऐसे युवा चाहिए जो नैतिक और चारित्रिक दृढ़ता तथा संवेदनशीलता के साथ अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन मशीन की तरह न करके मनुष्य के रूप में करें। इसके लिए शिक्षा, शिक्षा का उद्देश्य, शिक्षा में निजीकरण, स्वायत्तता एवं शिक्षकों की चयन प्रक्रिया को पुनः परिभाषित कर शिक्षा को व्यवसाय बनने से रोकना होगा एवं शिक्षक को उसका खोया हुआ सम्मान लौटाना होगा, क्योंकि एक शिक्षक ही इस चुनौती को स्वीकार करने की क्षमता रखता है। शिक्षा से संबंधित नीतियों का निर्माण एवं मानदण्ड योग्य, अनुभवी, चारित्रिक एवं नैतिक रूप से मजबूत व्यक्तियों द्वारा निर्धारित किये जाने चाहिए। जिस तरह प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि ‘‘बेटी नहीं होगी तो बहू कहां से लाओगे‘‘? उसी तरह यदि ‘‘अच्छे एवं संस्कारवान शिक्षक नहीं होंगे तो अच्छे एवं संस्कारवान छात्र कहां से लाओगे‘‘?

प्रो.एस.के.सिंह

1 COMMENT

  1. क्या कभी किसी ने यह जानने का प्रयत्न किया कि अधिकतर प्रतिभाशाली छात्र देश छोड़कर विदेशों में नौकरी करना और बसनाक्यों ज्यादा अच्छा समझते हैं? मैं अपनी तरफ से डाक्टर मधुसूदन से अनुरोध करूंगा कि वे इस पर प्रकाश डालें,क्योंकि उनके जैसा प्रतिभाशाली व्यक्ति भी गुजरात जैसा .उन्नत राज्य छोड़कर अमेरिका में जा बसा है.ऐसे भी विदेशों में गुजरातियों की संख्या शायद सबसे अधिक है,अतः वहां के लोग इस प्रश्न का समुचित उत्तर देने शायद ज्यादा सक्षम हों.

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