चोर की मां को मारिये पहले – पंकज झा

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झारखंड प्रकरण पर .. 

आपने चोर और उसकी मां की कहानी सुनी होगी. ये उस ज़माने की बात है जब चोरी-डकैती के लिए मृत्युदंड का प्रावधान था. एक चोर को उसके अपराध के लिए मौत की सज़ा मिली. उसने मौत से पहले अपनी मां से मिलने की इच्छा व्यक्त की . जब मां आयी तो उसके कान में कुछ ज़रूरी बात कहने के बहाने उस चोर ने अपनी मां का कान ही अपने दांत से काट लिया. वो इसलिए की जब-जब चोर ने चोरी कर-कर के लाई गयी रकम को माँ के आँचल में छुपाना चाहा तब तब उसको मां से शाबासी ही मिली थी. और उसी प्रोत्साहन के कारण उस चोर का “महाचोर” बनना संभव हुआ. आज जब एक और चोर -बल्कि डकैत- मधु कोड़ा झारखण्ड जैसे गरीब राज्य का ५ हज़ार करोड़ से ज्यादे की रकम लूटने के अपराध में अस्पताल में पड़ा अपने किया की सज़ा पा रहा है, तो आपको दया ही आना चाहिए उस निरीह पर. गुस्सा तो इनके सरगनाओं पर आनी चाहिए. ऐसे चोरों को जनम देने और पाल-पोस कर बड़ा करने का अगर कोई इकलौता अपराधी है तो वो है कांग्रेस. अगर आप इस पार्टी द्वारा लोकतंत्र से किये गए खिलवाड़ की चर्चा करना शुरू कर दें तो आपको प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए सभ्य भाषा में कोई शब्द नहीं मिलेगा.

वास्तव में कांग्रेस ने आजादी के इन इन ६२ वर्षों में एक ऐसी अभागी महिला के रूप में खुद को प्रस्तुत किया है, जिसने कोड़ा जैसे-जैसेmadhu-koda ना जाने कितने चोरों को जनम दिया है. साथ ही वो एक ऐसी बेटी साबित हुई है जिसने अपने बाप-दादाओं की कमाई इज्ज़त को मटियामेट कर डाला हो. सवाल केवल चुनाव जीत कर सरकार बना लेने की नहीं है. सरकार तो मधु कोड़ा की भी चलती रही और बिहार में जंगल राज लाने वाले लालू यादव और अनपढ़ राबड़ी देवी की सरकार भी बार-बार चुनाव जीत कर आयी. इसलिए सवाल जीत या हार का बिल्कुल नहीं है. सवाल तो जीत के लिए अपनाने वाले तरीकों का है, हार को भी जबरन जीत में बदल डालने के लिए किये जाने वाले तिकरमों का है, लोकतंत्र के नाम पर ही लोकतंत्र का गला घोंट दिए जाने वाले कारस्तानियों का है. कई बार तो आप ऐसा सोचने लगेंगे कि शायद इन लफंगों के खिलाफ नक्सली ही सही इलाज़ हैं. आप सोचिये….अगर संयोग से बन गए किसी निर्दलीय विधायक को मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा तो आखिर उससे उम्मीद ही क्या की जा सकती है ? ऐसा ही तो हुआ था ना झारखण्ड में. सबको मालूम है कि जनादेश तब कांग्रेस के खिलाफ था. लोगों ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया था. लेकिन केवल एक राजनितिक दल को सत्ता से दूर रखने की हवस में कांग्रेस इतनी दूर तलक चली गयी कि उसने “राजनीति” को ही शर्मशार कर दिया. भारत क्या विश्व के लोकतंत्र में शायद वो पहला अवसर था जब ढेर सारे राजनीतिक दलों के रहते हुए एक निर्दलीय को मुखिया बना दिया गया. जब सत्ता को, रोटी के लिए किये जाने वाले बिल्लियों की लड़ाई बनाकर, अंततः रोटी बन्दर को खा लेने दिया जाय, तो जाहिर है वह बन्दर सत्ता के उस्तरे से लोकतंत्र ही क्या समूचे समाज को लहूलुहान करेगा ही. कांग्रेस भले ही इस मुगालते में रहे की मदारी बन कर ऐसे किसी बंदर को अपने इशारों पर नचाने में सफल होती रहेगी, लेकिन पंचतंत्र की कहानी इसका प्रमाण है कि कोई मुर्ख बंदर अच्छा वफादार भी साबित नहीं हो सकता है. वक़्त आने पर वह उनकी भी नाक काटने में कोताही नहीं करेगा. सीधी सी बात है लोकतंत्र में जीत और हार दोनों के लिए तैयार रहना चाहिए. जनता सर्वोपरि है. वो जिसको चाहे सत्ता सौपे जिसे चाहे विपक्ष में रहने दें. लेकिन झारखण्ड जैसे अनेक प्रकरण के बाद कांग्रेस किस मुँह से कभी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की दुहाई देगी? झारखंड में तो कांग्रेस केवल एक निर्दलीय को ही सरकार बनाने देकर लोकतंत्र की हत्या करने तक नहीं रुकी. एक विशेष दल को अछूत बनाए रखने की जिद्द में उसके बाद भी वह समझौते पर समझौते करती गयी. अपने मनसूबे पूरे ना होने पर उसने फिर एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बना दिया जो अपने ही सचिव के हत्या में जेल यात्रा करके हाल ही में निकला था. शर्मांक ये कि वह शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बन जाने के बावजूद अपना ही उपचुनाव अपने सबसे सुरक्षित माने जाने वाले सीट से भी जीत ना पाया. एक अपवाद को छोड़ दें तो किसी मुख्यमंत्री के उपचुनाव हार जाने का भी यह अनोखा ही मामला था. तो बड़ी मिहनत से अपना राज्य हासिल करने वाले नवजात झारखंड के साथ जिस तरह के पाप की श्रृंखला स्थापित होती गयी ,सोच कर मन वितृष्णा से भर जाता है. पिछले ५-७ सालों में जिस तरह से झारखंड को घटिया रिकॉर्ड बनाने का कारखाना कांग्रेस ने बनने पर मजबूर किया,घृणा ही हो सकता है आपको जानकर. तो जब कोड़ा जैसे लोग ऐसे राज्य के मुख्यमंत्री बना दिए जायेंगे जहां उसके कलम से खरबों का फैसला होने वाला हो तो जो कोड़ा ने किया उससे ज्यादे की उम्मीद भी क्या की जा सकती है?

हालाकि जब आज यह कलमकार किसी पार्टी विशेष के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करने पर मजबूर हुआ है तो ये मत समझिये कि किसी एक घटना को पकड़ कर तिल का ताड़ बना देने का यह प्रयास है. ऐसे-ऐसे कारनामें कर लोकतंत्र का ठेंगा दिखाने का कांग्रेस ने अपना इतिहास बना लिया है. आप परोसी राज्य बिहार के बारे में सोचे. वहाँ पर जिस लालू यादव का जन्म ही कांग्रेस की लाश पर हुआ था. चारा घोटाले एवं पूरे देश में उस प्रबुद्ध राज्य को मज़ाक बना देने से आजिज़, जब-जब वहाँ की जनता में लालू के गुर्गों का सफाया करना चाहा केवल भाजपा को दूर रखने के लिए हर बार कांग्रेस उसके लिए संजीवनी बन कर आयी. वहाँ भी अंततः बात इस विद्रूप रिकॉर्ड पर जा कर रुकी कि जिस राज्य के नाम ढेर सारे विसंगतियों के बावजूद सबसे ज्यादे डॉक्टर,इंजिनियर. आइएएस. आईपीएस निर्माण करने का रिकॉर्ड हो, जो राज्य आज़ादी से लेकर हर बड़े आन्दोलन की अगुवाई करता रहा हो ऐसे राज्य की बागडोर मुख्यमंत्री की जेल यात्रा के दौरान उसकी अनपढ़ बीवी के हाथ सौप दी जाए. और ऐसा ऐतिहासिक राज्य केवल सस्ते फूहर मजाक का ही विषय वस्तु बन कर रह जाए. बिहार में भी बात इतने पर ही नहीं रुकी. ढेर सारे तरीकों के बाद भी जब वहाँ की जनता ने भी अंततः लालू को परास्त करने में सफलता पायी तो फिर राज्यपाल के द्वारा विधायकों की खरीद-फरोख्त को आधार बना कर विधान सभा ही भंग करवा दिया गया. कैसा वीभत्स मज़ाक का क्षण रहा होगा वह जब खरीद-फरोक्त का आरोप राज्यपाल के रूप में वह बूटा सिंह लगा रहे थे जो खुद ही झामुमो सांसद रिश्वत काण्ड में बड़ी मुश्किल से तकनीकी आधार पर केवल तकनीकी आधार बरी हुए थे. उनपर भी लगे आरोप सीसे की तरह साफ़ था. इतना करने के बावजूद भी अंततः वहाँ दूसरों को ख़तम करने के फिराक में वह कांग्रेस बिहार से खुद ही साफ़ हो गयी और दुबारा पूर्ण बहुमत से जनता ने राजग को सत्ता सौपी. इस तरह बात चाहे उत्तर प्रदेश में क्षेत्रिय एवं जातीय दलों को प्रश्रय दे कर अपनी ऐसी-तैसी करा लेने की हो या गोवा में सरकार का विश्वास मत प्राप्त करने के आधे घंटे बाद ही बर्खास्त कर देने की, आन्ध्र प्रदेश में नक्सलियों से चुनावी सांठ-गाँठ करने की हो या छत्तीसगढ़ में भी पहले चुनाव के बाद स्पष्ट बहुमत मिल जाने के बाद विधायकों को खरीदने के प्रयास के स्पष्ट सबूत मिल जाने की. हर जगह इस पार्टी ने लोकतंत्र को धत्ता बताने का काम इतनी बेशर्मी से किया जिसका सबसे विद्रूप रूप आज कोड़ा के रूप में झारखंड में देखने को मिल रहा है.जिस दल को हरियाणा में छः महिना पहले ही चुनाव कराने में कोई संकोच नहीं हुआ वहाँ झारखंड में लम्बे समय तक रणनीति के तहत एक लोकप्रिय सरकार से वंचित रखने का कुत्सित प्रयास किया गया.

कितने अफ़सोस बल्कि आक्रोश की बात है कि जिस झारखंड की लगभग सारी आबादी जीने की जद्दोजहद से भी मुक्त नहीं हो पाया हो. जहां के आदिवासी अपने बहुमूल्य खनिज एवं वन्य संपदा के होते हुए भूख-नंगे रहने को मजबूर हो. बड़ी मुश्किल से बिरसा मुंडा जैसे महानायकों के बलिदान के बाद आजादी और ढेर सारे संघर्षों के बाद अपना राज्य पा कर भी जिसके मुक्ति का सपना, सपना ही रह गया हो. जहां के लोग नक्सली दानवों से लड़ने में अपना सर्वस्व समर्पण करने को मजबूर हो, वहाँ केवल छुआछूत के आधार पर एक दल विशेष को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस भूखे भेड़ियों के हाथ वहाँ की जनता को सौप दे?

ऊपर वर्णित ढेर सारे उदाहरणों के अलावा भी इनकी गाथा कभी ख़तम होने वाली नहीं है. लेकिन लोकतंत्र को इतने सारे “कोड़ा” लगा देने के बाद भी कम से कम अब कांग्रेस यह सीख ले तो देश का भला हो कि लोकतंत्र में छुआछूत के लिए कोई जगह नहीं होती. जनतंत्र का मतलब ही यही है कि सत्ता किसी की बपौती नहीं होती. अगर जनता किसी दल या गठबंधन को सत्ता नहीं देना चाहे तो इज्ज़त के साथ उसे विपक्ष की अपनी भूमिका के लिए तैयार हो जाना चाहिए. इससे पहले कि मतदाता, राज्यों से गरदन पकड़ कर बाहर निकाल दे, बिहार की तरह, अपने ही गाली देने वाला लालू जैसे दलों के तलवे चाटने को मजबूर ना कर दे, पार्टी को लोकतंत्र का सम्मान करने का सबक सीख लेना चाहिए. चारा घोटाले से भी दसों गुणा बड़े घोटाला करने वाले को पैदा कर झारखंड के करोडों जनता की आशाओं पर कोड़ा बरसा देने वाले इस पार्टी को अपने पाप की सज़ा क्या मिलती है या मिलती भी है या नहीं एक आक्रोशित दर्शक की तरह यह देखना महत्वपूर्ण होगा.

13 COMMENTS

  1. दिनेशजी कौनसे जनसंगठनों की बात कर रहे है? गुजरात चुनाव मे कॊनग्रेस का प्रचार करने वाले हाशमी भाभी के ‘सहमत्’,’अनहद’की, या नक्सलवाद से लेकर माऒवाद की वकालात करनेवाले एन जी ऒ की, या चर्च द्वारा पॊषित और सेवा के नाम पर धर्मान्तरण का धन्धा करने वाले मिशनरीज ओफ चेरिटी की, या हमेशा हिन्दुऒ के पीछे पडे रहनेवाले तीस्ता सेतलवाड के एनजीऒ या भारी अनुदान की लालच मे देश की सूचनाऒ/आन्कडॊ कॊ अमेरिका भेजने वाले असन्ख्य‌ एनजीऒ की? दिनेशजी, गुस्ताखी माफ लेकिन अगर आप इनसे कॊई आस लगाये बैठे हॊ तॊ यह निराशा ही हाथ लगेगी.

  2. आपने बिल्कुल सही और सटीक बात लिखी है. मधु कॊडा जैसे भ्रष्टाचारियॊ की नानी कॊग्रेस है देशहित मे उसका इलाज आवश्यक है. लेकिन उसकी परनानी का इलाज भी जरूरी है.ऐसा विश्लेषण मुख्यधारा के दम्भी और सेकुलर मीडिया के बस की बात नही. कॊग्रेस के घॊटालॊ पर एक किताब ही नही बल्कि ग्रन्थालय लिखा जा सकता है. लेकिन फिर भी दिनेश और याग्नवल्क्य जैसे बुद्धीजीवी उस पर आपत्ति करते है? लगता है सेकुलर हॊ जाने से देश और जनता कॊ लूटने का लायसेन्स मिल जाता है!! दूसरी अहम‌ बात, जब भी देश मे कॊग्रेस और कम्युनिस्टॊ के भ्रष्टाचार की बात हॊती है, सेकुलर बिरादरी उसे दबाने या बीच मे साम्प्रदायिकता या इतर विषय का अडम्गा लगाकर पूरी चर्चा कॊ दूसरा ही रूप देना चाहते है. और इसी सेकुलर बिरादरी जैसी परनानी की कॊख से पैदा हॊते है: कॊडा, लालू, सुखराम, बॊफॊर्स, तेलगी, मुलायम, मायावती, करुनानिधी, चुरहट, गेहू घॊटाले, शेयर घॊटाले, चारा घॊटाले, ताज कॊरिडॊर, मनु शर्मा, तन्दूर कान्ड, (माफ करना पूरा ग्रन्थालय लिखने की जगह नही है).

  3. वास्तव में कांग्रेस ने आजादी के इन ६२ वर्षों में एक ऐसी अभागी मां के रूप में खुद को प्रस्तुत किया है, जिसने कोड़ा जैसे ना जाने कितने चोरों को जनम दिया है. साथ ही वो एक ऐसी बेटी साबित हुई है जिसने अपने बाप-दादाओं की कमाई इज्ज़त को मटियामेट कर डाला हो.
    बिल्कुल् सही लिखा है…. अद्भुत् धारदार लेखनी से ऒतप्रॊत‌, कांग्रेसियॊ का (कु)शासन.. देश पर् आजादी के बाद सबसे ज्यादा शासन चॊर की मां का ही रहा है.

  4. A very wonderful article but i am totally agree with the comment of Mr. Dineshrai Diwedi that for this extreme situation every politicl party is responsible and i am added all the thinker class of society for this blame. Now the time is form a new political party with a sole agenda of nation-building.

  5. यह पैनापन भाजपा को सुरक्षित सुरक्षित और अच्‍छा अच्‍छा बताने के संकेत देता है। बेहद शानदार लिखा गया है, लेकिन लेखक को यह मालूम होना चाहिए, कि, जिस भाजपा को वे बचाते चल रहे है उसके मामले में सिर्फ इतनी बात है कि, जब तक पकडाए नहीं तब तक साव, और पकडाए तो उनसे बडा चोर कोई नहीं।

  6. अच्छी बखिया उधेड़ी है आपने. इस देश में येदयुरप्पा जैसे ईमानदार नेताओं को खून के आंसू पीने पड़ते हैं. लेकिन एक निर्धन प्रदेश की खून पसीने की दौलत लूटनेवाले मधु कोडा, लालू, सॊरेन, सुखराम,अमरसिन्ह्, मायावती जैसे नेता सत्ता और सम्मान का सुख भोगते हैं. जय हो जनतंत्र.

  7. पंकज जी ने हमेशा की तरह धारदार लिखा है… इस “चोर की माँ” को जब तक जनता सजा न दे तब तक कुछ नहीं होगा… द्विवेदी जी ने सभी राजनैतिक दलों को इसमें लपेटने की कोशिश की है, लेकिन गन्दगी की शुरुआत, भ्रष्टाचार की जननी कांग्रेस का दोष “सर्वाधिक” है इससे वे अभी भी इनकार कर रहे हैं… मैं हमेशा से कहता आया हूं साम्प्रदायिकता से लेकर भ्रष्टाचार तक देश के सभी मुद्दे कांग्रेस की देन हैं…

  8. This article wa a piece of real gem… History of Congress missdeeds didnt started only in the 90’s… It has its root right from reign of Indira Gandhi… Compared to the achievements it has in it sleeve, Congress has a long list of wrong descission and has never hesistated in joining hands with any one only for the sake to remain in power… or to keep any particular group to abstain from power… Such a scenario is very pathetic for the largest democracy…

  9. मेरी पहली टिप्पणी में वर्णित कारण से प्रभाष जोशी जैसे मूर्धन्य पत्रकार जनसंगठनों के कामों की रिपोर्टिंग को तरजीह देते थे। इसी कारण से वे विशिष्ठ भी थे। आज भी पत्रकारों को उन जनसंगठनों पर ध्यान देना होगा क्यों कि वे देश के भविष्य के निर्माण की एक कड़ी हैं।

  10. बहुत सही बातें हैं। आलेख की धार कांग्रेस के विरुद्ध है। लेकिन केवल कांग्रेस ही नहीं लगभग सभी राजनैतिक दलों की जो पूंजीवाद के आगे किसी विकल्प को स्वीकार नहीं करते यही हालत है, जिन में हिन्दुत्व का कार्ड खेल कर मैदान में अपनी हैसियत जमाने वाली बीजेपी और क्षेत्रीयतावाद के दम पर कुछ हैसियत बना लेने वाले दल सम्मिलित है। कथित समाजवादी दल भी उन्हीं की तरह शरणम् गच्छामि हो गए हैं। सीपीआई पहले ही अपना परिवर्तनकारी चरित्र खो चुकी थी। सीपीएम जो कभी क्रांतिकारी उद्घोष के साथ पैदा हुई थी वह भी सत्ता में रह कर उसी दिशा को पकड़ चुकी है। बाकी नामचीन्ह वामपंथी दल भी उन्हीं की राह पर हैं। वनवासियों के साथ जो वामपंथी खड़े हैं वे सभी उग्रबचकानेपन के शिकार हैं। पूरा राजनैतिक परिदृश्य निराशा से भरा दिखाई देता है। ऐसे में जो भी आशा की किरण दिखाई देती है वह केवल जनता के संगठनों से दिखाई देती है जो खुद अपने फैसले जनतांत्रिक तरीके से लेते हैं। वे सीख रहे हैं आपस में सहयोग करते हैं और स्वयं में सुधार करते हैं। इन जनसंगठनों के आपसी तालमेल से ही कोई भविष्य की राजनीति बन सकती है।

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