-अरविंद जयतिलक-
यह स्तब्धकारी है कि पहले नौ सेना की कई पनडुब्बियां रहस्यमय तरीके से हादसे का शिकार बनी और पिछले दिनों भारतीय वायुसेना का अमेरिकी ट्रांसपोर्ट विमान सी-130 जे सुपर हरक्युलिस भी दुर्घटना का शिकार बना। हालांकि यह कहना मुश्किल है कि यह दुर्घटना तकनीकी खामी से हुआ या किसी गहरी साजिश का नतीजा है। लेकिन पिछले आठ महीने से जिस तरह सेना के अत्याधुनिक उपकरण हादसे का शिकार हो रहे हैं, उससे चिंतित होना स्वाभाविक है।
सरकार और सेना जो भी तर्क दे लेकिन सुरक्षा के प्रति असंवेदनशीलता, रक्षातंत्र में खामियां एवं सैन्य उपकरणों की खरीद में भ्रष्टाचार ही इन हादसों के लिए जिम्मेदार हैं। समझना कठिन है कि सुरक्षा तंत्र में ऐसी कौन-सी सेंध लगी है जिससे सैन्य उपकरण ध्वस्त हो रहे हैं। पिछले दिनों जब भारतीय नौ सेना की पनडुब्बियां सिंधुरक्षक और सिंधुरत्न हादसे का शिकार हुईं तो रक्षामंत्री द्वारा सेना के हवाले से भरोसा दिया कि ऐसे हादसे दोबारा नहीं होंगे। लेकिन अत्याधुनिक विमान सुपर हरक्युलिस के हादसे से दावे की पोल खुल गयी है। देश सकते में है और जानना चाहता है कि प्रशिक्षण अभियान पर निकला विमान अचानक डेढ़ घंटे बाद ही दुर्घटना का शिकार कैसे हो गया? चालक दल को समस्या बताने का मौका तक क्यों नहीं मिला? गौर करें तो यह हादसा कोई साधारण विमान हादसा नहीं है। सुपर हरक्युलिस दुनिया का सबसे सुरक्षित और आधुनिक तकनीकी से लैस विमान है। आपातकालीन अभियानों में विशेष रूप से मददगार है। छोटी जगहों से उड़ान भरने के अलावा यह 20 टन वजन की सामाग्री आसानी से ढो सकता हैं। उत्तराखंड आपदा के समय यह विमान कारगर सिद्ध हुआ। अभी कुछ दिन पहले ही मलेशियाई विमान के खोज अभियान में जब भारत से मदद की गुहार लगायी गयी तो इसी विमान को मिशन पर भेजा गया। पिछले दिनों इस विमान को चीन सीमा के पास सबसे ऊंचे दौलत बेग ओल्डी वायुबेस पर उतारकर भारत ने अपनी ताकत का इजहार किया। इसकी खुबियों से प्रभावित होकर ही भारत ने तीन साल पहले अमरिका से 6 हजार करोड़ रुपए में 6 सुपर हरक्युलिस विमान खरीदे और 6 विमान और खरीदने का समझौता किया। लेकिन प्रषिक्षण के दौरान हुए दुर्घटना ने अनगिनत सवाल खड़ा कर दिया है।
सवाल उठने लगा है कि क्या विमान में कोई गड़बड़ी थी जिसे नजरअंदाज किया गया? या परिचालन की जिम्मेदारी अनुभवी पायलटों के हाथ में नहीं थी? यहां गौर करने वाली बात यह भी कि दुर्घटना के वक्त ऐसे दो विमानों का दल प्रशिक्षण अभियान पर निकला था जिसमें से एक विमान सुरक्षित एयरबेस पर लौट आया। कहीं ऐसा तो नहीं कि दूसरा विमान पहाड़ी से टकरा गया? इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे कई उदाहरण हैं जब पायलटों की लापरवाही से विमान हादसे की भेंट चढ़ गए। आषंका यह भी है कि अमेरिकी निर्मित विमानों में चीन निर्मित नकली कलपुर्जे भी हादसे का कारण हो सकते हैं। इस संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता। दो साल पहले सुरक्षा से जुड़ी अमेरिकी सीनेट की एक कमेटी ने जांच में पाया कि इन सुपर हरक्युलिस विमानों में चीन की एक कंपनी में बने नकली कलपुर्जों का इस्तेमाल हुआ है। बाद में अमेरिका ने इस चीनी कंपनी पर प्रतिबंधित लगा दिया। अगर खराब कलपुर्जों की वजह से सुपर हरक्युलिस विमान हादसे की भेंट चढ़ा तो यह देश की सुरक्षा के लिए बेहद ही खतरनाक है। उचित होगा कि भारत इन विमानों को बनाने वाली अमेरिकी कंपनी को निर्देश दे कि वह तत्काल इन सुपर हरक्युलिस विमानों का परीक्षण कर आष्वस्त करे कि इन विमानों में चीन निर्मित नकली कलपुर्जे नहीं लगे हैं। अच्छी बात है कि अमेरिकी विमान निर्माता कंपनी लॉकहीड मार्टिन ने दुर्घटना में हुई जांच में पूरा सहयोग का भरोसा दिया है। लेकिन इससे संतुश्ट नहीं हुआ जा सकता। विमानों में तकनीकी खामियां लगातार उजागर हो रही हैं। अभी पिछले दिनों ही खुलासा हुआ कि कुछ सुखोई 30 एमकेआइ विमानों के कॉकपिट डिसप्ले में गड़बड़ी आने से विमानों का इस्तेमाल प्रभावित हो रहा है। हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड ने इन विमानों के निर्माता एवं आपूर्तिकर्ता देश रुस को पत्र लिखकर मांग भी की है कि वरीयता के आधार पर वह इस समस्या का निस्तारण करे। लेकिन आश्चर्य है कि एक साल बाद भी रुस इस मसले पर कान देने को तैयार नहीं है। याद होगा सिंधुरक्षक दुर्घटना के समय भी रुसी पोत कंपनी ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया था। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या ऐसे देशों से हमें सैन्य उपकरण खरीदना चाहिए? यह भी विचार करने की जरुरत है कि हमें अपनी सुरक्षा जरूरतों को पूरा करने के लिए विदेशों के बजाए आत्मनिर्भर क्यों नहीं बनना चाहिए? समझना होगा कि हमें सैन्य उपकरणों की मरम्मत हेतु छोटे-छोटे कलपुर्जों के लिए विदेशी कंपनियों का मुंह ताकना पड़ता है। जबकि पड़ोसी देश चीन अपना अधिकांश सैनिक साजो-समान स्वयं बनाता है। जबकि हमारी सेना आवष्यक संसाधनों की कमी से जुझ रही है। अभी पिछले वर्श ही देश के पूर्व जनरल वीके सिंह ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख आगाह किया था कि दुश्मन को शिकस्त देने के लिए टैंक के बेड़े के पास गोला-बारुद की कमी है। तोपखाने में फ्यूज नहीं है। हवाई सुरक्षा के 97 फीसद उपकरण बेकार हैं। पैदल सेना के पास पर्याप्त हथियारों का अभाव है। रात में लड़ने के उपकरण नहीं है। विशेष फोर्सेज के पास जरूरी हथियार नहीं हैं। युद्ध में काम आने वाले पैराशुट्स खत्म हो गए हैं। एंटी टैंक गाइडेड मिसाईल्स की मौजूदा उत्पादन क्षमता और उपलब्धता बेहद कम है। लंबी दूरी की मार करने वाले तोपखाने में वेक्टर्स का अभाव है। यूएवी और निगरानी के लिए जरूरी रडार नहीं हैं। क्या यह रेखांकित नहीं करता है कि सरकार और रक्षामंत्रालय सुरक्षा को लेकर लापरवाह हैं? समझना कठिन है कि ऐसे समय में जब पड़ोसी देश चीन और पाकिस्तान लगातार अपनी रक्षा बजट बढ़ा रहे हैं, भारत सैन्य आधुनिकीकरण पर होने वाले खर्च से हाथ क्यों खींच रहा है? गौरतलब है कि चीन ने अपनी रक्षा बजट में 12.2 फीसद की बढ़ोत्तरी की है। यानी उसका रक्षा बजट बढ़कर अब 132 अरब डॉलर हो गया है, जो भारत के 36 अरब डॉलर की तुलना में बहुत अधिक है। यह दुर्भाग्यूपर्ण है कि केंद्र की यूपीए सरकार बजट की कमी को रोना रो, सैन्य आधुनिकीकरण की कई परियोजनाओं को ठंडे बस्ते में डाल दी है। 197 हेलीकॉप्टर से लेकर सैन्य ट्रकों की खरीद समेत कई योजनाओं में गड़बड़ियां उजागर होने के बाद नए सौदे नहीं कर रही है। मई 2012 में रक्षामंत्री एके एंटनी की नेतृत्व वाली रक्षा खरीद परिषद ने सेना के तोपखाने के लिए सात हजार करोड़ रुपए की लागत से अमेरिका से एम-777 किस्म की 145 तोपें को खरीदने का निर्णय लिया था। लेकिन आष्चर्य कि दो साल गुजर जाने के बाद भी खरीद प्रक्रिया शुरू नहीं हुई। इसी तरह वायुसेना ने अपनी प्रस्तावित योजना में अगले दस साल में 400 से अधिक लड़ाकू विमान खरीदने की मंशा जाहिर की है। लेकिन इस दिशा में यूपीए सरकार कोई कदम नहीं उठायी है। संभवतः वह इसकी जिम्मेदारी आने वाली सरकार के कंधे पर डाल दी है। यह सुरक्षा के साथ खिलवाड़ नहीं तो और क्या है?