यह खेल आखिर कबतक जारी रहेगा ?

up boardडा. अरविन्द कुमार सिंह

आज के दौर में भ्रष्टाचार हर विभाग और हर स्तर पर दिखलाई दे रहा हैं । आबकारी , पुलिस और परिवहन विभाग में भ्रष्टाचार हो तो बात समझ में आती है , लेकिन शिक्षा जैसे समाज के भविष्य से जुडे विभाग का भ्रष्टाचार निसन्देह एक भयानक खामी की ओर संकेत करता है । किसी भी लोकतांत्रिक मूल्यो में विश्वास रखने वाले नैतिकता के पक्षधर नागरिक के लिये यह भ्रष्टाचार असहनीय हैं ।

उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद यानी आम बोलचाल की भाषा में यू.पी. बोर्ड प्रतिवर्ष 35-36 लाख परीक्षार्थियेा को हाई्रस्कूल एवं इण्टरमीडिएट परीक्षाओ के माध्यम से ‘ लायक ’ बनाने की कोशिश करता है । इस परिषद के स्थापना काल ( 1921 ) से ही इस पर कई गम्भीर आरोप लगे हैं । कभी मुख्यमंत्री के नाम से बना फर्जी प्रमाणपत्र तो कभी शिक्षा मंत्री के नाम से जारी फर्जी मार्कशीट इस परिषद की कार्यप्रणाली की वैधता पर एक प्रशनवाचक चिन्ह है । यद्यपि बोर्ड्र ने 1978 से अत्याधुनिक कार्यप्रणाली का सफर काफी तेजी से तय किया है । अभी भी उसकी रपतार उसकी खामियों ( भ्रष्टाचार ) के परिप्रेक्ष्य में काफी कम है ।

जहॉ एक तरफ सन 1923 में बोर्ड के पहले परीक्षा में 5745 परीक्षार्थी थे , वही यह संख्या 2005 आते आते सैंतीस लाख पचास हजार को पार कर गयी । 1923 से 2005 तक आते आते परीक्षार्थीयों की इस संख्या ने खुद बढने के साथ ही बोर्ड के उपर पडने वाली जिम्मेदारियों को भी इसी अनुपात में बढा दिया । जाहिर है पुरानी कार्यप्रणाली के आधार पर इस बढे हुये कार्यव्यापार को समेटना सभंव न था । लिहाजा सन 1978 में पूरे बोर्ड को चार भागों ( मेरठ , बरेली , वाराणसी और इलाहाबाद ) में विभाजित कर दिया गया ।

वैसे देखा जाय तो इस विभाजन से इसके कार्यभार की क्षमता में अवश्य राहत महसूस की गयी मगर साथ ही साथ इस विशाल परीक्षार्थीयों के समूह ने भ्रष्टाचार के अनगिनत दरवाजे भी खोल दिये । आखिर इनकी जडे है कहॉ ? क्या बोर्ड की चाहरदीवारी के बाहर ? या कि बोर्ड्र की अपनी छतो के नीचे ? या फिर शिक्षा कार्यालयो के मेजो पर ? और इससे भी बडा यह प्रश्न जनमानस को उद्वेलित करता है कि इस भ्रष्टाचार से कैसे निपटा जाय ? वो भी ऐसे में जब जिनके कंधों पर देश का मुस्तकबील है वही भ्रष्टाचार में संल्गन हों । आइये कुछ दृश्यों को देखतें है इनकी बानगी भ्रष्टाचार की कहानी कह रही है ।

वाराणसी स्थित पुलिस लाईन से होते हुये पाण्येयपुर को जानेवाली सडक पर पुलिस लाईन के बगल में बोर्ड्र्र आफिस है । यहॉ बोर्ड के वर्तमान भवन की स्थिति को देखकर सुखद अनुभूति होती है कि पुलिस लाईन की गोद में शायद यह सुरक्षित हो ।

टेजरी चालान से लेकर मार्कशीट तक बनवाने का कार्य यहॉ गुमटियों में बैठे चाय वालों और पान वालो के सहारे धडल्लें से होता है । लोग आते है और पहला सर्म्पक इन्हीं से करते हैं । उनके विश्वास की वजह शायद बोर्ड्र आफिस के उपर उनका अविश्वास है । दरअसल विश्वास और अविश्वास का संगम उस वक्त संदेह का आवरण ग्रहण कर लेता है जब गुमटी और पानवाला अपने इस विश्वास का सूत्र ( कार्य करा देने का विश्वास ) बोर्ड आफिस में ही तलाशता है । आप कह सकते है कि भ्रष्टाचार की जड को खोजना बडा दुष्कर कार्य है । क्यो कि इसके दोनो सिरे पहले ही नजर आते है ।

इस संदर्भ में जब एक पान वाले से बातचीत की तो उसने तपाक से जबाव दिया ‘ के माई के लाल हौ जो तोहके एक हप्ता में मार्कशीट दे देई । हम त साफ कहीला जा बोर्ड आफिस में मिले त ले ला । लोग आराम बदे हमरे लगे आवेलन , त हमार का दोष हौ ’ । जब मैने यह कहा कि इस प्रकार की दलाली गलत काम है तो उसका उत्तर था ‘‘ देश क बडका बडका दलाली खाय त ठीक अउर हम चार पईसा से पेट भरी त उ गलत होै ’’ । बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी यह सोचकर हम आगे बढ गये ।

आइये प्रायोगिक परीक्षाओं के सच पर भी एक नजर डाली जाये। परीक्षक यूपी बोर्ड से तय किये जाते है पर जरूरी नही कि वो परीक्षा भी ले। उत्तर प्रदेश के गोडा जिले में एक ऐसा ही दिलचस्प प्रकरण देखने में आया। परीक्षक महोदय जब सेन्टर पर पहुॅचे तो उन्हे सूचित किया गया कि यहॉ तो परीक्षा सम्पन्न हो गयी है। उनकी वापसी और वह परीक्षा कैसे सम्पन्न हो गयी, इसका कोई जबाव यूपी बोर्ड के पास नही हैं। आप यदि किसी पुत्र या पुत्री के पिता है तो निश्चित ही प्रायोगिक परीक्षा के अर्न्तगत बच्चे के अकं प्राप्ती के लिये गुरू जी को धन देना याद होगा। अगर धन नही दिया तो निश्चीत ही वह विद्यालय और वह अध्यापक सम्मान के अधिकारी है और यह बात आज के दौर में किसी चमत्कार से कम नही। इस धन के सन्दर्भ में कहा जाता है, हमे परीक्षक महोदय को यह धनराशी देनी पडती है। कितना ? यह राज कोई नही खोलता। इसका दिलचस्प एंगल यह है कि छात्र इस लिये नही बोलेगा क्यो कि उसे अच्छे अंक मिलने का लालच है। पिता को बेटे/बेटी के भविष्य सुधर जाने की आशा है। और अध्यापक इस मुगालते मे यह पुनित कार्य कर रहा है कि वो समाज की मदद कर रहा है।

उपर मैने एक वित्तविहीन विद्यालय की कहानी आप को सुनायी। कहानी का अर्थ ही होता है, जिसे कहने में कोई हानी न हो। यह विद्यालय भी अपने गलत कार्यो के सन्दर्भ में ऐसा ही सोचते है। अब आप एक सुप्रसिद्ध विद्यालय के डाटा शीट पर नजर डाले। इस विद्यालय में कृषि विषय के अर्न्तगत 239 छात्र है। प्रत्येक छात्र को पॉच विषयो में प्रायोगिक परीक्षा देनी है। प्रत्येक छात्र से 100 रूपये प्रत्येक विषय के लिये, लिये गये । कुल रकम होती है एक लाख उन्नीस हजार पॉच सौ। भौतिक विज्ञान में 440 छात्र इन्ही छात्रो को रसायन विज्ञान की भी प्रायोगिक परीक्षा भी देनी है। प्रत्येक विषय में 100 रूपये। कुल रकम पहुॅचती है – अट्ठासी हजार। शारिरीक शिक्षा की प्रायोगिक परीक्षा हाई स्कूल एवं इंटर के लिये अनिवार्य है। कुल छात्र संख्या 1179 प्रत्येक से 100 रूपये। रकम का आकंडा पहुॅचता है एक लाख, सत्रह हजार, नौ सौ पर।

सारी रकम मिला देता हूॅ तो ये जादुई आकंडा पहुॅच जाता है दो लाख, सैतीस हजार, चार सौ पर। यह एक विद्यालय की यूपी बोर्ड के 2014 की अवैध कमाई है। यदि यह बात प्रधानाचार्य को पता नही ंतो गम्भीर बात है। यदि पता है तो अति गम्भीर बात है। यदि शिक्षा विभाग की जानकारी में यह सब हो रहा है तो यह अति संवेदनशील बात है।

इस आर्थिक हवस से वो भी नही बचे जिनके कन्धे पर देश का मुस्तकबील था। जिस प्रदेश का शिक्षा मंत्री और शिक्षा सचिव भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफतार होता हो उस प्रदेश के नौनिहालो का भविष्य क्या होगा आप सहज अन्दाजा लगा ले। आज हमारी आर्थिक हवस ने हमें उस मुकाम पर ला पटका है जहॅा हमने अपने ही नौनिहालो को दॅाव पर लगा दिया है । एक खोखली और नपुंसक औलादो को तैयार कर हम क्या हासिल करना चाहते है ? यह खेल आखिर कबतक जारी रहेगा ? क्या फिर से हम गुलाम बनने की तैयारी की तरफ अग्रसर हैं ? ये नपुसंक औलादे यदि किसी तरह देश की सुरक्षा में संल्गन हो जाये और उनके मन में भी ये आर्थिक हवस जाग जाये तो ? याद रखें देश की सुरक्षा और विकास का बुनियादी सूत्र चरित्र निर्माण है और आज इसी पर सर्वाधिक चोट की जा रही है । समय रहते यदि हम नही चेते तो हम यह भी कहने के काबिल नहीं रहेगें कि ‘‘ खण्डहर बतलाते है कि इमारत कभी बुलन्द थी ’’ ।

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