तीन तलाक के बहाने महिलाओ के मौलिक अधिकारो का हनन

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muslimwomenडा रवि प्रभात

21वीं सदी का भारत निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसर होता हुआ विश्व में अपनी अमिट छाप छोड़ने को आतुर है। विश्व में लोकतांत्रिक जिम्मेदारी की दृष्टि से अग्रणी देशों में भारत का अन्यतम स्थान है ।भारत के संविधान ने सभी नागरिको को संजीदगी से मौलिक अधिकार सरीखे प्रावधान किए गए हैं , जिनकी बदौलत भारत की छवि एक सकारात्मक एवं उदार दृष्टिकोण वाले देश की बनी हुई है। भारत ने निरंतर रूढ़ियों की जकड़न से निकलने का प्रयास किया है। संविधान की कल्पना को साकार करने के लिए , उसे मूर्त रूप देने के लिए बहुसंख्यक समाज को परंपरा की दुहाई के नाम पर अमानुषी मनमानी भी नहीं करने दी ।
लेकिन यह अफसोसजनक है कि मुस्लिम महिलाएं आज भी अंधकार युगीन अवधारणाओं के साए में सिसक सिसक कर जीने को मजबूर हैं। मुस्लिम महिलाओं की वेदना, अश्रुसिक्त आंखे, उद्वेलित मन, चीखती आत्मा भी प्रगतिशील भारत को अपनी तरफ आकृष्ट नहीं कर पा रही ।उनकी वेदनापूर्ण दलीलों का मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की चौखट पर दम घोट दिया जाता है और हमारा सदाशयी संविधान देखता रह जाता है।
शाहबानो केस में न्यायालय के युगांतरकारी निर्णय को तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने सेक्युलरिज्म ( या इसे विकृत सेक्युलरिज्म कहे तो ज्यादा बेहतर होगा) के नाम पर रद्दी की टोकरी में फेंक दिया और संसद में बहुमत के बलबूते देश की लाखों शाहबानो के अधिकारों का दम घोटने का शर्मनाक पराक्रम किया ।
एक बार फिर न्यायालय ने तीन तलाक के अमानवीय तरीके पर विमर्श आरंभ किया है, तीन तलाक के प्रावधानों पर आपत्ति जताई है । इस देश में यह गनीमत भी है और राहत भी है कि शाहबानो केस की अस्वीकार्य लक्ष्मण रेखा को कम से कम न्यायालय ने तो ठेंगा दिखाने की कोशिश की ।
विधि आयोग ने जैसे ही मुस्लिम महिलाओं को धर्म के नाम पर दी जाने वाली अमानवीय यातनाओ तीन तलाक, निकाह हलाला , और बहु विवाह आदि पर सुझाव मांगे वैसे ही तमाम मुस्लिम धर्म के तथाकथित ठेकेदार उबल पड़े , यद्यपि इन लोगों की इस तरह की आक्रामक प्रतिक्रिया समझ से परे है।
“तीन तलाक” मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का हन्ता है और उनके आत्मसम्मान तथा अस्तित्व पर बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है ।उसकी उपयोगिता ,व्यवहारिकता और आवश्यकता पर विचार करने में किसी को क्या आपत्ति होनी चाहिए ।
सबसे पहले तो तीन तलाक के मुद्दे पर, उसकी प्रक्रिया पर इस्लामिक विद्वानों में ही मतैक्य नहीं है। अलग-अलग विद्वान तीन तलाक की अपनी अलग -अलग व्याख्याएं प्रस्तुत करते रहे हैं । परंतु मुस्लिम धर्म के तथाकथित धार्मिक ठेकेदारों को वही व्याख्या ज्यादा मुफीद लगती है जिसमें महिलाओं का शोषण आसानी से किया जा सके ।
भारत में एक साथ तीन बार तलाक बोलने का प्रचलन है परंतु अहमद रशीद शेरवानी तीन तलाक के मामले में लिखते हैं “इस्लाम में सभी चीजों में तलाक ही अल्लाह द्वारा नापसंद किया जाता है “।इसमें तीन तलाक के प्रावधान की व्याख्या के संदर्भ में उनका मानना है कि “यह तीन ऋतु कालो अर्थात 90 दिनों से जुडी हुई प्रक्रिया है। पहला तलाक भी ऋतु काल के उपरांत ही दिया जा सकता है, इससे पता चलेगा कि क्या उसकी पत्नी गर्भवती हो गई है और उसके बच्चे की मां बनने वाली है तब वह अपनी पत्नी को तलाक नहीं दे सकता। यह बात छोटी लग सकती है, बावजूद इसके यदि इसनिषेध का पालन होता है तो गुस्से में आकर दिए जाने वाले तलाकों से बचा जा सकता है । शेरवानी के अनुसार पहले तलाक के उच्चारण के बाद 2ऋतू धर्म पूरा होने तक इंतजार पड़ता है , तब तक समझौते का प्रयास जारी रखा जा सकता है ।शेरवानी साहब इसे सच्ची इस्लामी प्रक्रिया मानते हैं तथा एक साथ तीन तलाक देने को जंगलीपन एवं इस्लामी कानून की विकृति मानते हैं ।
अन्य विदुषी मुस्लिम महिला सालेहा बेगम का कहना है “तलाक को शरीयत ने जायज तो करार दिया है लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि जायज बातों में यह सबसे बड़ी बात है कि शरीयत में तलाक की हर मसले पर हौसला शिकनी की है यानि तलाक को भी शालीनता के परिवेश में शांतिपूर्ण ढंग से देना चाहिए ताकि उत्तेजना वश या किसी कारणवश तलाक तुरंत नहीं देना चाहिए और ठोस हालात में ही तलाक हो , लेकिन आज की परिस्थितियां इसके बिल्कुल विपरीत है और इस्लामी शरीयत मानने वालों के लिए यह शर्मनाक है”।
ऐसा प्रतीत होता है कि मुस्लिम धर्म के ठेकेदारों ने इसे धार्मिक कम अपितु परुषों के एकाधिकार के साथ जोड़ दिया है,जिसे किसी भी स्थिति में वे लोग छोड़ने को तैयार नहीं हैं। कुछ मुस्लिम महिला एक्टिविस्ट भी यदा कदा इस बात पर जोर देती रही हैं कि तीन तलाक की प्रक्रिया शरीयत के “सच्चे” प्रावधान के तहत हो,जिसमें महिलाओं के अन्याय से बचने के लिए थोड़ी गुंजाइश शेष रहती है।
मुझे यह समस्या धार्मिक कम शोषण वादी मानसिकता की ज्यादा लगती है, कुरान में छह हजार आयतेे हैं , इन में करीब 70 अथवा 80 निजी मसलों से संबंधित हैं , जिनमें 25 आयतें तलाक से संबंधित हैं ।मोहम्मद साहब के कलामो को हदीस में कलमबद्ध किया गया, जिसे इस्लामी जगत में कुरान के समान कि मान्य एवं आदर प्राप्त है।
हदीस विशेषज्ञ अली नवील ने मोहम्मद साहब के डेढ़ सौ वर्ष बाद की घटनाओं का सर्वेक्षण करते हुए विस्मित हो कर कहा ” मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कोई पवित्र व्यक्ति हदीस जैसे मामले में इतना झूठ नहीं बोल सकता।
बुखारी ने प्रायः 16 वर्षों तक हदीसों के संग्रह हेतु परिश्रम किया ।दूर देशों में फैले लगभग 1000 से अधिक शेखों के साक्षात्कार लिए, 6000 से अधिक परंपराएं एकत्रित की।अंत में उन्होंने मात्र 7397 एक गणना के अनुसार 7298 ही अपनी पुस्तक “सहीह” में शामिल की ।जैसा की ” गिलौमें” संकेत देते हैं यदि पुनरावृति को निकाल दिया जाए तो कुल 2762 स्वतन्त्र हदीस मिलते हैं ।
मुहम्मद साहब ने खजुर वृक्ष को सींचने की पद्धति पर जवाब देते हुए कहा था कि “मैं सामान्य इंसान से ज्यादा कुछ नहीं हूँ, जब मैं तुम्हें रूहानी मामलों पर कोई आदेश देता हूं उसे स्वीकार करें ,जब मैं तुमसे दुनियावी बातों के बारे में कुछ कहता हूं तो मैं सामान्य आदमी के अतिरिक्त कुछ नहीं हूँ”।
कुछ इस्लामिक मान्यताओ में, महिलाओं को खेती की जमीन, (मुवत्ता 1221 )संभोग का साधन,( मिश्कत1)पिटाई के योग्य (मिश्कत1) दोजख के लायक (मिश्कत1), ना जाने क्या-क्या कहा गया है। यही स्थिति उत्तराधिकार के मामले में भी है ।
गौरतलब है कि महिलाओं की दयनीय स्थिति को देखते हुए अनेक मुस्लिम देशों को यह प्रतीत हुआ कि शरीयत के कुछ कानून महिलाओं को लेकर असंतुलित हैं , अस्पष्ट हैं ,आउटडेटेड हैं। इसलिए उन्होंने अपने यहां कई तरह के सुधार किए और उन सुधारों को शरीयत के अनुकूल भी बताने की कोशिश की। मिस्र, पाकिस्तान, इंडोनेशिया, ईरान, तुर्की समेत 22 देशों में तीन तलाक के नियम को समय की मांग पर बदला है।अब वहाँ एक साथ तीन तलाक बोलकर तलाक दे देने की प्रथा पर रोक लगी है।
बहुविवाह प्रथा पर भी एक के बाद एक कई देशों ने प्रतिबंध लगाएं हैं। ट्यूनीशिया में 1956 के “लॉ ऑफ पर्सनल स्टेटस” की धारा 18 के तहत बहुविवाह प्रथा निषिद्ध है। पाकिस्तान, मोरक्को दक्षिणी यमन आदि दशिन ने भी बहुविवाह प्रथा की यथास्थिति बनाये रखने में विशवास नहीं किया अपितु उसमे कुछ न कुछ महिलाओ के हितो के अनुकूल परिवर्तन भी किये हैं।
इसका अभिप्राय यह है कि मानवीय दृष्टिकोण से व्यवस्था को दुरुस्त करना ना तो सांप्रदायिक है ना शरीयत के खिलाफ जैसा कि कुछ लोग हमेशा बखान करते मिलते हैं ।अगर ऐसा होता तो मुस्लिम देश इस तरह की सुधारवादी पहल ना करते।
प्रधानमंत्री मोदी ने भी हालिया बयान में देश के बुद्धिजीवी , धार्मिक , और मीडिया वर्ग के लोगों से अपील की है कि तीन तलाक के मुद्दे को सांप्रदायिक चश्मे से ना देखा जाए। महिलाओं बहनों के साथ संप्रदाय के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए।
न्यायालय ने विधि आयोग के माध्यम से बेहद उचित विमर्श को आगे बढ़ाया है , महिलाओं के मौलिक अधिकारों, मानव अधिकारों की चिंता करना, उनके शोषण के लिए खुले रास्तों को बंद करना ,बेबसी की जिंदगी से उबारना, उनमें आत्मविश्वास पैदा करना , यह सरकार ,न्यायपालिका और समाज की संवैधानिक तथा नैतिक जिम्मेदारी है ।जिसे पूरा करने का ईमानदार प्रयास होना चाहिए।
यह मुद्दा साम्प्रदायिक कतई नही है,यह लैंगिक भेदभाव समाप्त कर समानता स्थापित करने का मुद्दा है, यह महिलाओ के साथ हो रही घिनौनी प्रथा को समाप्त करने का मुद्दा है, यह इस्लाम की विकृत व्याख्याओं को ठीक करने का मुद्दा है,यह मजहब के नाम पर पुरुषों के एकाधिकार को खत्म करने का मुद्दा है।
मोदी सरकार के पास यह सुनहरा अवसर है , उम्मीद है वह राजीव गांधी की तरह कट्टरपंथी मुल्ले मौलवियो के सामने घुटने नही टेकेंगे और मुस्लिम बहनों को अमानुषिक प्रथा से मुक्ति दिला कर उनके जीवन में नयी रौशनी का संचार करेंगे।

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