मुलायम कुनबे के टूटने की बारी

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शिवपाल
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प्रमोद भार्गव
राजनीति और व्यापार में कुनबा किसी का रहा हो, वह एक दिन टूटता ही है। मुलायम सिंह कुनबे में फूटे असंतोष पर भले ही तत्काल विराम लग गया हो, लेकिन यह तय है कि इस कुनबे की चूलें भीतर से हिल चुकी हैं, जो कुनबे के लिए अब स्थाई खतरा बन गई हैं। वर्तमान राजनीति के परिदृष्य में कुनबे तो बहुत हैं, लेकिन मुलायम सिंह के कुनबे के सदस्यों की संख्या सबसे ज्यादा है। पंचायत, विधानसभा और लोकसभा में इस परिवार के 13 सदस्य हैं। मुलायम पुत्र अखिलेष यादव जहां खुद उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, वहीं कई अन्य सदस्य मंत्री व निगमों के अध्यक्ष हैं। चुनाव जैसे‘जैसे निकट आ रहा है, वैसे-वैसे कुनबे के सदस्यों में पद और वर्चस्व की महत्वाकांक्षा अंगड़ाई लेने लगी है। जबकि होना यह चाहिए था कि कुनबा मुलायम के नेतृत्व में कहीं ज्यादा संगठित और एकजुट दिखता। लेकिन परिवार केंद्रित राजनीति में एक न एक दिन परस्पर टकराव और बिखराव की शुरूआत होती ही है। प्रकृति का नियम भी यही है। लिहाजा फिलहाल मुलायम सिंह ने अपने बड़प्पन और बुर्जुगियत का अहसास कराकर भाई शिवपाल और पुत्र व मुख्यमंत्री अखिलेष के बीच तालमेल बिठा दिया हो, लेकिन ढीली पड़ी यह गांठ भविष्य में मजबूती से बंधी रहने वाली नहीं है।
उत्तरप्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में परिवार के स्तर पर ही तल्ख टकराव और गहरी उथल‘पुथल मची हुई है। शिवपाल, उनकी पत्नी और बेटे का सभी पदों से इस्तीफा इेना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि मुलायम की मुट्ठी ढीली पड़ रही है। यह तब हुआ जब शिवपाल से मुलाकात के बाद सपा सुप्रीमो मुलायम ने यह बयान दे दिया था कि शिवपाल सपा प्रदेश अध्यक्ष के साथ मंत्रीपद पद भी बने रहेंगे। हालांकि अखिलेष ने शिवपाल का इस्तीफा मंजूर करने से इंकार कर दिया है। क्योंकि वे जानते हैं, ऐन चुनाव के वक्त परिवार टूटता है, तो सपा की जीत की सभी संभावनाओं पर पानी फिरना तय है। साथ ही यह आशंका भी बढ़ जाएगी कि कुनबे के अन्य सदस्य भी न रूठने लग जाएं, इस समझ और शालीन आचरण की ही वजह है कि अखिलेष की छवि एक दृढ़ इच्छाशक्ति रखने वाले शक्तिशाली नेता के रूप में उभरी है।
हालांकि अखिलेष ने यही दृढ़ता तब दिखाई थी, जब बाहुबली विधायक मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का विलय सामाजवादी पार्टी में कर लिया गया था। इस विलय में सहमति मुलायम की तो थी ही, किंतु अहम् भूमिका शिवपाल की मानी गई थी। शिवपाल ने ही पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाहुबली डीपी यादव को सपा में शामिल करने का ऐलान किया था। इस विलय पर भी तीखी प्रक्रिया हुई थी। खुद अखिलेष को यह फैसला कतई रास नहीं आया था, जबकि वे सपा का चुनावी चेहरा थे और उन्हें दिग्गज व बाहुबलियों के सहयोग की जरूरत थी। लेकिन मुख्तार अंसारी और डीपी यादव दोनों ही ऐसे बाहुबली हैं, जिन पर कई संगीन आपराधिक मामले उत्तरप्रदेश के अनेक थानों में दर्ज हैं। साफ है, ऐसे नेताओं के लिए सपा के लिए दरवाजे खुल जाते तो अखिलेष की साख और छवि को गहरा धक्का लगता। इसलिए अखिलेष ने इन दोनों नेताओं का सपा में प्रवेश गैर जरूरी समझा और दोनों को बाहर कर दिया। इन फैसलों के पलटे जाने से शिवपाल को आघात तो पहुंचा, लेकिन उन्होंने अहसास नहीं होने दिया। बावजूद यही वे प्रमुख घड़ियां रही हैं, जो मुलायम के कुनबे में अंदरूनी दरार डाल गईं। शिवपाल और अखिलेष में ताजा टकराव ने दरार को चौड़ा तो किया ही है, कल को यह लड़ाई वास्तव में वर्चस्व के संघर्ष में बदल जाती तो महत्वाकांक्षा की बू उत्तर प्रदेश के चुनावी माहौल को मुलायम के विरुद्ध रचने का काम करती। ऐसा हो जाता तो यह कुनबा केवल मुलायम यादव कुल का कुनबा नहीं रह जाता, बल्कि इसमें से खरपतबार की तरह कई कुनबे फूट पड़ते।
हालांकि इसमें कोई हैरान होने जैसी बात नहीं है, राजनीतिक वंश परंपराओं का आखिर में यही हश्र होता है। भारतीय राजनीति में वंश परंपरा या परिवारवाद का रिश्ता गहरा रहा है। नेहरू परिवार की वंश परंपरा आज भी कांग्रेस की धुरी है। कांग्रेस जिस दिन इससे मुक्त हो जाएगी, बुरी तरह बिखर जाएगी। यही वजह है कि कांग्रेस आलाकमान सोनिया-पुत्र राहुल गांधी की नाकामियां एक दशक से भी ज्यादा समय से झेलने के बावजूद कांग्रेस के उनके अकुशल नेतृत्व को स्वीकारने को विवश है। हालांकि संजय गांधी की असामायिक मृत्यु के कुछ समय के बाद ही मेनका गंधी, इंदिरा गांधी जैसी शक्तिशाली महिला से छिटककर अलग हो गई थीं। ग्वालियर राजघराने की राजमाता और भाजपा के संस्थापक सदस्यों में से एक रहीं विजयाराजे सिंधिया का अपने ही पुत्र माधवराव सिंधिया से कभी तालमेल नहीं बैठा। नतीजतन आपातकाल के बाद माधवराव इंदिरा गांघी की गोद में जाकर बैठ गए। विजयाराजे और माधवराव की मृत्यु के बाद माधवराव के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया की पटरी भी भाजपा में दखल रखने वाली अपनी बुआओं वसुंधरा और यशोधरा राजे सिंधिया से कभी नहीं बैठी। हालांकि इतना जरूर है कि लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा यह परिवार, दलीय प्रतिबद्धताओं की खुली अवहेलना कर एक दूसरे के लिए खुली मदद करता है। तमिलनाडू के करुणानिधि परिवार में दोनों भाइयों के बीच सिर-फुटौव्वल के हालात बने हुए हैं। बावजूद वंश परंपराओं का भारतीय राजनीति में वर्चस्व और विस्तार कायम है। बिहार में लालू यादव कुनबे ने सुशासन के पैरोकार मुख्यमंत्री नितीश कुमार की नकेल कसी हुई है। कश्मीर में आजादी से लेकर अब तक दो परिवारों का ही राजनीतिक वर्चस्व बना हुआ है। वही सत्तारूढ़ होते चले आ रहे हैं।
इस लिहाज से हम यह भले ही दावा करके अपनी पीठ थपथपाते रहें, कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। आबादी और संसदीय लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में यह बात अपनी जगह सौ टका खरी है, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हमारे ज्यादातर सियासी दल अलोकतांत्रिक हैं। इन दलों के संगठनात्मक चुनाव कागजी खानापूर्ती भर के लिए होते हैं। इसी का दुष्परिणाम है कि आज देश में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और कच्छ से लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों तक राजनीतिक वंश परंपरा की बेल फैली हुई है। लिहाजा लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में हमारे यहां संवैधानिक व्यवस्था है, लेकिन सियासी सत्ता के शीर्ष पर स्वाभाविक प्रतिभाओं की बजाय, आनुवंशिक पहचान अह्म बनी हुई है। ये वंश केवल राजनीतिक रूप से ही बड़े नहीं हो रहे हैं, बल्कि आर्थिक रूप से भी आश्चर्यजनक ढंग से धनी हो रहे हैं। देश में बढ़ रही गरीबी, अशिक्षा, असमानता और असंतोष के कारण इस वंश बेल की जड़ से भी जुड़े हैं।
विरोधाभासी संकट यह भी है कि मुलायम और लालू जैसे लोग उन डाॅ राममनोहर लोहिया के शार्गिद रहे हैं, जो वंशवाद के प्रखर आलोचक रहे हैं। लेकिन उनके आचरण में लोहिया का सामाजवादी दर्शन अब दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा है। इसीलिए लोकतांत्रिक व्यवस्था के छीजने का आभास आम जनमानस कर रहा है। अभी वक्त है कि मुलायम और अखिलेष भारतीय लोकतंत्र को मजबूती देने की दृश्टि से परिवारवाद की परवाह न करते हुए सपा को गांधीवादी समाजवादी मूल्यों से सींचने का काम करें। अन्यथा कालांतर में कुनबा बिखरता है तो सपा की शक्ति और साख पर जो असर पड़ेगा उसकी भरपाई मुलायम सिंह अपने शेष जीवन में करने से रहे ?

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