नरेश भारतीय
पठानकोट में वायुसेना के अड्डे पर पाकिस्तान में प्रायोजित बड़े आतंकवादी हमले के बाद भारत एक बार फिर पाकिस्तान की सरकार से यह उम्मीद लगाए प्रतीक्षा में रहा
कि इस बार दोषियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई होगी. लेकिन हमेशा की तरह इस बार भी निराशा ही हाथ आई. उम्मीद उसी देश की सरकार से ही तो रही है जिसकी सरजमीं पर जिहादी आतंकवादी संगठनों का ऐसा जमावड़ा है जो पाकिस्तान की सरकार पर हावी है. इसलिए हावी है क्योंकि उनकी नींव पाकिस्तानी सेना के माध्यम से बरसों पहले उस जमाने में रखी गई थी जब पश्चिमी देश अफगानिस्तान के क्षेत्र में सोवियत प्रभाव को समाप्त करने के इरादे से पाकिस्तान की सहायता पाने के लिए उसके आगे पीछे मंडरा रहे थे. आर्थिक सहायता और हथियारों की भरपूर आपूर्ति अमरीका ने की और पाकिस्तानी सेना का उपयोग करके आई.एस.आई को यह काम सौंपा गया कि वह जिहादी लड़ाकों को तैयार करे. तालेबान जैसे संगठन उसी वक्त की ईजाद हैं. समय पाकर पश्चिमी ताकतों को सोवियत संघ का नियंत्रण समाप्त करने में सफलता मिली. लेकिन धन और हथियारों का भण्डार जो आई.एस.आई के पास जमा हो गया था उसका उपयोग पाकिस्तान के विकास में न हो कर भारत के विरुद्ध विनाशक कारनामों को अंजाम देने के लिए करना तय हुआ. पाकिस्तान में या तो सेना की अपनी सरकार रही है या फिर यदि ग़ैर सैनिक सरकार बनी भी तो सेना उस पर हावी रही है.
कश्मीर भारत के विभाजन के बाद से ही दोनों देशों के बीच विवाद का मुद्दा बन गया था. पाकिस्तान ने इसे मुद्दा बनाए रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. वहां जिहादी संगठन पाकिस्तानी सेना की सहायता से ताकतवर होते चले गए. विध्वंस और विनाश के इन प्रहरियों को अपनी बंदूकें भारत में अस्थिरता उत्पन्न करके कश्मीर को हथिआने के लिए इस्तेमाल करना पाकिस्तान की रणनीती का मुख्य लक्ष्य बन गया. उस रणनीती में अब तक कोई फेरबदल नहीं किया गया है. पाकिस्तान घोषित रूप से एक इस्लामी राष्ट्र है और भारत को काफिरों का देश मानता है इस तथ्य के बावजूद कि भारत में मुसलमानों की संख्या उससे अधिक है. कश्मीर पर अपना हक जतलाता है और वहां भी अपनी कट्टरपंथी सोच को बल प्रदान करता है. इसी सोच के तहत पाकिस्तान अब अंतर्राष्ट्रीय आतंकियों का सैनिक प्रशिक्षण केंद्र बन चुका है. ऐसे लोगों को विकास नहीं अपितु विनाश अधिक ग्राह्य प्रतीत होता है.
उधर मध्यपूर्व में कट्टरपंथी ‘इस्लामी राज्य’ का उदय विश्व की चिंता का कारण बन रहा है. बहुत कम समय में उसका शक्तिवान होना, क्षेत्र में तेलकूपों को नियंत्रण में लेकर आर्थिक स्रोत पाना और पश्चिम की बड़ी ताकतों को अपने निशाने पर लेना मामूली स्थितियां नहीं हैं. अमरीका और उसके सहयोगी समस्त पश्चिमी देश एक बहुत बड़े खतरे से दरपेश हैं. बहुत कुछ इसके लिए वे स्वयम ज़िम्मेदार हैं क्योंकि उनके द्वारा ईराक के विरुद्ध की गई सैनिक कार्रवाई इसके प्रारम्भ का एक कारण माना जाता है. अफगानिस्तान में ओसामा बिन लादेन का पीछा करते नाटो देशों ने तालेबानों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी. वे लादेन को पकड़ नहीं पाए. खोज जारी रही. पाकिस्तान बार बार इस
आरोप से इन्कार करता रहा कि ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान में छुपा है. अंतत: उसके इस झूठ का पर्दाफाश हो गया जब अमरीकियों ने एबटाबाद में पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय के निकट उसका अता पता ढूँढ़ कर उसे मौत के घाट उतार दिया. इतिहास बहुत कुछ दोहराता चला जाता है. भारत ने मुम्बई में हुए आतंकी हमलों के बाद जब पाकिस्तान को सबूत देकर हाफ़िज़ सईद जैसे आतंकी सरगनाओं के खिलाफ कारवाई की मांग की तो पाकिस्तान ने उसकी वहां मौजूदगी की कोई भी जानकारी से इनकार किया. जमात उद दावा कहे जाने वाले आतंकी संगठन के सरगना और मुम्बई बम हमलों के प्रमुख योजनाकार हाफिज़ सईद के सर पर १ करोड़ डालर का इनाम अमरीका ने घोषित कर रखा है. वह पाकिस्तान में खुले आम घूम रहा है. उन्हें प्रशासन और सेना का संरक्षण प्राप्त है. एक भरी सभा में छाती ठोककर कहते हैं हाफिज सईद “भारत को पठानकोट जैसे कई और हमलों का दर्द सहना पड़ेगा.” उसके एक दिन बाद ५ फरवरी को इस्लामाबाद में ‘कश्मीर दिवस’ मनाते हुए कई और पाकिस्तानी आतंकी संगठनों के साथ मिल कर की गई एक सभा में उसी हाफिज़ सईद ने फिर से ललकारते हुए कहा यह घोषणा की कि “पाकिस्तान को भारत के साथ कोई शांति वार्ता करने की जरूरत नहीं है. नवाज़ शरीफ को चाहिए कि “भारत के साथ राजनयिक सम्बन्ध तोड़ दें.” कश्मीर को आज़ाद करने के लिए लड़ाई जारी रखने पर जोर देते हैं क्योंकि उनके मुताबिक़ संयुक्त राष्ट्र इसका हल करने में नाकामयाब रहा है.
स्पष्ट है कि पाकिस्तान की वर्तमान नवाज़ शरीफ सरकार, पहले की लोकतंत्रीय सरकारों की तरह से ही, एक बेबस सरकार है. नवाज़ शरीफ पाकिस्तान के दीर्घावधि हित को ध्यान में रखते हुए भले ही इस चेष्ठा में दिखाई दें कि पुन: शुरू हुई वार्ताओं को पटरी पर ले आएं. लेकिन जब तक पाकिस्तान की सेना और ख़ुफ़िया एजेंसी आई.एस.आई और हाफिज सईद जैसे आतंकी सरगनाओं की सहमति उन्हें नहीं मिलती नवाज़ शरीफ कुछ नहीं कर सकते. बरसों से पाकिस्तान इन जिहादी संगठनों के संरक्षण, पोषण और प्रशिक्षण के लिए धन और सैनिक संसाधन का प्रावधान करता आया है. ये जिहादी संगठन हर हमले की योजना पाकिस्तान की धरती पर ही बनाते हैं और भारत भर में फैले आई.एस.आई के एजेंटों का लाभ प्राप्त करते हैं. भारत के द्वारा मुम्बई हमले के एक मुख्य आरोपी डेविड हैडली के साथ चल रही पूछताछ में स्पष्ट होकर यह तथ्य सामने आए हैं कि उसे आदेश निर्देश सीधे पाकिस्तान से मिलते थे. वह खुद हाफिज सईद के संपर्क में था जिससे प्रभावित होकर उसने आतंकी हमलों की ट्रेनिंग भी पाकिस्तान में ही ली थी. आई.एस.आई के अफसरों के नाम तक उसने दिए हैं जिनके सीधे संपर्क में वह था. डेविड हैडली की यह गवाही पाकिस्तान की सेना, उसकी प्रमुख खुफिया एजेंसी और लश्करे ताईबा जैसे चुनिन्दा आतंकी संगठनों के बीच तालमेल को स्पष्ट करती है.
अब सवाल यह बचता है कि क्या पाकिस्तान की सरकार को इन सब गतिविधियों की कोई जानकारी नहीं होती? किसी भी देश में यदि एक चुनी गई सरकार पर देश की सेना और उसकी खुफिया सेवा हावी है. यदि उस खुफिया सेवा द्वारा आतंकवादियों को प्रशिक्षण, समर्थन और संरक्षण दे कर भारत में आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए लगातार तैयार किया जाता है. यदि वह देश शेष विश्व में भी विध्वंस और विनाश के लिए आतंकियों को तैयार करने का केंद्र बन चुका है तो फिर भारतीय भूखंड के लिए यह एक अत्यंत खतरनाक भविष्य का संकेत है.
पठानकोट प्रकरण के बाद एक बार विश्व ने देखा है पाकिस्तान के द्वारा बार बार दोहराया जाने वाला वही घिसा नाटक. उसके संवाद थे “पाकिस्तान की सरकार ने कुछ आतंकवादी सरगनाओं के विरुद्ध कदम उठाए हैं. हाफिज सईद को नज़रबंद कर दिया गया है. पाकिस्तान भारत द्वारा दिए गए सबूतों की जांच करेगा” इत्यादि. इन संवादों ने मीडिया में सुर्ख़ियों का स्थान ले लिया. भारत की उम्मीदें जगने लगीं. भारत ने तुरत फुरत आश्वासन दे डाला कि वह पाकिस्तान को आतंकवाद के विरुद्ध कार्रवाई करने में पूरा सहयोग देगा. भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के बीच सीधे सम्पर्क के समाचार भी सुर्ख़ियों में छाए रहे. लेकिन क्या सच में पाकिस्तान के उन आकाओं के सर में जूँ भी रेंगी जिनके हाथों में लगाम है? नहीं, क्योंकि उनकी नाक तले ही तो पठानकोट हमले की रचना की गई थी. पर्दे के पीछे आतंकियों की महफिलों में गर्मजोशी से अपनी जीत के ठहाके लगते रहे होंगे. भारत आहत अवस्था में इन सवालों के जवाब ढूँढने में व्यस्त रहा है कि वायुसेना के अड्डे के अंदर पाकिस्तानी आतंकी घुस कैसे गए थे. ऐसे सवाल जवाब और बहसें भारत की चिंता को जतलाते हैं. इस महती समस्या का सम्यक समाधान प्रस्तुत नहीं करते. मेरा प्रश्न यह है कि हर हमले के बाद भारत के द्वारा पाकिस्तान को सबूत पेश किए जाने की एक परम्परा सी क्यों बन गई है? क्या होगा सबूत पेश करके और वह भी उन्हें जो खुद इन वारदातों के लिए ज़िम्मेदार हैं?
भारत के साथ शांति वार्ताओं का राग जारी है. होंगी या नहीं होंगीं वार्ताएं? आए दिन इसका शोर होता रहता है. इस्लामाबाद में हुई सभा में कश्मीर को आज़ाद कराने की हाफ़िज़ सईद की ललकार के बाद पठानकोट के आतंकी हमले की चर्चा बंद और वार्ताओं में कश्मीर को बहस का प्रमुख मुद्दा बनाने की मांग पाकिस्तान की सरकार ने की. ऎसी स्थितियों में भारत किसके साथ क्या वार्ता करेगा? समय की आवश्यकता है कि वह सीमा पार से उसके विरुद्ध किए जाने वाले आतंकी षड्यंत्रों का अंत करने की सोचे. इसके लिए अब निर्णायक कदम उठाए. महाभारत होने तक की प्रतीक्षा न करें.