”व्यवस्था बदलने के लिए

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वीरेन्द्र सिंह परिहार

अभी 4 नवम्बर को कांग्रेस पार्टी की दिल्ली रैली को संबोधित करते हुए कांग्रेस पार्टी के युवराज राहुल गांधी ने कहा कि मौजूदा व्यवस्था से आम आदमी को परेशान होना पड़ रहा है। इसको बदलने के लिए युवकों को आगे आना पड़ेगा। राहुल गांधी की उपरोक्त बातों से उनके दिवंगत पिता एवं भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की वह बात याद आती है, जब उन्होने कहा था कि दिल्ली से चलने वाला एक रूपया में 15 पैसे ही आम आदमी तक पहुंच पाता है। कहने को तो उन्होने यह भी कहा था कि कांग्रेस में ”सत्ता के दलाल हावी हो गए है।

ऐसी स्थिति में सवाल यह उठता है कि आखिर में ऐसी बातों की प्रमाणिकता क्या है? यदि देश का प्रधानमंत्री यह कहे कि रूपए में 15 पैसे ही आम आदमी तक पहुंचता है, और इस स्थिति को रंचमात्र भी सुधार न पाए। इतना ही नही बोफोर्स घोटाले में स्वत: विवादित हो जाए तो यह समझा जा सकता है कि ऐसी बातें कितनी निष्ठा एवं र्इमानदारी से कहीं जा रही है। नि:सन्देह व्यवस्था परिवर्तन में दूसरे कारक भी हो सकते है, जिसमें सबसे बड़ा कारक किसी भी देश के नागरिको का चरित्र होता है। लेकिन यह राष्ट्रीय चरित्र भी नागरिको का ऐसे ही नहीं बन जाता। कृष्ण ने गीता में कहा है कि बड़ें लोग जैसा आचरण करते है, आम लोग उसी का अनुकरण करते हैं। जो रामराज्य स्वतंत्र भारत में लाने का गांधी का सपना था,वह राम जैसे राजा के चलते आया था। स्पष्ट है कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए यह आवश्यक है, कि उस देश के शासको का, नेतृत्व वर्ग का चरित्र, आचरण कैसा है, कितना प्रामाणिक है, यह महत्वपूर्ण है। अब राहुल गांधी भले यह कहें कि युवक इसके लिए आगे आए। पर राहुल गांधी क्या यह बताएंगें कि जिस युवक कांग्रेस को संवारने और बनाने के लिए वह वर्षो-वर्षो तक प्रयासरत रहे, उसमें वह कोर्इ खास बदलाव क्यों नहीं कर पाए? उसमें आम युवको को जो साधारण परिवारों से आते है, उन्हे नेतृत्व की पांत में क्यों नहीं खड़ा कर पाए? आखिर में युवक कांग्रेस के नेतृत्व पर वही खानदान-विशेष के लोग हावी रहे। राहुल गांधी के पास इसका क्या जबाब है कि जो अभी पिछले दिनों मंत्रिमण्डल का पुर्नगठन हुआ, उसमें प्रोन्नति के नाम पर बडें बाप के बेटों को ही जगह क्यों मिली? राहुल गांधी को यह अच्छी तरह पता होंगा कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए खास और आम के बीच के अंतर की खार्इ को पाटना अनिवार्य है। पर राहुल गांधी ने इस दिशा में शायद ही कुछ किया हो। किसी गरीब या दलित के घर खाना खा लेना या रात गुजार लेना एक रस्म अदायगी ही हो सकता है, व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में कोर्इ कदम नहीं। सच्चार्इ यह है कि राहुल गांधी किसी खानदान विशेष के चलते देश में सबसे ज्यादा विशेषाधिकार-संपन्न व्यकित है। ऐसी स्थिति में वह विशेषाधिकार संपन्न तबके को कैसे किनारे कर आम आदमी के पक्ष में खड़ें हो सकते है? बिडम्बना यह है कि राहुल गांधी कर्इ बार ज्वलंत मुददो पर कुछ बोलते ही नहीं। वह मीडिया तक से संवाद करने की जरूरत नही समझते।

जैसा कि अन्ना हजारे और उसकी टीम का प्रस्ताव था-एक सशक्त लोकपाल व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में एक आधारभूत कदम हो सकता है। इस मुददे पर राहुल गांधी ने यह कहकर छुटटी पा ली कि लोकपाल संवैधानिक होना चाहिए। लेकिन ”हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और तर्ज पर आरोप यह है कि संसद में जो कमजोर लोकपाल बिल, पेश किया गया वह मूलत: राहुल गांधी के इशारे पर किया गया। अब यदि देश में एक मजबूत लोकपाल हो, राज्यों में ऐसे ही लोकायुक्त हो-तो नि:सन्देह घोटालेबाजां और भ्रष्टाचारियों की जगह जेल में होगी। अब इसमें तो कोर्इ दो मत नहीं कि इन्ही घोटालों और भ्रष्टाचार के चलते देश की बहुसंख्यक आबादी भूखी है, नंगी है, आवासविहीन है, इतना ही नही बीमार पड़ने पर लोग दवाइयों के आभाव में काल-कलवित भी हो जाते है। दूसरी तरफ कुछ लोगों के पास देश में ही नहीं विदेशों में भी करोड़ो-अरबों काला धन जमा है। पर राहुल गांधी ने इस काले धन को देश में लाने के लिए कभी भी व्यग्रता नहीं दिखार्इ। उल्टे बाबा रामदेव जैसे लोग जब इसके लिए आन्दोलन करते है, जो राहुल गांधी के सरकार की पुलिस आधी रात को आन्दोलनकारियों को पीटती है, दिगिवजय सिंह जैसे दरबारी बाबा को ठग बताते है। मनीष तिवारी जैसे लोग जो अन्ना हजारे को सिर से पैर तक भ्रष्ट कहने की धृष्टता करते है, उल्टे केन्द्रीय मंत्रि परिषद में सूचना एवं प्रसारण जैसे मंत्रालय देकर पुरस्कृत किया जाता है। सलमान खुर्शीद जैसे लोगों को जिन पर विकलांगों के साथ धोखाधड़ी के प्रमाणिक आरोप तो है ही, जो कानून मंत्री होते हुए गुंडों और बाहुबलियों की भाषा प्रयोग करते है, उन्हे मंत्रिमण्डल में प्रमोशन दिया जाता है। जयपाल रेडडी जैसे मंत्रियों को इसलिए पेट्रोलियम मंत्रालय से हटा दिया जाता है कि वह मुकेश अम्बानी की धुनों पर क्यों नहीं नाचें? क्या राहुल गांधी को यह पता नही कि व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता अच्छे एवं र्इमानदार व्यकितयों को प्रोत्साहित करने और भ्रष्ट एवं बुरे व्यकितयों को दणिडत करने से निकलता है।

राहुल गांधी और श्रीमती सोनिया गांधी आए दिन आर.टी.आर्इ. कानून को लेकर ढ़ोल पीटते रहते है। पर क्या वह ये भी बताएंगें कि आर.टी.आर्इ. कानून बनाम के अलावा उन्होने नागरिकों को समय पर सेवाएं देने के लिए सिटीजन चार्टर कानून क्यों नही बनाया? किसानों के लिए भूमि अधिग्रहण का नया कानून अभी तक क्यों नही बना? न्यायिक मानक और जबाबदेही विधेयक क्यों नही पारित हुआ? सशक्त लोकपाल की तो बात ही अलग है जो इनके अनुसार भस्मासुर या एक समानान्तर सरकार बन जाएगा। आर.टी.आर्इ. का भी जहां तक सवाल है, उसे मजबूत करने के बजाय सतत कमजोर करने का ही प्रयास हुआ। सी.बी.आर्इ. को उसके दायरे से अलग कर दिया गया। देश के प्रधानमंत्री आए दिए इसके दुरूपयोग को लेकर बोलते रहते है। बेहतर होता कि वह कैंसर की तरह भ्रष्टाचार को लेकर इतने चिंतित होते तो आर.टी.आर्इ. के दुरूपयोग को कोर्इ प्रश्न ही नहीं था।

राहुल गांधी को शायद ऐसा लगता हो कि एफ.डी.आर्इ. ही व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता है। तभी तो वह एफ.डी.आर्इ. के समर्थन में होने वाली रैली में ऐसी बाते कहते है, और उसकी तुलना करगिल-युद्ध से करते है। राहुल गांधी को यह पता होना चाहिए कि व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता देश के व्यापार को विदेशियों के हवाले करने से नहीं और न महंगार्इ बढ़ाने जैसे जनविरोधी कदमों से होकर गुजरता है। व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता ऐसे कठोर कदमों से होकर जाता है-जिसमें स्वयं अपने और अपने लोगों के साथ पहले कठोरता करनी पड़ती है। बेहतर होता कि व्यवस्था परिवर्तन जैसी अमूर्त बातो से परे वह सुशासन की बात करते जिसके लिए कमोवेश गुजरात, बिहार और म.प्र. जैसे राज्यों का उदाहरण दिया जा सकता है। राहुल गांधी शायद यह सोचते हो ऐसा कहने से लोगों को यह भ्रम हो कि वह तो व्यवस्था परिवर्तन के पक्षधर है, पर क्या करे, मजबूर जो है। कुछ भी हो,पर यह एक लप्पेबाजी से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

 

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