माता-पिता की सम्मान के साथ सेवा करना प्रत्येक सन्तान का कर्तव्य

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-मनमोहन कुमार आर्य-
life

मनुष्य की जीवन यात्रा का आरम्भ जन्म से होता है और समाप्ति मृत्यु पर होती है। जन्म के समय वह प्रायः पूर्ण रूप से अज्ञानी होता है। मात्र उसके पास स्वाभाविक ज्ञान होता है और पूर्व जन्म का प्रारब्ध वा संस्कार। पूर्व जन्म के संस्कारों से उसकी प्रवृति बनती हैं जिसे माता-पिता व आचार्य मिलकर अभीष्ट उद्देश्य या लक्ष्य की ओर प्रवृत कर उसे सिद्ध करने में अहम् भूमिका निभाते हैं। प्रवृति को बदला जा सकता है यदि हमें अपने से अधिक ज्ञान, संस्कार व आचारवान, अनुभवी व ज्ञानी लोग मिल जायें और वह हमें समय-समय पर या निरन्तर दिशानिर्देश करते रहें। हमारे स्वयं के अन्दर भी जानने व सत्य को ग्रहण करने का स्वभाव, प्रवृति व रूचि होनी चाहिये। यदि ऐसा नहीं होगा तो फिर हमारे जीवन की भावी दिशा जीवन के उद्देश्य को पूरा करने में सफल नहीं होगी। संसार में हमें जीवन का लक्ष्य निर्धारित करना है और उसकी प्राप्ति के लिए योग्य आचार्य या निर्देशक-गाइड को नियुक्त कर उससे निर्देश व दिशा प्राप्त कर उस पर चिन्तन कर सावधानीपूर्वक चलना है और समय-समय पर उस पर पूरा ध्यान व विचार करते हुए उसमें जहां भी परिवर्तन व संशोधन अपेक्षित हों, करना होता है। हमारे जो माता-पिता व आचार्य हैं, वह कौन हैं ? यह वो लोग हैं जिन्होंने अपने जीवन में आचार्यों, अनुभवी व ज्ञानियों तथा बड़े-बड़े ज्ञानी बुजुर्गों की संगति व निकटता प्राप्त की होती है व अनेक विषयों के ग्रन्थों को पढ़ा होता है। उन्हें जीवन के बारे में जो जानकारियां होती हैं, वह कम आयु के लोगों में नहीं होती। उनका सान्निध्य हमारे लिए वरदान होता है। जब यदा-कदा हम उनके सम्पर्क में आते हैं तो हमारा कार्य उनसे संवाद कर उनकी सेवा करना होना चाहिये। सेवा में उनकी आवष्यकता की वस्तुयें यथा भोजन, वस्त्र, मार्ग व्यय, या यात्रा आदि कुछ धन व द्रव्य आदि देने होते हैं। इससे प्रसन्न होकर वह सेवा करने वालों को आशीर्वाद के साथ अपने ज्ञान व अनुभव से लाभ प्रदान करते हैं। इसे संगतिकरण कहा जाता है। प्राचीन काल में हमारे यहां इस संगतिकरण को यज्ञ कहा जाता था इसका कारण था कि यज्ञ में बड़े ज्ञानी व अनुभवियों को आमंत्रित कर उनका सत्कार किया जाता था। वह अपना आशीर्वाद प्रवचन व उद्बोधन के रूप में देते थे जिससे यजमान व सभी यज्ञ में सम्मिलित लोगों को लाभ होता था। यहां हम एक उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए कि एक जगह अग्निहोत्र यज्ञ हो रहा है जिसमें एक चिकित्सक – डॉक्टर या वैद्य, एक भवन निर्माता इंजीनियर, एक आध्यत्मिक विद्वान तथा एक आचार्य – अध्यापक उपस्थित हैं। सबको बीस-बीस मिनट का समय प्रवचन या उद्बोधन के लिए दिया जाता है।

पहले चिकित्सक महाशय प्रवचन करते हैं। वह बताते हैं कि स्वास्थ्य का आधार भोजन, निद्रा व संयमपूर्ण जीवन होता है। इन तीनों का जीवन में संतुलन होना चाहिये। इसके विपरीत भूख से अधिक भोजन, अल्प व अधिक निद्रा तथा संयम अर्थात् इन्द्रियों को वश में रखकर उसे अनावश्यक विषयों में प्रवृत होने से रोक कर जीवन व्यतीत करना होता है। वह बताते हैं कि भोजन सदैव शाकाहारी ही होना चाहिये। यदि सामिश भोजन करेंगे तो उससे रोगों के लग जाने और समय से पूर्व मृत्यु आ जाने, अथवा अधिकांश समय रोगों की चिकित्सा में व्यतीत होगा। सामिश भोजन तामसिक व राजसिक होता है। जैसा खाये अन्न वैसा बनेगा मन, अर्थात् भोजन के तामसिक व राजसिक होने से मन में तामसिक व राजसिक गुणों का प्रभाव अधिक होगा व सत्व गुण का प्रभाव कम होगा। रोगी व्यक्ति की कार्य करने की क्षमता भी कम होती है जिससे अर्थोपार्जन व सुख भोगने में भी बाधा होती है। सभी लोगों को स्वास्थ्य के नियमों का पालन करना चाहिये। फिर वह कहते हैं कि यदि किसी को स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई कष्ट है तो वह बताये जिसका निवारण वह करेंगे। इस प्रकार से संगतिकरण से वहां उपस्थित लोगों को स्वास्थ्य संबंधी जानकारियों की प्राप्ति से लाभ होता है। हमने यहां मात्र संकेत किया है। उनके व्याख्यान में स्वास्थ्य सम्बन्धी विस्तृत बातें हो सकती हैं। वर्तमान समय में मधुमेह, कैंसर, रक्तचाप व हृदय रोग, पाचन तन्त्र से सम्बन्धित रोग, शारीरिक क्षमताओं को बढ़ाने आदि के बारे में भी वह लोगों को विस्तार से बता सकते हैं। इसी प्रकार से स्वास्थ्य से सम्बन्धित अनेकानेक बातें वह बता सकते हैं, या उनसे पूछी जा सकती हैं। इसके बाद भवन निर्माण से सम्बन्धित इंजीनियर महोदय अपने विचार व्यक्त करते हैं। वह बताते हैं कि भवन ऐसा हो जो छोटा भले ही हो परन्तु उसमें वायु के आने-जाने के लिए समुचित दरवाजे, खिड़कियां व रोशन दान होने चाहिये। भवन ऐसे स्थान पर हों जहां प्रदूषण न हो, अन्यथा वहां रहने वाले लोग रोगों का शिकार हो सकते हैं। यदि वहां प्रदूषण हो तो वहां के लोगों को चाहिये कि वह संगठित होकर प्रशासन से उस प्रदूषण के निवारण के लिए अनुरोध व उसकी पूर्ति के हरसम्भव प्रयास करें। भवन में शुद्ध जल की सुविधा होनी चाहिये। भोजन के लिए व प्यास लगने पर पीने के जल के लिए घर में जलशोधक यन्त्र प्योरिफायर लगा हो, तो अच्छा रहता है। मनुष्यों को अधिकांश रोग वायु व जल के प्रदूषण से ही प्रायः हुआ करते हैं। आजकल भोजन के लिए जिन वनस्पतियों व अन्न, साग-सब्जी का हम प्रयोग करते हैं, उसमें रसायनिक व कृत्रिम खाद का प्रयोग किया जाता है। ऐसा अन्न व भोज्य पदार्थ स्वास्थ्य के अत्यन्त हानिकारक होते हैं, इनसे बचना चाहिये। भवन मे सूर्य के प्रकाश के प्रवेश का भी अधिक से अधिक प्रावधान व प्रबन्ध होना चाहिये। सूर्य का प्रकाश रोग कृमिनाशक होता है। भवन के मध्य में यदि एक यज्ञशाला बनी हो जिसमें प्रातः व सायं यज्ञ-अग्निहोत्र होता है, तो यह परिवारजनों के आध्यत्मिक, भौतिक तथा स्वास्थ्य-लाभ के लिए अतीव महत्वपूर्ण होता है। इससे घर का दुर्गन्धयुक्त प्रदूषित वायु हल्की होकर घर से बाहर निकल जाती है और बाहर के वातावरण की शुद्ध वायु का घर में प्रवेश होता है। यज्ञ की अग्नि में डाले गये घृत आदि पदार्थ सूक्ष्म होकर वायुमण्डल व आकाश में फैल जाते हैं। यज्ञ से निर्मित शुद्ध वायु व वायु में विद्यमान स्वास्थ्यवर्धक एवं रोगनिवारक गैसें प्राण व श्वांसों के द्वारा हमारे शरीर के भीतर प्रवेश करती हैं जिससे स्वास्थ्य को अधिक लाभ होने के साथ मन, आत्मा तथा बुद्धि को भी ईश्वर की ओर से प्रसन्नता व सुख का लाभ प्राप्त होता हैं। भवन में फर्श कैसे हों जिससे फिसलकर होने वाली दुर्घटनाओं से बचा जा सके, इसकी भी चर्चा होती है व उपाय बतायें जाते हैं। सस्तें निवास कैसे बन सकते हैं आदि, आधुनिक परिप्रेक्ष्य की अनेक प्रकार की जानकारियां हम भवन इंजीनियर से प्राप्त कर सकते हैं।

अब आध्यात्मिक विद्वान अपना व्याख्यान आरम्भ करते हुए बताते हैं कि हम आंखों से अपने जिस ब्रह्माण्ड को देखते हैं, वह अनन्त परिमाण वाला है। इस ब्रह्माण्ड में अनन्त संख्या में सूर्य, चन्द्र, पृथ्वियां व लोक-लोकान्तर हैं। सूर्य का प्रकाश एक सेकण्ड में 1,86,000 किलोमीटर की दूरी तय करता है। ब्रह्माण्ड में ऐसे कुछ सूर्य हैं जिनका प्रकाश हमारी पृथ्वी पर अभी तक नहीं पहुंचा है। उन सूर्यों का प्रकाष इस ब्रह्माण्ड को बने 1,96,08,53,114 वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी हमारे सौर्य मण्डल तक अभी नहीं आया है जिसका अर्थ है कि वह सूर्य हमसे 1,96,08,53,114 ग 1,86,000 ग 60 ग 60 ग 24 ग 365 किमी. से भी अधिक दूरी पर है। इससे आप इस सृष्टि की विशालता को जान सकते हैं। जब यह ब्रह्माण्ड इतना विशाल है तो इसको बनाने वाला ईश्वर कितना विशाल होगा। उसी सत्ता व शक्ति ने हमारे षरीर को भी बनाया है और उसी के द्वारा हमारे प्रारब्ध, कर्मों, आचरणों आदि के अनुसार हमें सुख व दुख प्राप्त हो रहा है। अतः प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह उस सृष्टिकर्ता ईष्वर के वास्तविक स्वरूप को जाने। वह ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि अनुपम, सर्वाधार, सर्वेष्वर, सर्वान्तरयामी, अजर, अमर, अभय, नित्य व पवित्र है। उस ईष्वर का अवतार होना सम्भव नहीं है। उसकी उपासना ध्यान व चिन्तन से ही हो सकती है। मूर्ति पूजा व अन्य किसी प्रकार से जैसा कि मत-मतान्तरों की पूजा-अर्चनायें आदि हैं, उसका प्राप्त होना असम्भव है। उसको जानने व प्राप्त करने के लिए सत्कर्मों व पवित्र कर्मों, अंहिसा व सत्य आचरण, ईश्वरोपासना, योगाभ्यास, अग्निहोत्र यज्ञ, दान, सेवा, पुण्य कर्म आदि का करना आव्यक है। हमारा स्वरूप क्या व कैसा है? वह महात्मा व आध्यात्मिक गुरू बताते हैं कि जीवात्मा सत्य, चेतन, अल्पज्ञ, अल्पशक्ति, कर्म करने मे स्वतन्त्र व फल भोगने में परतन्त्र है। हम सबका जीवात्मा अजन्मा, अनादि, अमर, एक देशी, कर्म-फल के बन्धनों में बन्धा हुआ है। अनादि काल से हम सबका जीवात्मा संसार की मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि सभी जीव-योनियों में अनेकों-अनेकों बार जन्मधारण कर युका है और अनेकों बार मोक्ष में आता-जाता रहा है। ईश्वरोपासना, योगाभ्यास आदि कर्तव्यों को करके व उनके सफल होने पर ईष्वर का साक्षात्कार कर यह जीवात्मा मनुष्य योनि में मोक्ष का अधिकारी बनता है। इसी प्रकार से प्रकृति के स्वरूप का वर्णन करते हुए वह बताते हैं कि प्रकृति प्रलायावस्था में कारण रूप में, सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था होती है। सत्व, रज व तम प्रकृति के तीन गुणों व सूक्ष्म कणों की असृष्ट अवस्था है। सृष्टि के आरम्भ में सत्व, रज व तम गुण प्रधान इस प्रकृति में ईश्वर की प्रेरणा व सामर्थ्य से विकृति होना आरम्भ होकर सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व लोक लोकान्तर आदि बनते हैं। हमारे व सभी प्राणियों के शरीर इस प्रकृति से ही बने हैं। यह प्रकृति स्वरूप व स्वभाव से जड़ है। जड़ का अर्थ अचेतन व निर्जीव होना है। अचेतन होने के कारण इसे सुख-दुख की अनुभूति नहीं होती। सुख व दुख की अनुभूति चेतन तत्व वा जीवात्मा को ही होती है जिसमें उसके पाप-पुण्य कर्म कारण होते हैं। मनुष्य जन्म का उद्देश्य सत्कर्मों के द्वारा धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करना है, ऐसा धर्म गुरू व महात्मा जी बताते हैं। इसके बाद आचार्य व अध्यापक अपना प्रवचन करते हुए शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। वह कहते हैं कि अशिक्षित व्यक्ति पशु के समान होता है। सभी मनुष्यों को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये, संस्कृत-आर्श व्याकरण व वेदादि साहित्य को पढ़ने के साथ हिन्दी, अंग्रेजी आदि भाशाओं का भी ज्ञान प्राप्त करके पश्चात गणित, विज्ञान, समाज शास्त्र, धर्मशास्त्र, राजनीति, अर्थशास्त्र, प्रबन्धन, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा व इलेक्ट्रोनिक्स आदि अन्य सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान व विद्याओं का अध्ययन करना चाहिये। वेद-विद्या को प्राप्त कर तदनुरूप ज्ञानपूर्वक पुण्य कर्म करने से मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। आयु के 50वें वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहते हुए व अपने ज्ञान व विद्या से धनोपार्जन करते हुए वैदिक जीवन पद्धति के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिये। इस प्रकार की बातें हमें यज्ञ आदि व अन्य आयोजनों के अवसर पर विद्वानों से सुनने को मिलती हैं। यह सब बातें बताने वाले वृद्ध व बुजुर्ग सज्जन होते हैं जिन्होंने अपने जीवन में व्यापक अध्ययन कर अनुभव प्राप्त किया हुआ होता है जिससे हमारा जीवन सफल बनने से कृतकार्य होता है।

अब हम परिवार के माता-पिता व दादा-दादी के विषय में विचार करते हैं। प्रायः बुजुर्ग शब्द इन्हीं के लिए प्रयोग में लाया जाता है। माता-पिता ने अपने युवावस्था में पुत्र व पुत्रियों को जन्म दिया व उनका पालन-पोषण किया। जन्म से पूर्व मां को लगभग हिन्दी के पूरे 10 महीनों तक बहुत सावधानियां रखनी पड़ती है। माता की एक छोटी सी असावधानी से बच्चे के जीवन को खतरा होता है। इस कारण इस अवधि में माता को कई प्रकार के शारीरिक व मानसिक कष्ट भी उठाने पड़ते हैं। ऐसा भोजन लेना होता है जिससे गर्भ में बच्चे का विकास व निर्माण भलीभांति हो। बच्चे के जन्म के समय तो माता को असह्य प्रसव-पीड़ा होती है जिसका मुख्य कारण सन्तान का जन्म या वह सन्तान ही होती है। जन्म के समय माता की जान को खतरा भी होता है। कुछ माताओं की तो मृत्यु तक हो जाती है और इससे पिता का जीवन कष्टमय हो जाता है। जन्म के आरम्भ के कुछ वर्षों में माता को शिशु के पालन में अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। कई रात्रियां बिना सोये जागकर बितानी पड़ती है। शैशव काल व बाद के जीवन में सन्तान को कुछ रोगों होने पर माता-पिता उनकी चिकित्सा कराते हैं और इसमें धन व्यय के अतिरिक्त मानसिक व शारीरिक कष्ट उठाते हैं। माता-पिता ने सन्तानों को शिक्षित किया जिससे भावी जीवन में वह हर प्रकार से सुखी जीवन व्यतीत कर सके। बच्चे को स्कूल ले जाना, वापिस लाना, समय पर भोजन कराना, यह ऐसे कार्य हैं, जो पैसे लेकर कोई नौकर भी नहीं कर सकता। सन्तान के विवाह योग्य होने पर उनके विवाह आदि कराते हैं। सन्तानों को अपना घर बनवा कर उसमें रखते हैं व उन्हें दूर व पास के अच्छे-अच्छे स्थानों पर घुमाने ले जाते हैं। जहां वह स्वयं रहे, वहीं अपनी सन्तानों को भी रखते हैं, जो उनके प्यार व त्याग का प्रतीक है। बच्चे का जब जन्म होता है तो सुरक्षा की दृष्टि से प्राइवेट नर्सिंग होम या निजी हॉस्पिटलों आदि में प्रसव कराया जाता है। इन स्थानों का बिल भी हजारों रूपयों या कुछ प्रसवों में एक लाख रुपये तक भी आ जाता है। माता पिता बच्चे को लेकर कोई रिक्स लेना नहीं चाहते। माता-पिता के मरने के बाद उनकी सारी सम्पत्ति सन्तानों को ही मिलती है। यदि माता-पिता की इन सब सेवाओं का आर्थिक मूल्यांकन करें व इन पर ब्याज आदि जोड़ें, तो हम समझते हैं कि कोई भी सन्तान माता-पिता द्वारा उन पर किए गये व्यय को लौटा नहीं सकती। यह तो भौतिक व आर्थिक स्थिति है। जिस भावना, प्रेम व स्नेह से व एक मन होकर उन्होंने पालन किया, उसकी तो गणना सम्भव ही नहीं है। प्रायः 60 वर्ष तक तो माता-पिता कार्य करते हीं हैं। अनेकों के पास जमा पूंजी भी होती है और कई निर्धन भी हो सकते हैं। अनेकों को पेंषन मिलती है। माता-पिता नहीं चाहते कि उन्हें अपनी सन्तानों से सेवा कराने की आवश्यकता पड़े, पर आयु बढ़ने के साथ स्वास्थ्य की समस्यायें बढ़ने लगती हैं। रोग आ घेरते हैं। पति-पत्नी में किसी एक की मृत्यु भी हो गई होती है। ऐसे अवसरों व समय में उन्हें अपेक्षा होती है कि उनकी सन्तानें अर्थात् पुत्र, पुत्र-वधु व पोते-पोतियां उनकी सेवा करें। उनको औषधियां मिले, चिकित्सकीय परामर्श मिलें, वस्त्र, सेवा, भोजन व आश्रय मिले तथा सभी से अच्छा व्यवहार मिले। माता-पिता इसके अधिकारी होते ही हैं। पहला कारण तो उन्होंने बच्चों को जन्म दिया, दूसरा पालन पोषण किया, शिक्षित किया, आश्रय दिया, अच्छे भोजन का प्रबन्ध किया व दिया व आवष्यकता पड़ने पर उनकी चिकित्सा कराई और उन्हें स्वास्थय हानि व मृत्यु आदि से बचाया, नाना प्रकार से उनके जीवन निर्वाह में सहयोग दिया और बदले में कभी कुछ नहीं चाहा व मांगा। ऐसे माता-पिता यदि आयु वृद्धि के कारण अशक्त, निराश्रय या परावलम्बी हो गये हैं तो सन्तानों का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह अपने बड़ों की सेवा-सुश्रुशा करें और उन्हें किसी प्रकार का शारीरिक व मानसिक कष्ट न होने दें। यदि वह अपने सुख-सुविधाओं के कारण माता-पिता व बड़े-बजुर्गों की उपेक्षा करते हैं, सेवा सुश्रुशा नहीं करते तो ऐसी सन्तानें सन्तानें सुपात्र न होकर, कृतघ्न, विश्वासघाती व अपराधी होती हैं। ऐसे लोगों के लिए दण्ड का प्राविधान होना चाहिये परन्तु हम अनुभव करते हैं कि इस विषय पर जो कानून व दण्ड व्यवस्था है, वह अपर्याप्त है। पहली मुख्य बात तो यह है कि सन्तानों को माता-पिता की हर सम्भव सेवा व सहायता करनी चाहिये, यदि फिर भी ऐसा नहीं होता तो ऐसे लोगों के लिए सरकार की ओर से वृद्ध-आश्रम बनाये जाने चाहिये, जहां निर्धन श्रेणी के लोगों को आश्रय देने के साथ, उनके भोजन व चिकित्सा का प्रबन्ध किया जाये तथा असहाय लोगों की नर्सिंग आदि व हर प्रकार से सहायता की जाये। समाज के लोगों को भी माता-पिता व बुजुर्गों की सेवा न करने वालों का सामाजिक बहिष्कार करने के साथ उन्हें राजकीय व्यवस्था से कानूनी व वैधानिक दण्ड दिलाने का प्रयास करना चाहिये। इसके साथ समाजिक संस्थाओं को इसके लिए सामाजिक आन्दोलन चलाना चाहिये जिससे वृद्धावस्था में किसी बुजुर्ग को कठिनाई या पीड़ा न हो।

बुजुर्गों की सेवा से सम्बन्धित हमने अपने मित्रों, परिचितों व उपदेशकों से कुछ घटनायें सुनी हैं जो उनके प्रत्यक्ष ज्ञान पर पर आधारित हैं। एक घटना में किसी सम्पन्न पुत्र ने अपने पिता को ज्वालापुर हरिद्वार के आर्य वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम में रखा हुआ था। वह बीमार हो गये और आश्रम वासियों को लगा कि उनका अन्तिम समय निकट है। पुत्र को सूचना दी गई, मुम्बई से पुत्र आया, कुछ घंटे रूका और आश्रम के अधिकारियों से बोला कि उसके पास और अधिक समय नहीं है, उसे जाना होगा। उसने यह भी कहा कि आश्रमवासी पिताजी का इलाज करायें, उस पर जो व्यय होगा, वह दे देगा। यदि पिता की मृत्यु हो जाये तो उसे न बताया जाये क्योंकि वह आ नहीं सकेगा। एक अन्य घटना देहरादून की है। आर्य समाज व शिक्षा से जुड़े देशभर में प्रसिद्ध एक विद्वान की जो डॉ. सम्पूर्णानन्द, मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश परिचित थे, उनके गुरू भी रहे, वृद्धावस्था में एक पैर की हड्डी टूट गई। उन्हें कुछ लोगों ने एक निर्सिंग होम में भर्ती करा दिया। नर्सिंग होम के निकट रह रहे आर्य समाज के एक सुहृद व्यक्ति ने उनकी सेवा की। आचार्य जी के कहने पर दिल्ली स्थित उनके पुत्र को फोन पर सूचना दी गई। पुत्र अपनी बड़ी कार में अकेला आया, पत्नी व पोते-पोतियां नर्हीं आइं। उसने प्रातः पड़ोसी आर्य महाशय के यहां स्नान आदि कर ब्रेकफास्ट आदि लिया और उनसे कहा कि उसे अब जाना है और चला गया। पिता वहीं अस्पताल में रह गये। इन बुजुर्ग आचार्यजी के तीन पुत्र थे, तीनों बाहर रहते थे। इन आचार्यजी ने देहरादून की अल्पायु की एक विधवा अशिक्षित महिला को अपनी पुत्री बनाकर पढ़ाया था। वह यहां के एक स्नात्कोत्तर महाविद्यालय में संस्कृत की विभागाध्यक्ष रहीं। वसीयत लिखते समय भी इनके साथ इन्हीं के निवास पर साथ में रहने वाली बहू पति के साथ नाराज होकर चली गयी क्योंकि आचार्यजी तीनों पुत्रों को सम्पत्ति देना चाहते थे। यह आचार्यजी युवावस्था में ही विधुर हो गये थे और पुनर्विवाह इस लिए नहीं किया कि तीन बेटे हैं, उन्हें विवाह की क्या आवष्यकता है? ऐसी घटनायें आम हो गईं हैं। देहरादून में ही घटी एक अन्य घटना स्थिति की विकरालता प्रदर्षित करती है। एक पुत्र ने अपनी पत्नी के सहयोग से अपने पिता की इस लिए हत्या कर दी कि पिता ने उसके नाम सम्पत्ति करने से मना कर दिया था। एक दूसरे प्रकरण में पिता ने पुत्र को षराब पीकर रात देर से घर आने पर समझाया या नाराज हुए। इससे खिन्न पुत्र ने पिता की हत्या कर दी। हरियाणा के एक मंत्री रहे व्यक्ति का उदाहरण जिसमें एक पुत्री ने पति के साथ मिलकर सम्पत्ति के लिए न केवल पिता की ही हत्या नहीं की अपितु कानूनी रूप से वारिस अपने भाई व उसके परिवार जिसमें पत्नी व छोटे-छोटे बच्चे भी शामिल थे, सभी की हत्या कर दी थी। इससे आज मध्यम वर्ग के युवाओं की मानसिकता का पता चलता है कि वह किस प्रकार की हो रही है। यह स्थिति बहुत ही दुखद एवं चिन्ताजनक है। हमने एक बार सुधांशु महाराज के प्रवचन में सुना था कि एक पिता अपने तीन-चार पुत्रों के व्यवहार से इतना दुखी हो गए कि सबक सिखाने के लिए उन्होंने सभी पुत्रों को परिवार सहित कुछ दिन घूमने के लिए अपने खर्चे पर किसी हिल स्टेशन पर भेज दिया और उनके जाने के बाद एक प्रापर्टी डीलर को बुला कर औने-पौने दामों में अपना बड़ा मकान बेच दिया जिसमें सभी साथ-साथ रहा करते थे। जब बच्चे हिल स्टेशन से लौटे तो चौकीदार ने उन्हें घर के बेचे जाने की सूचना दी और पिता द्वारा कुछ दिन के लिए बुक कराये गये एक होटल की बुकिंग व भुगतान की रसीदें आदि पकड़ा दी। उस पिता ने इसके बाद अपना षेष जीवन अपने पैसों से सुखपूर्वक बिताने का प्रयास किया और बच्चों को यथायोग्य सीख भी दी।

बुजुर्ग व्यक्ति यदि परिवार के साथ रहेगा तो जैनरेषन गैप जैसी समस्या के कारण उनमें सुख-शान्ति न रहने की सम्भवना रहती है। संसार की सबसे पुरानी संस्कृति व सभ्यता वैदिक सभ्यता है। यह सृष्टि के आरम्भ से ही अस्तित्व में आ गई थी। यह धर्म, संस्कृति व सभ्यता ईश्वर की देन होने के साथ इसका पल्लवन व परिवर्धन वेदानुसार ऋषि-मुनियों ने किया। उन्होंने मानव जीवन की समस्याओं को समझा था और उसके समाधान भी खोजे थे। उनका मत था कि ईश्वर का साक्षात्कार मनुष्य जीवन का प्रमुख लक्ष्य है। जब तक यह प्राप्त नहीं होता मनुष्य जन्म-जन्मान्तर में योनि-परिवर्तनों से गुजरता हुआ सुख व दुख प्राप्त करता रहता है। ऋषियों ने चार आश्रम, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास बनाये थे। इन चारों आश्रम के लिए 25-25 वर्ष की अवधि निर्धारित की गई है। 25 वर्ष तक गृहस्थ जीवन व्यतीत कर, पुत्रियों के विवाह तथा पुत्र की सन्तान हो जाने पर वन में या घर से पृथक रहने का प्रावधान वानप्रस्थ आश्रम के रूप में किया था। यहां अन्य समान आयु के लोगों के साथ रहते हुए ईष्वर प्राप्ति के लिए स्वाध्याय, तप, सेवा व योग साधना की जाती थी। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हरिद्वार के निकट ज्वालापुर स्थान में आर्य समाज द्वारा स्थापित व संचालित एक पुराना ‘आर्य वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम’ है, जहां एक व दो कमरों के सैट बने हुए है। बुजुर्ग व आयुवृद्ध दम्पति यहां सुखपूर्वक रहते हैं। जो भोजन बना सकते हैं उन्हें छूट है अथवा अल्प मूल्य पर भोजन आदि की सुविधा उपलब्ध है। यहां की दिनचर्या भी जीवन के उद्देश्य को पूरा करने में सहायक है। सभी बुजुर्ग यहां एक दूसरे का सुख-दुख बांटते हैं। इस आश्रम में रहने वाले बुजुर्ग अपने परिवारजनों के आदरणीय बन कर रहते हैं। यदि परिवार वाले न भी पूछें तो भी चिन्ता की बात नहीं हैं, क्योंकि यहां बुजुर्गों का समय सुख-शान्तिपूर्वक व्यतीत होता है। हमें लगता है कि ऐसी संस्थाओं का विस्तार होना चाहिये। सरकार को भी ऐसे आश्रम बनाकर चलाने चाहियें जिससे परिवार से दुखी व त्रस्त लोग ऐसे आश्रमों में आ कर रह सकें। वैदिक धर्म व संस्कृति में 75 वर्ष की अवस्था में संन्यास लेने का विधान है। संन्यास का अर्थ है कि परिवार से सभी प्रकार के सम्बन्ध हटा कर साधारण जनों में वैदिक धर्म का प्रचार व प्रसार करना जिससे समाज में समरसता बनी रहे। ऐसा व्यक्ति सभी का पूजनीय होता है। वह जहां भी जाता है उसे भोजन, विश्राम व आश्रय प्रदान करने के साथ गृहस्थी जन उन्हें सभी प्रकार की सुविधायें प्रदान करते हैं। वह उन्हें उपदेश देता है और आशीर्वाद देकर मात्र कुछ घंटे या एक रात्रि ही किसी परिवार में ठहरता है। हमारे देश में प्राचीन व सनातन विधानों के अनुसार अतिथि यज्ञ ज्ञानी व विद्वान संन्यासियों को सेवा-सत्कार को ही कहा जाता था, जो सभी गृहस्थ प्रसन्नापूर्वक करते थे। इससे बुजुर्गों को सम्मान व जीवन जीने की सभी सुविधायें समाज से प्राप्त हुआ करती थी।

हम आज की आधुनिक जीवनशैली में जीवन जीने वाले युवा पीढ़ी के लोगों से कहना चाहते हैं कि वह अपने माता-पिता को बोझ न समझ कर उनके स्नेह, वात्सल्य व उनके पालन पोषण में उठाये गये कष्टों का यदा-कदा चिन्तन कर लिया करें। पत्नी की वही बात स्वीकार करनी चाहिये जो उचित व न्यायपूर्ण हो। माता-पिता के मामले में उनसे पृथकता की कोई भी बात नहीं माननी चाहिये। यदि किसी कारण परिस्थितियां अनुकूल न हो तो माता-पिता को समझाकर किसी अच्छे वृद्धाश्रम में भेज देना चाहिये और नियमित रूप से उनसे मिलते रहना चाहिये। माता-पिता का सभी प्रकार का आर्थिक भार उन्हें स्वयं वहन करना चाहिये। ऐसा नहीं करेंगे तो सामाजिक दृष्टि से अपमानित होंगे और ईश्वर की न्याय व्यवस्था से भी दण्ड पायेंगे। किसी शास्त्र का वचन है कि ‘अवश्यमेव ही भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुम्’ अर्थात् किये हुए कर्मों के फल अवश्य ही भोगने पड़ेंगे। इससे कोई बच नहीं सकता। जब भी कभी विपरीत परिस्थितियां आये तो भगवान राम को याद कर उनके अनुसार अपना कर्तव्य निर्धारित करना चाहिये। वैदिक संस्कृति व जीवनशैली में पितृ-यज्ञ भी नित्य प्रति करने का विधान है, जिसका अर्थ है कि घर के वृद्ध माता-पिता आदि सभी बुजुर्गों का सेवा-सत्कार सन्तानों व परिवार अन्य सदस्यों को पूरे मनोयोग से करनी चाहिये। ऐसा न करने पर वह भावी समय में ईश्वर के द्वारा दण्ड के भागी होते हैं। यह याद रखें कि आज के युवा कल के बुजुर्ग हैं, ऐसा समय उनके अपने जीवन में भी आ सकता है।

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