कि‍सानों की आत्‍महत्‍या रोकने का रामबाण उपाय: जीरो बजट आध्‍यात्‍मि‍क कृषि

श्री सुभाष पालेकर
श्री सुभाष पालेकर
 श्री सुभाष पालेकर
श्री सुभाष पालेकर

आवि‍ष्‍कारक: कृषि‍ ऋषि‍ श्री सुभाष पालेकर कृषि वैज्ञानिक, किसान और लेखक
कृषि‍ ऋषि‍ श्री सुभाष पालेकर एक भारतीय कृषक हैं, जिन्होने जीरो बजट आध्यात्मिक कृषि‍ के बारे में अभ्यास किया है और कई पुस्तकें लिखी है। सुभाष पालेकर का जन्म वर्ष 1949 में भारत में महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में बेलोरा नाम के एक छोटे से गांव में हुआ और एक कृषि वि‍शेषज्ञ है। उन्होने ‘जीरो बजट आध्‍यात्‍मि‍क कृषि‍’ का आवि‍ष्‍कार किया है और ऐसी तकनीक विकसित की है, जिसमें कृषि‍ करने के लिए न ही किसी भी रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग नहीं किया जाता और न ही बाजार से अन्‍य औषधि‍यां खरीदने की आवश्‍यकता पड़ती है। उन्होंने भारत में इस वि‍षय पर कई कार्यशालाओं का आयोजन किया है। उन्हें वर्ष 2016 का भारत का चौथा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया है।

 

वि‍षय:

1. शिक्षा और व्यवसाय

2. नई शुरुआत

3. पुरस्कार

4. सन्दर्भ

 

शिक्षा  और व्यवसाय::

उन्होंने नागपुर से कृषि विषय में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। कॉलेज की शिक्षा के दौरान वह सातपुड़ा आदिवासी क्षेत्र में जाकर उनकी समस्याओं के बारे में आदिवासियों के साथ काम किया। पढार्इ के बाद वर्ष1972 में वह अपने पिता के साथ कृषि‍ करने लगे।उनके पिता एक किसान थे, लेकिन कॉलेज में रासायनिक कृषि‍ सीखने के बाद, श्री पालेकरजी ने अपनी कृषि‍ में रासायनिक कृषि‍ करना शुरू कि‍या।वर्ष 1972-1990 से अभ्यास करते समय वह मीडिया में इस वि‍षय पर लेख भी लिखते थे।

 

वह वेद, उपनिषद और अन्‍य प्राचीन ग्रंथों के दर्शन (प्राचीन भारतीय सोच) की ओर आकर्षित हुए। आध्यात्मिक परंपरा के संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम और संत कबीर से प्रेरित हुए जो परम सत्य की खोज भी की। इसबीच, उन्होंने गांधी और कार्ल मार्क्स को भी पढा और उनके तुलनात्मक अध्ययन भी किया। उन्होंने पाया कि कार्ल मार्क्स की सोच गांधीजी की सोच जैसी नहीं है, गांधी जी का दर्शन प्रकृति के अधिक नजदीक है। मार्क्स ने प्रकृति के स्वामित्व नियम का खंडन किया, जब उसने सुना कि रूस में कम्युनिस्ट आंदोलन के दौरान हजारों किसान की मारे गए थे, उन्होंने गांधी जी के दर्शन के अतिरिक्त कोई विकल्प न होने की बात की पुष्टि की जो सत्य और अहिंसा पर आधारित थी। महात्‍मा गांधीजी, छत्रपति‍ शिवाजी, ज्योतिबा फुले, विवेकानंद और टैगोर जैसे महान भारतीय हस्तियों ने निरपेक्ष भाव से प्राकृतिक सत्य और अहिंसा (सत्य और अहिंसा) के प्रति अपनी बुनियादी विचारधारा का निर्माण किया था। वर्ष 1972-1985 के बाद से, जब रासायनिक कृषि‍ का प्रयोग हमारे देश के कृषि उत्पादन लगातार बढा लेकिन वर्ष1985 के बाद, कृषि‍ उत्‍पादन गिरावट आना शुरू हो गई। रासायनिक कृषि‍ अर्थात हरित क्रांति की तकनीक को अपनाने के बाद भी, क्यों उत्पादन कम हो रहा है? यह देखकर वह आश्‍चर्यचकि‍त हुए। फि‍र तीन वर्षों तक उन्‍होंने इसके कारणों की तलाश करने के बाद निष्कर्ष निकाला की, दरअसल कृषि विज्ञान एक झूठे दर्शन पर आधारित है। उन्‍हें हरित क्रांति में बहुत दोष दि‍खाई दि‍ए । फिर उन्होने रासायनिक कृषि‍ के वैकल्पिक कृषि‍ पर शोध करना शुरू किया।

 

नयी शुरुआत

कॉलेज जीवन के दौरान, जब वह आदिवासी क्षेत्रों में काम कर रहें थे, तब उन्होने अपनी जीवन शैली और सामाजिक संरचना का अध्ययन किया। उन्होंने जंगलों में प्रकृति प्रणाली का अध्ययन किया। जंगल में किसी भी मानवीय हस्‍तक्षेप और सहायता को न देख कर वह हैरान रह गए । वहाँ  हर साल आम, बेर, इमली, जामुन,  शरीफा, नीम, मोह के बड़े पेड़ों को बहुत फल आते थें। तब वह उन्होने जंगल के वृक्षों के प्राकृतिक विकास पर अनुसंधान शुरू कि‍या। वर्ष 1986-88 के दौरान उन्होंने जंगली वनस्पतियों का भी अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि जंगलों में एक स्व-विकासित, स्व:यं पोषित और पूरी तरह से आत्मनिर्भर प्राकृतिक व्यवस्था विद्यमान है। वहां एक पारिस्थितिकी तंत्र  है, जि‍सपर वनस्‍पति‍यों का वि‍कास होता है। उन्होने प्राकृतिक व्यवस्था का अध्ययन किया और वर्ष 1989 से 1995 के दौरान जंगल की उन प्राकृतिक प्रक्रियाओं का अपने खेत पर परीक्षण कर देखा । इन छह वर्षों शोध कार्य के दौरान उन्‍होंने 154 अनुसंधान परियोजनाएँ पूर्ण की। इसके बाद, उन्हें  ‘जीरो बजट आध्‍यात्‍मि‍क कृषि‍’ की तकनीक आरंभ की, जि‍सका प्रचार उन्‍होंने कार्यशालाओं, सेमिनार के माध्यम से कि‍या और इस वि‍षय पर मराठी, हिंदी, अंग्रेजी, कन्नड़, तेलुगु, तमिल भाषाओं में अपनी पुस्तकें लि‍खी और भारत भर में किसानों के द्वारा स्थापित कृषि‍ के  हजारों मॉडल वि‍कसि‍त कि‍ए।

 

वर्ष 1996-98 से उन्हें पुणे, महाराष्ट्र से एक प्रसिद्ध होने वाले ‘बलीराजा’ मराठी कृषि पत्रिका की संपादकीय टीम में शामिल किया गया लेकिन, आंदोलन की गति को बढ़ाने के लिए, वर्ष 1998में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उन्होने कृषि‍ के बारे में मराठी में 20, अंग्रेजी में 4 और हिन्दी में 3 पुस्तकें लिखी। मराठी में लिखी गई पुस्तकों का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया जा रहा हैं। उनके आंदोलन ने मीडिया के जरिए राजनेता, किसानों का ग्रामीण अर्थव्यवस्था की वास्तविक समस्याओं के प्रति  ध्यान आकर्षित किया। वे मानते हैं, अब जीरो बजट आध्‍यात्‍मि‍क कृषि‍ के अलावा किसानों की आत्महत्याओं को रोकने का और कोई विकल्प नहीं है। उनका यह भी विश्वास है कि इंसान को जहरमुक्त भोजन उपलब्ध करने का एक ही तरीका है, जीरो बजट आध्‍यात्‍मि‍क कृषि‍।

 

भारत के महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, गुजरात राज्यों के 30 लाख किसान जीरो बजट आध्‍यात्‍मि‍क कृषि‍ कर रहे हैं। कर्नाटक राज्य ने उन्हें वर्ष 2005 में, एक क्रांतिकारी संत बसवराज के नाम पर दिया जाने वाला पुरस्कार श्री मृग राजेन्द्र मठ, चित्रदुर्ग  द्वारा “बसवश्री”पुसकार से सम्मानित किया था, जिसमें 1 लाख  रुपये व प्रशस्ति दिया गया।इससे पहले यह पुरस्कार दलाई लामा, अन्ना हजारे, वंदना शिवा, मेधा पाटकर, गदर, शबाना आज़मी को दिया गया था। वर्ष  2006 में  कर्नाटक राज्य रयत संघ, कर्नाटक ने  किसान संघ भारत कौशक रत्न पुरस्कार से भी उन्हें सम्मानित किया था।

 

वर्ष 2007 में उन्हें  श्री रामचद्रपुरमठ, शिमोगा कर्नाटक द्वारा भारतीय पशु संवर्धन के लिए ‘गोपाल गौरव पुरस्कार’ भी प्रदान किया गया था

 

संदर्भ:

https://palekarzerobudgetspiritualfarming.org

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