सौंह करे, भौंहन हंसे, देन कहे, नटि जाइ

क्षेत्रपाल शर्मा

आइए आज जन्माष्टमी पर प्रभु के अवतार रूप पर एक मानवीय पक्ष पर गौर करें.

सूरदास जैसा कोई शायद ही विलक्षण कवि हो, जिसने बाल पक्ष पर श्री कृष्ण की लीला गाई हो.

किसी नटखट गोपी ने कृष्ण की मुरली छिपा दी है। मुरली बजाना कृष्ण को बड़ा अच्छा लगता है। वे मुरली वापस पाने के लिये हलकान हो रहे हैं। गोपियां इशारा कर रही हैं, भौंहों के इशारे से हंस रहीं हैं देने का वायदा करती हैं लेकिन फ़िर पलट जाती हैं और मुरली वापस नहीं करतीं। वे कन्हैया से बतियाना जो चाहती हैं। यह बतियाना प्रसाद कामायनी के सर्ग और दिनकर की उर्वशी के से अलग है.

बतरस माने बातों का रस। बातों में रस। रस मतलब मनभावनी बातें। अच्छी लगने वाली बातें। कहन-सुनन चलती रहे। लगता है बातों का सिलसिला चलता रहे।

कन्हैया-गोपियां क्या बातें क्या करते होंगे इसका सिर्फ़ अनुमान ही लगाया जा सकता है। कुछ कहा नहीं जा सकता। कोई रिकार्ड नहीं मिलता इसका। लेकिन जो भी बातें करते होंगे उनका न उस समय कुछ मतलब होता होगा न आज! उनके लिये बतियाने का मतलब सिर्फ़ एक दूसरे के साथ बने रहना, जुड़े रहने का एहसास होगा। मुई मुरली बाधा बनी उनके बतरस में तो उसे रास्ते से हटा दिया। सहेलिया डाह उस समय भी होता होगा। कन्हैया की सहेली होने का मतलब यह तो नहीं होता कि सामान्य मानवीय गुणों को त्याग दे। सहेली का खून खौल जाता होगा यह देखकर कि कन्हैया के मुंह से निकलने वाले मिश्री की डली से मीठे शब्दों को मुई मुरली होंठों पर दरबान की तरह तैनात होकर रोक दे। जिनको सुनने के लिये उनके कान तरसते हों उनको उन तक पहुंचने के लिये कोई रोके यह कैसे बरदास्त कर सकती हैं कोई गोपी!

बिहारी जी का यह दोहा-

कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात

भरे भुवन में करत है नैनन ही सौं बात.

श्री कृष्ण के रस सिक्त, नैन नक्श, लोचन, मृदुलता के पर्याय हैं. 

रस के लिए जीवन में कृष्ण के पास समय बहुत कम था और रासो के लिए अधिक. बचपन का समय छोड़ दें तो चाडूर के साथ युद्ध एक अतार्किक और असमान निर्णय था जिसकी तुलना आज के अन्ना आन्दोलन से की जा सकती है कि जिसके पास शक्ति है वह जल्दी ही निरंकुश हो जाता है बहुत कम एसे होते हैं जो इस स्थिति को सहज लेते हों.

कहां चाणूर और कहां कृष्ण, कंस ऐसी ही सत्ता का नाम है जो न लोगों की बात सुनता है और न सुनना चाहता है.उसे अपने जैसे जरासंध आदि की बातें ही अच्छी लगती हैं अर्थात व्यक्ति का स्तर हो, सही मुद्दा होना कोई मायने नहीं रखता. आखिर वह स्थान परिवर्तन (द्वारका करते हैं.

संदीपनी आश्रम में कुल अठारह दिन की पाठशाला, फ़िर गो चराना. लेकिन पाश नहीं, पाश से ही पशु बंधा है. लेकिन गाएं बिना बंधी ही कहीं नहीं जातीं. तो यह पढाई थी श्रीकृष्ण की.

घनानंद ने कहा,

घन आनन्द प्यारे सुजान सुनौ,

इहं एक से दूसरो आंक नहीं

तुम कौन सी पाटी पढ़े हो लला

मन लेहु पे देहु छटांक नहीं.

इस प्रेम से जब अर्थ जीवन में निकला नहीं तो बस जिस का जो गुर था वही उन्होंने उसी पर आजमाया फ़िर चाहे वह कंस हो, चाणूर हो या कोई और. अर्थात् जो काबिज है उसे हटाने को पापड़ बेलने ही पडते हैं. घी टेढ़ी उंगली से निकला.

शोषण की सप्लाई लाइन, मक्खन की मटकी उन्होंने तोड़ दी.

जो दिव्य अस्त्र जिस विचार से जिससे लिए उसे वैसा प्रयोग कर के अस्त्र वापस कर दिए. सोच आखिर तक लेने और देने वाले का एक जैसा रहा .

और

परित्राणाय साधूनाम विनाषाय च दुष्कृताम

….साधु सिंबल है, संकेत है, आम आदमी का. कौरव इस सत्ता सन्मान के अपात्र निकले. बाहुबल, जन बल हल्का पड़ गया. पात्र को दया और दान केवल आपके घर के दरवाजे से मिलना चाहिए लेकिन अपात्र को तो कभी नहीं. जब नौबत एसी आई तो फ़िर पूरा भांडा देने को लोग उद्यत हो गए. जन्म से लेकर अंत तक, संकट ही संकट, देखिए

सूरदास जी ने कहा,

बेटा भयो वसुदेव के धाम, औ दुन्दुभि बाजत ….

उद्धव अपने समय के अच्छे पंडित थे लेकिन उनके ज्ञान को राधा और उनकी सहेलियों ने मान्यता नहीं दी. सिर्फ़ बचपन के दिनों की राधा और उनकी सखी सहेलियों की हंसी ठिठोली छोड़कर.

निष्पत्ति यह है कि श्री कृष्ण, गणेश जी की तरह, आयु वृद्ध न थे लेकिन ज्ञान वृद्ध थे.

3 COMMENTS

  1. “हिंदी कविता को भी एक स्थायी स्तम्भ के रूप में प्रवक्ता में स्थान दिया जाये.”
    Satyarthi जी के इस सुझाव की मैं पुष्टि करता हूँ।

  2. विपिन किशोर सिन्हा जी का ‘कहो कौन्तेय ‘ आनंद का अक्षय स्रोत सिद्ध हो रहा है. अब क्षेत्रपाल शर्मा जी ने हिंदी कविता के रसपान का एक द्वार खोला है मैं समझता हूँ की मेरे जैसे अनेक पाठक होंगे जो जीवनं की समस्यायों में उलझे रहने के कारण हिंदी साहित्य का रस लेने से वंचित रह गए संपादक जी से अनुरोध है की हिंदी कविता को भी एक स्थायी स्तम्भ के रूप में प्रवक्ता में स्थान दिया जाये.

  3. बहुत सुन्दर। लेख थोड़ा और बड़ा होना चाहिए था। कृष्णामृत पान करने से मन तृप्त नहीं होता।

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