डॉक्टरों और दवाइयों के बीच फँसा गरीब

woman-doctorचिकित्सा विज्ञानं के जनक ‘अरस्त्तु’ ने अपने समय में कभी सोचा भी नहीं होगा की एक दिन उनका यह प्रयास व्यवसाय में बदलकर व्यापक पैमाने पर गोरखधंधे का जरिया बन जाएगा। अस्पताल से लेकर सड़क तक कुकुरमुत्ते की तरह फैले मेडिकल नेटवर्क का जंजाल, डॉक्टरों के लिए तो ऐशो-आराम व पैसे का साधन है तो वहीँ इस देश के भूगोल से अक्सर भुला देने की कोशिश की जाने वाली गरीबों के लिए दैवीय प्रकोप है। महंगे इलाज़ से घबराकर ग्रामीण इलाकों में रहने वाली गरीब जनता बीमारी को दैवीय प्रकोप मान बैठती है और तब शुरू होता है मुर्गा-कबूतर-दारु से भूतों को संतुष्ट करने का खेल ! यही सच्चाई है आम जनता तक स्वास्थ्य सुविधाएँ पहुँचाने की दावे करने वाले राजशाहों की देश का! कहने को तो सरकारी अस्पताल में सारी सुविधाएँ मुफ्त होती है, लेकिन शायद इसकी हकीकत जानने के लिए खुद प्रधानमंत्री को स्टिंग करना पड़ेगा। बीमार होने के बावजूद लंबी-लंबी लाइनों में घंटों पसीना बहाने के बाद रोगी का रजिस्ट्रेशन होता है, फिर डॉक्टर चेम्बर का बाहर घंटो अपनी बारी का इंतज़ार करने पर जब रोगी तथाकथित भगवान के पास जाता है तो जानते हैं क्या होता है? चंद सेकंड तक स्टेथोस्कोप लगाने का दिखावा करके सीधे दवाई लिख दी जाती है, समस्या तक अच्छी तरह से नहीं सुनी जाती और हाँ बीच-बीच में MR से दवाइयों का सौदा भी कर लिया जाता है। जबकि नियमानुसार, मरीज डॉक्टर से अपनी बीमारी सम्बंधित सारे सवाल पूछ सकता है जबतक वह संतुष्ट न हो जाए और डॉक्टर को उन्हें जवाब देना बाध्य है। सरकार के पास आकड़ें बेमतलब नहीं आते की बड़ी संख्या में मरीज सरकारी अस्पतालों की जगह निजी अस्पतालों को तरजीह दे रहे हैं क्योंकि, डॉक्टर से कुछ पूछना शैतान को पत्थर मारने जैसा है, पूछने पर भूखे कुत्ते की तरह सारी खिसियाहट मरीज पर उतार देता है। और वो कुछ नहीं कर पाता क्योंकि वो गरीब है और गरीबों का कोई माँ बाप है ही नहीं! ऐसी स्थिति कमोबेश सारे सरकारी अस्पतालों की है, कुछ डॉक्टरों को छोड़कर।
सरकारी अस्पताल हो या प्राइवेट क्लीनिक, उसके डॉक्टरों की लिखी दवाइयाँ उस 500m के दायरे में ही उपलब्ध होती है, क्योंकि कंपनियों और दवा नाम के साथ-साथ डॉक्टरों की लिखावट, तीनों एक ऐसे पूरक होते हैं की वह दवा कहीं और मिलती ही नहीं। डॉक्टर अक्सर सर्दी-बुखार जैसे समस्याओं में लोगों को जेनरिक दवाइयाँ लिखने की जगह महँगी दवाइयाँ लिखते है जिसमे उनका सबसे ज्यादा कमीशन होता है, नतीज़न 5रु में ठीक होने वाली बीमारी के लिए 500 खर्च करना पड़ता है और 1000 का जांच अलग से। आखिर कहाँ जायेगी इस देश की गरीब आबादी? अमीर लोग अक्सर अपनी पहुँच का इस्तेमाल करके इमरजेंसी सेवाओं का उपयोग बड़ी आसानी और बेहतरी से कर लेते हैं, लेकिन सड़क-दुर्घटनाओं में घायल असहायों, गंभीर अवस्था में लोगों को कई सरकारी अस्पताल बड़े अस्पतालों में रेफर करके अपना पीछा छुड़ाना चाहते हैं जबकि उनका इलाज़ वही संभव होता है। सवाल है, क्या विकास के दावों के बीच-बीच में गाय-बकरी की राजनीति कर लेने वालों के लिए सड़क और पुल बना देने या बिजली ला देना ही विकास है? राज्य के PMCH, NMCH जैसे बड़े अस्पतालों में कितने लोगों को मुफ्त दवाइयाँ, पट्टियां या सुई मिलती है? कितनी नर्से मरीज़ों से सम्मानपूर्वक बात करती है? अगर जांच के लिए अस्पतालों में ही व्यवस्था है तो क्यों डॉक्टर निजी जांच केन्द्रों के पर्चे मरीज़ को देकर वहीँ जांच कराने को कहते हैं? सरकार के पास इतनी सारी मशीनरी तंत्र है तो क्यूँ वो ऐसे डॉक्टरों को शिकायतों के बावजूद भी नहीं ढूंढती या ढूँढना नहीं चाहती? गरीबों का खून चूसने वाले डॉक्टरों पर कार्रवाई क्यों नहीं होती? और कई डॉक्टर तो मरीज़ों के बीच ही चाय-पकौड़े खाते देखे जाते हैं।

कुछ समय पहले सांसद पप्पू यादव ने डॉक्टरों की मनमानी के विरुद्ध आवाज उठाई थी, लेकिन क्या हुआ उनका? डॉक्टर एसोसिएशन के गुर्राने से सरकार डर गयी और पप्पू यादव को दबा दिया गया। जहाँ तक प्राइवेट क्लीनिकों के बात है तो अगर सरकारी अस्पतालों की सुविधाएँ बेहतर हो जाए और सरकार गरीबों का खून चूसने वाले डॉक्टरों कसे जो सरकारी और अपना दोनों काम देखते हैं, तो उनकी मनमानी पर काफी हद तक रोक लग सकेगी। मुझे तो हैरानी होती है की लोगों के ज़िंदगी से जुड़ी मुद्दे से हटकर गाली-गलौज और जातिवाद पर चुनाव लड़ी जा रही है, ऐसे में न तो जनता का भला होगा न ही लोकतंत्र का। लेकिन डॉक्टरों और नेताओं के अच्छे दिन चल रहे हैं और चलेंगे भी, जबतक जनता नहीं सुधरेगी ….

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