वंचित जनजातियों की तरक्की में राह बनना होगा

– भरतचंद्र नायक

अराजकता को ही सरल भाषा में जंगल कानून कहा जाता है। लेकिन यह एक हकीकत है कि जंगल कानून को तोड़कर देश और मध्यप्रदेश के जनजाति समुदाय और स्वतंत्रता प्रेमी जनता ने ब्रिटिश शासन को कड़ी चुनौती दी थी। माना जाता है कि स्वतंत्रता प्रेमी वनवासियों की उत्कट आजादी की लालसा का दमन करने के लिए ही अंग्रेजों ने जंगल कानून बनाकर वनवासियों को उनकी बसाहटों में कैद कर दिया था। बाद में वे जंगल के मजदूर बनकर रह गये। वनोपज का अधिकार भी उनके हाथ से छिन गया। आजादी के बाद वनवासियों, आदिवासियों की सामाजिक, आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए सिर्फ उतने प्रयास किये गये जितने में माना गया कि उनका सांस्कृतिक स्वरूप अप्रभावित रहे। जंगली फूलों से मदिरा बनाकर सेवन करना उनके परंपरागत अधिकार में शामिल कर दिया गया। इससे उनमें आगे बढ़ने के बजाय परम संतोष में डूबे रहने की आदत बन गयी। सामाजिक, आर्थिक तरक्की की दिशा में वनवासी बढ़ पाने के बजाय शोषकों के शोषण का साफ्ट टारगेट बनकर रह गये। मध्यप्रदेश में वन वासियों को उनके वनभूमि पर कब्जे वाली वनभूमि पर अधिकार दिलाने की पहल साठ के दशक में तत्कालीन भारतीय जनसंघ के आंदोलन से शुरु हुई। प्रदेश में लंबी लड़ाई के बाद संविद सरकार बनने पर प्रयासों में कुछ गति मिली। लेकिन इसमें तीव्रता लाने के प्रयास अधिक कारगर नहीं हो पाये। बाद में मुरारजी भाई देसाई के नेतृत्व में जब केन्द्र में सरकार बनी, तब गंभीरतापूर्वक विचार हुआ। लेकिन सरकार अल्प जीवी थी।

नब्बे के दशक में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जब एनडीए सरकार बनी तो मंडला प्रवास पर पहुंचे अटल बिहारी वाजपेयी ने वनभूमि पर परंपरागत अतिक्रमण के मामले में वनवासियों के उत्पीड़न को नजदीक से देखा और केन्द्र में वनभूमि पर वनवासियों, परंपरागत रहवासियों के अधिकार को मान्यता दिये जाने का ऐलान किया। विधेयक बनने की प्रक्रिया जब आरंभ हुई तो कानूनी दांवपेंच में भटकने के बाद इसे डॉ.मनमोहन सिंह सरकार 2006 में अंजाम पर पहुंचा पायी है। अमल आरंभ हो चुका है और मध्यप्रदेश इसमें अग्रणी बन चुका है।

यह सच है कि अनुसूचित जनजातियों, वनवासियों के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक उन्नयन में व्यवहारिक अवरोधकों पर पहली बार भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने समग्र रूप से विचार किया और चिंता व्यक्त की। इसके लिए जनजातीय अध्ययन दल का गठन किया गया। इसमें जनजातियों का प्रतिनिधित्व करने के साथ चिंतकों और विचारकों को भी अध्ययन दल में शामिल किया गया है। राष्ट्रीय महासचिव अर्जुन मुंडा अध्ययन दल के संयोजक पूर्व केन्द्रीय अनुसूचित जनजाति मंत्री जुएल उराव, फग्‍गन सिंह कुलस्ते, अनंत नायक सदस्य और भूपेन्द्र यादव दल के सदस्य सचिव मनोनीत किये गये. मार्गदर्शक के रूप में बाल आप्टे और बापू आप्टे अध्ययन दल से संबद्ध किये गये हैं। अध्ययन दल की आनन-फानन में भोपाल में पिछले दिनों जो बैठक हुई उसमें मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के जनजाति कल्याण से जुड़े शासकीय, अशासकीय, जनप्रतिनिधियों ने पूरे मनोयोग से भाग लिया। अध्ययन दल की मुख्य अनुशंसा थी कि सदियों से शोषित पीड़ित जनजाति परिवारों की प्रगति की राह में जो भी रोढ़े हैं, उन्हें समाप्त करने के लिए हमें अब उनकी राह बनना पडेगा।

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव नरेन्द्र सिंह तोमर, प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा, बापू आपटे, मध्यप्रदेश के आदिम जाति कल्याण मंत्री विजय शाह, छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ननकी राम कंवर, मध्यप्रदेश के भाजपा प्रदेश संगठन महामंत्री माखन सिंह चौहान, भाजपा के राष्ट्रीय सचिव भूपेन्द्र यादव ने चर्चा में भाग लिया। जो खास अनुशंसाएं की गयी, उनमें सबसे प्रमुख पैसा कानून को व्यापक परिप्रेक्ष्य में अमल में लाने की आवश्यकता रेखांकित की गयी। सदस्यों का मानना था कि पंचायतस व एक्सटेंशन टू शेडयूल एरिया कानून के अमल से जनजाति अंचल की ग्राम सभाएं इतनी सशक्त होंगी कि इन समुदायों के हकों का गैर वाजिब शोषण समाप्त हो जावेगा। इसी तरह रायों में जनजाति मंत्रणा परिषद का संवैधानिक ढांचा बनाने का संविधान ने प्रावधान किया है। जनजाति मंत्रणा परिषद को इतनी शक्तियां प्रदत्त है कि इनके सक्रिय होने पर जनजाति समुदाय को किसी से अपना हक मांगने नहीं जाना पड़ेगा। प्रश्न यह है कि इन दोनों मामलों में कहां क्या अवरोध है, इसकी समीक्षा उच्च स्तर पर अब तक क्यों नहीं की गयी? जनजाति क्षेत्रों के पिछड़ेपन जनित असंतोष के कारणों को अकादमिक आधार पर बहस का मुद्दा बनाने के बजाय समाज सुधार को मूर्त रूप देना होगा। जनजाति क्षेत्रों में वैचारिक रचनात्मक आंदोलन खड़ा करने के लिए मंडल स्तर पर कुप्रवृत्तियों का आक्रामक ढंग से सामना करने के लिए सेवाभावी कार्यकर्ताओं का ढांचा खड़ा करना पड़ेगा। ट्रायबल फास्ट ट्रेक कोर्ट, ट्रायबल भूमि अधिग्रहण विशेष पैकेज, विधिक सहायता में पूर्णता, वन भूमि अधिकार पत्रों के वितरण की सामयिक समीक्षा, जिला योजना मंडल की बैठकों की तरह ही जनजाति समुदाय की समस्याओं के निवारण के लिए अनिर्वाय बैठकों का जिला वार प्रावधान करना आवश्यक है। शिवराजसिंह चौहान ने कहा कि आदिवासी भूमि अधिग्रहण के मामले में 30 वर्ष तक आजीविका की गारंटी अथवा इसी अवधि में हर माह चार हजार रु. आजीविका राशि के रूप में दिया जाना चाहिए। मध्यप्रदेश में 5 लाख रु. एकड़ से कम में भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जा सकेगा। उन्होंने नशा मुक्त गांव बनाने के लिए प्रोत्साहित किये जाने की सलाह भी दी। नक्सलवाद की आंच से बचाने के लिए जनजाति अंचल का सम्मान बचाना होगा। जनजातियों के लिए आर्थिक, सामाजिक कवच आवश्यक है। नरेन्द्र सिंह तोमर ने कहा कि जनजाति समुदाय के प्रति संवेदना नाकाफी है उन्हें बराबरी का हक मिलना चाहिए। यह सभी का कर्तव्य बन जाना चाहिए। वनवासी क्षेत्र के किशोर युवक नक्सलियों के हस्तक न ही बनने पाए इसके लिए उनके हाथों में लाभप्रद काम सौंपना होगा। विश्वास का दीपक जलाना है। प्रभात झा ने कहा कि वनवासियों का स्वतंत्रता संग्राम में अतुलनीय योगदान रहा है। उनकी शौर्य गाथाओं को प्रचारित कर उनके सुषुप्त गौरव और कर्तव्यबोध को जगानेके लिए सामाजिक बहस आरंभ कर उनसे संवाद आरंभ करना है। जनजातीय अध्ययन दल ने वनवासी जीवन की विविधता, उनके समृध्द अनुभवों, परंपरागत कौशल, बुध्दि वैभव, वनवासियों के जीवन में लाचारी, उनकी आंचलिक आकांक्षाओं का गहन अध्ययन कर उनकी महत्वाकांक्षाओं के अनुशीलन, समाधान के लिए समूचे देश को चार जोनों में विभाजित किया है। जनजातीय अध्ययन दल देश की लंबाई-चौड़ाई को नापता हुआ आदिवासी बहुल अंचल के जिलों, जनपदीय अंचलों तक में पहुंचेंगे और गहरायी से जांच-पड़ताल कर अपना प्रतिवेदन राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को सौंपेंगा जिस पर पार्टी फोरम के अलावा राजनीतिक दलों से मशविरा कर अपनी अनुशंसाएं राष्ट्रपति, केन्द्र सरकार को सौंपेगा। आशा की जाती है कि जनजातीय अध्ययन दल सुदूर अंचल में वनवासियो के मन मेंं वंचना जनित अलगाववाद की ग्रंथि को खोलने में सफल होगा। आज विचारक, बुध्दिजीवी भी इस बात पर एक मत है कि वनवासियों के मन में कहीं न कहीं कुंठा जन्म ले रही है जिसे राष्ट्र विरोधी तत्व बारुद के रूप में इस्तेमाल करने का अवसर खोज रहे हैं।

अध्ययन दल के सामने कुछ ऑंख खोलने वाले तथ्य बापू आपटे ने पेश किये जो समस्या के समाधान के प्रयासों में क्रांति कारिता ला सकते हैं। उनका मानना है कि सरकार इस विरोधा भास को स्वीकार करे कि जो देश में सबसे विपन्न वंचित (आदिवासी) है, वही रत्न गर्मा भूमि के निवासी हैं। वन संपदा उनकी सहचर है। खनिजों और वनसंपदा को दोहने के लिए उन्हें ही विस्थापित कर शरणार्थी बना दिया जाता है। उनकी करुण गाथा से कोई अपरिचित नहीं है। उत्खनन के काम आने वाली भूमि हमेशा पट्टे पर दी जावे जिससे वनवासियों का स्वत्व बना रहे. कोयला, अन्य खनिज निकालने के बाद भूमि को परित्यक्त मान लिया जाता है। यदि आदिवासियों का उस पर स्वत्व बना रहता है तो पट्टा की अवधि समाप्त होने पर वे काबिज होकर भूमि का शृंगार कर आजीविका से जुड़े रहेंगे। वनवासी क्षेत्रों में ठेकेदारी प्रथा ने शोषण, उत्पीड़न, संस्कृति के प्रदूषण के द्वार खोले हैं। इन्हें बंद करना होगा। वन संपदा खनिज संपदा में वनवासियों की भागीदारी सुनिश्चित करने का फार्मूला ईजाद किया जाता है, तो असंतोष, कुंठा को रोका जा सकेगा। उनमें वंचित होने के बजाय स्वामित्व का भाव बना रहेगा। आज जो असंतोष चिंगारी के बाद दावानल बन रही है, उसे भागीदारी, सहयोगी का भाव जगा कर अच्छी तरह शमन किया जा सकता है।

2 COMMENTS

  1. भरतचंद्र जी धन्यवाद।
    भौमिक तथ्योंसे अनजान हूं, पर लगता है, कि यह, सही दिशामें प्रयास हो रहा है।
    बहुत बार जो भी लेख पढता हूं,(उदा: भ्रष्टाचार, महिलाओंकी स्थिति इत्यादि) उसमें, समस्याका विवरण ही विवरण होता है, जिसकी वास्तवमें सभी को न्यूनाधिक जानकारी होती है।
    हर राजनैतिक पार्टीका और स्वयंसेवी संस्थाका, विशेष योगदान तो,समस्या के समाधान की दिशा में, या संभवतः क्रियान्वयन की दिशा में, ठोस कार्यवाही ही होता है; जिसके कारण हमारी आनेवाली कल सुधर जानेकी संभावना बढ जाती है।(विवेकानंदजी इसी निकषसे विकास को नापते हैं)
    इस कसौटी पर, भाजपाका, यह समस्या सुलझानेकी दिशामें प्रयास, स्तुत्य और अनुकरणीय है।हर समस्याके लिए लेखक/चिंतक/विचारक/टिप्पणीकारभी इसी प्रकार “समस्या सुलझे कैसे?” केंद्रमें रखकर वैचारिक योगदान करे, तो सकारात्मक प्रक्रियाएं प्रारंभ होंगी। हम आगे बढेंगे।प्रवक्ता का भी विशेष सकारात्मक योगदान होगा।

  2. आदिवासिओ के साथ सदा से अन्याय हुआ है. कानून तो बने किन्तु उन्हें कभी लाभ नहीं मिला. आज भी फोरेस्ट, नेशनल पार्क के नाम पर गाँव के गाँव सरकार उजाड़ रही है. किन्तु फिर भी न तो शेर, बचे न ही जंगल. जम कर भ्रष्टाचार हो रहा है. सब तरफ से पैसा ही पैसा बरस रहा है. नदिया सुखी पड़ी है. कही कही एक किलोमीटर नदी में दस दस लाखो के स्टॉप दम बन रहे है. नतीजा ढाक के तिन पात.

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