उत्तराखंड में हरीश रावत के साथ जो अब हुआ वो कांग्रेस करती ही आई है. ये उसने उत्तर प्रदेश में उसने कमलापति त्रिपाठी के साथ किया. और आज तक ब्राह्मणों को खोये हुए है. जगजीवन राम के साथ किया तो दलितों को. वाई.बी. चव्हाण के साथ करने के बाद से मराठाओं को और हरियाणा में भजन लाल के साथ किया तो 90 की विधानसभा में 64 से 40 तक सिमट आई है. उसे खुद को बनाने वालों को मिटाने की आदत है.
बेशक राजनीति में महत्वाकान्क्षायें होती हैं. उन्हें मैनेज करने की ज़रूरत भी.लेकिन कांग्रेस उन्हें आत्महत्या की तरह करती है. अगर महीन से भी महीन बहुमत में फिलहाल छ: महीने के लिए किसी सांसद को मुख्यमंत्री बना कर इस बीच गैर कांग्रेसी विधायकों को भी कांग्रेसी बना लेना ज़रूरी भी रहा हो तो भी रावत क्यों नहीं, विजय बहुगुणा ही क्यों? क्या इसलिए कि उनकी बहन ने यूपी के प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देकर राहुल गाँधी पे एहसान किया था? मान लीजिये कि बुरा बहुगुणा को भी लगता. तो भी क्या बहुगुणा भी बगावत करते? करते तो किसको मनाना ज्यादा आसान होता? कौन कितना विरोध जता सकता था? अब अगर मुख्यमंत्री हो जाते समय भी वे अपने साथ कुल जमा एक दर्जन या कहें कि एक तिहाई विधायकों को भी नहीं दिखा सके अपने शपथ ग्रहण समारोह में तो ये बात बेमानी होगी कि वे रावत से बड़े यादमदार नेता थे.
महत्वाकांक्षा कोई नई बात नहीं. विरोध का डर भी अगर था तो सवाल ये है कि कांग्रेस को वो मैनेज करना क्यों नहीं आता. नहीं आता, न सही. मगर वो दादागिरी करती क्यों दिखती है. पार्टी की बात पार्टी तक ही रहती तो भी कोई बात थी.वो दुनिया भर को क्यों बता रही है कि कुल ग्यारह विधायक आयें समारोह में बेशक मगर शपथ तो वो बहुगुआ को ही दिलाएगी. कहीं न कहीं कह रही है कांग्रेस कि बाकियों को तो वो बाद में लाएगी या ‘बताएगी’.
भाजपा के खिलाफ ज़बरदस्त एंटी-इन्कम्बैंसी को वो भुना नहीं पाती. जिन्हें जीत ही जाना चाहिए था, उन्हें जिता नहीं पाती. फिर जिन्हें साथ लेकर, कुछ न कुछ ले दे कर एकजुट दिखना चाहिए था, वो नहीं दिखा पाती. आम सहमति देहरादून में ही नहीं बन पाने के बाद वो फिर वही ‘सोनिया गाँधी जो करें वो मंज़ूर’ वाला फार्मूला लगाती है. और फिर जब सोनिया जी तय करती हैं तो राजीव गाँधी तक के राजनीति में आने के पहले से कांग्रेस को प्रदेश में खड़ा करते रहे हरीश रावत को अंगूठा दिखा देती है. नसिर्फ उन्हें, उनके साथ कम से कम अपने आधे विधायकों को.
क्या सोच कर? क्या विकल्प हैं उसके पास? क्या करेगी वो? कर सकती ही क्या है? कम से कम लोकतंत्री तरीके से तो कुछ नहीं. डरा के लाएगी और उनके बीस में से अगर पांच भी उनके साथ बच रहे तो सरकार तो बहुगुणा की सारे गैर भाजपाई विधायकों के साथ के बावजूद नहीं टिक पाएगी. ये अगर कांग्रेस को इल्हाम है तो क्या वो राष्ट्रपति शासन लगाने डर दिखायेगी? और अगर वे फिर भी नहीं माने तो क्या लगा ही देगी?
हुआ दरअसल ये है अब तक कि किसी ने कभी उस तरह से आँखें दिखाई नहीं हैं कांग्रेस को. स्वर्ण सिंह, चव्हाण, जगजीवन राम, जेल सिंह, बूटा सिंह सब ने हिम्मत नहीं दिखाई. वी.पी. सिंह ने दिखाई. वे प्रधानमंत्री हो कर गए.चंद्रशेखर भी. 64 में से कम से कम 22 हर हाल में अपने साथ खड़े विधायकों के साथ भजन लाल ने दिखाई होती तो पहले राजनीति और फिर दुनिया से यों अजनबी हो कर रुखसत न हुए होते. उनका बेटा उनका पासंग भी नहीं है मगर हरियाणा में कांग्रेस को एक तरह से हाशिये पे तो धकेल ही दिया है उसने. हरीश रावत उत्तराखंड में उससे ज्यादा नुक्सान करेंगे कांग्रेस का, अगर वे अपनी पे टिके रहे.
लोकसभा चुनाव बहुत दूर नहीं हैं. इतनी दूर तो नहीं कि आज निर्लज्जता का जो व्यवहार हो रहा है उसे लोग याद न रखें. सत्तर के सदन में कुल जमा बत्तीस विधायक. बाकी भानमती का कुनबा. वो भी एक विधायक स्पीकर हो जाए तो सदन में बहुमत बस नाममात्र का. अब ऐसे में खुद कांग्रेस की ये हालत. भगवान् ही मालिक है. इस अर्थ में भी कि जो कांग्रेस अपना घर ठीक नहीं रख सकती वो प्रदेश को ठीक क्या रखेगी? वो भी रख ले, अपनी छवि को कैसे बचाएगी? छवि उसकी ये बन रही है कि उसको लोकराज की परवाह तो है मगर लोकलाज की परवाह नहीं है. कुछ तो उसका जुलूस शपथ ग्रहण के विधायकी बहिष्कार के रूप में निकल गया है. कुछ मर्यादाएं वो हरीश रावत समर्थक विधायकों को अपने साथ लाने में तोड़ेगी और बाकी बची उसकी प्रतिष्ठा सदन में विश्वास प्रस्ताव के दिन नीलाम हो जायेगी. बहन रीता बहुगुणा जोशी के एहसान की बहुतबड़ी कीमत चुकाने जा रही है कांग्रेस. न सिर्फ उत्तराखंड, बल्कि लोकसभाचुनाव के समय पूरे देश में. भ्रष्टाचार के आरोपों से तो माफ़ी उसे मिल भी जाती शायद. अब अपने ही विधायकों पे ज़ुल्म की नहीं मिलेगी.
लोकराज जिस पार्टी से लोकलाज से नहीं चलता वो लोकतंत्र में लज्जित होकर रह जाने को अभिशप्त होती है.