बेटी बनाम समाज एक काला सच

Sशिवानन्द द्विवेदी”सहर”

भारतीय इतिहास की तमाम कहानिया भले ही वीरांगनाओं के शौर्य एवं वीरता से भरी पडी हो लेकिन वर्तमान भारतीय समाज में आज भी बेटियों के प्रति बहुसंख्यक समाज कि सोच कहीं ना कहीं समाज को शर्मसार करने वाली हैं ! दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में समाज के दमनकारी कृत्यों के कारण ज़िंदगी और मौत के बीच संघर्ष कर रही फलक की दास्तान भी इसी क्रूर समाज के काली मानसिकता को दिखाते हैं ! फलक मामले में तमाम ऐसे सवाल हैं जो आज भी हमारे सामाजिक सोच पर प्रश्न चिन्ह खडा करते हैं ! फलक को लेकर जो राज़ परत दर परत खुल रहे हैं वो कहीं ना कहीं पुरे घटना क्रम को लिंगभेद के दंश से पीड़ित समाज का एक काला रूप प्रस्तुत करते हैं ! हालाकि यह मामला महज़ फलक तक सिमित नही है बल्कि सच्चाई तो यही है की ना जाने कितनी फलक इस देश में लिंगभेद के क्रूर और अमानविक कृत्यों का शिकार होती रहती हैं !आज जब हम एक तरफ ईक्क्सवी सदी में विकसित होने का सपना सजोयें विकासशील होने का दंभ भरते नही अघा रहे तो वहीँ दूसरी तरफ हमारे समाज में फ़ैली तमाम कुरीतियों,कुप्रथाओं आदि को बढ़ावा दे रहे हैं !भारतीय समाज में लिंगभेद की की दूषित परम्परा आदिकाल से चलती आ रही है ! इतिहास गवाह कि हमारे समाज में लिंग विशेष के प्रति प्राचीन काल से दोहरा रवैया अपनाया जाता रहा है और लिंगभेद की इस दूषित भावना ने तत्कालीन समाज का एक अभद्र रूप प्रस्तुत किया है !सती-प्रथा,विधवा विवाह की गैर मान्यता आदि ऐसे सामाजिक चलन हमारे समाज में एक समय उत्पन्न हुए जो पूर्णतया एक लिंग विशेष के दमन की पुष्टि करने के पर्याप्त उदाहरण प्रस्तुत करते हैं!हालाकि तमाम सामाजिक प्रयासों के फल स्वरुप सती-प्रथा एवं विधवा विवाह की गैर मान्यता जैसे दूषित प्रथाओं से काफी हद तक निजात पाया गया लेकी मूल समस्या जो कि लिंगभेद की थी,आज भी समाज में मजबूती के साथ बरकार है ! तमाम सामाजिक विकासों के बावजूद अभी भी हमारे समाज से लिंगभेद के दूषित दंश को अलग नही किया जा सका है जिसके फल स्वरुप आज भी तमाम समस्याएँ समाज को घेरे हुए हैं ! दरअसल उपरोक्त तमाम समस्याओं पर अगर विचार करें सारे समस्याओं की जड़ में समाज की लिंगविशेष के प्रति दुर्भावना ही नज़र आती है ! लिंगभेद के चंगुल से कभी भी हमारा समाज बाहर नही निकल सका है और इसी कारण से लिंगभेद के इस पौधे से समय समय पर नए-नए सामाजिक समस्याओं के बीज अंकुरित होते रहें हैं ! लिंगभेद के इस ज़हरीले वृक्ष ने कभी समाज में सती-प्रथा और विधवा विवाह की गैर मान्यता को अंकुरित किया तो आज दहेज़-प्रथा,महिला उत्पीडन,भ्रूण ह्त्या और तमाम घरेलु हिंसाओं से समाज में ज़हर भरने का काम कर रहा है ! लिंगभेद की इस काली परम्परा का वर्तमान के सन्दर्भ में अगर सामाजिक अध्यन करें तो स्त्री वर्ग को लेकर समाज का एक ऐसा चेहरा भी देखने को मिलेगा जो बड़ा ही असामाजिक एवं कुरूप नज़र आता है !लिंगभेद की इस पारंपरिक समस्या ने हमारी सामाजिक संरचना की जड़ों को समय के साथ बदलते संसाधनों का सहारा के लेकर खोखला करने का काम किया है ! दहेज़,भ्रूण हत्या ,महिला उत्पीडन वो समस्याए हैं जिनका सरोकार पूर्णतया लिंग निहित है ! बहुत साल पहले जब हम तकनीक रूप से संपन्न नही थे तब बेटियों को जन्म के बाद मार दिया जाता था !जबकि आज जब हम तकनीक रूप से संपन्न है तो दो कदम आगे बढ़ कर समाज ने बेटियों को गर्भ में मारना शुरू कर दिया है !तकनीक और संसाधनों से संपन्न समाज ने इस कुप्रथा को समाज से हटाने की बजाय तकनीक का सहारा लेकर इसे बढाने का काम किया है ! भ्रूण ह्त्या पर बी.बी.सी के एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन दशकों में लगभग चालीस लाख से ज्यादा बच्चियों को भ्रूण ह्त्या का शिकार बनाया गया है जो कि सामाजिक,मानविक एवं किसी भी दृष्टिकोण से ठीक नही है ! लिंगभेद का इससे बड़ा उदाहरण भला क्या हो सकता है कि हम बड़ी निर्दायता से किसी मासूम से उसके जीने का अधिकार इसलिए छीन लेते हैं क्योंकि वो उस लिंग के दायरे में नही आती जिसको इस समाज ने झूठी प्रधानता दे रखी है ! बेटियों के प्रति लिंगभेद के अपराध से ग्रसित हमारा कुंठित समाज जिस तरह की भावना रखता है वो कहीं ना कहीं एक सामाजिक क्षति है,अभिशाप है एवं अपराध है ! आज समाज में लिंगभेद की दुर्भावना कुछ इस तरह बलवती हो चुकी है कि तमाम बेटी के जन्म से पहले ही उसके खिलाफ सामाजिक साजिशें शुरू हो जाती हैं ! ये साजिशें सिर्फ उसके जन्म लेने तक सिमित नही रहती बल्कि जन्म लेने की बाद भी आज बहुसंख्यक समाज द्वारा उसके पालन-पोषण,प्राथमिक शिक्षा आदि को हाशिये पर रखा जाता है ! आज जीवन के मूल अधिकारों जैसे शिक्षा,अभिव्यक्ति आदि के मामले में भी बेटियों को द्वितीय वरीयता पर रखकर समाज खुद को पुरुष प्रधान साबित करने का दंभ भर रहा है !समाज का यह एक कड़वा सच है कि बहुसंख्यक समाज द्वारा बेटे और बेटी के बीच शिक्षा जैसी मूल जरुरत में भी भेद किया जाता है ! कहीं ना कहीं हर कदम पर हमारे समाज द्वारा परम्परा के नाम पर बेटियों के अधिकारों का दर्प दमन किया जा रह है जो समाज के लिए बहुत ही घातक साबित हो सकता है !आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि आज भी लिंग के आधार पर अगर शिक्षा का स्तर देखें तो पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के शिक्षा का स्तर काफी नीचे है जो कि इस बात का प्रमाण भी है कि हमारी शिक्षा जैसी मूल सामाजिक अनिवार्यता भी लिंगभेद के दंश से अछूती नही है ! बेटियों के पैरों में सामाजिक दायरों की ना जाने कितनी बेड़िया समाज द्वारा कदम कदम पर बांधी जाती हैं कि उनकी ज़िंदगी पर मानो उनका नही सामाजिक दायरों का ही अधिकार हो ! बचपन से ही बेटियों को सामाजिक दायरों का पाठ पढ़ाना हमारे समाज का प्रिय शगल बन चुका है ! बचपन से दायरों का पाठ पढ़ती हाशिये पर जी रही बेटी को एक ऐसे नाज़ुक मोड़ का सामना भी करना पढ़ता है जब समाज की परम्पराओं द्वारा उसको स्वीकार करने की खुलेआम कीमत लगायी जाती है ! दहेज़ नामक इस कुप्रथा ने तो मानो रिश्तों की बुनियाद सौदों पर आधारित करके रख दी हो ! हाल ही में बिहार के नवादा में दहेज़ के नाम पर विभा कुमारी की ह्त्या भी कहीं ना कहीं हमारे समाज के इस सच को उजागर करने के लिए पर्याप्त है की आज भी हमारा समाज लिंगभेद के ग्रास से बाहर नही आ पाया है और ना जाने कितनी युवतियां हाथों की मेहदे उतरने से पहले दहेज़ के प्रकोप में जला दी जाती हैं !दहेज़ भी इसी लिंगभेद के सामाजिक ज़हर का परिणाम है जो व्यापक तौर पर समाज में मौजूद है ! दहेज़ पर भले ही हमारे प्रशासन द्वारा क़ानून बनाकार इसे अपराध की श्रेणी में रखा गया हो लेकिन आज इस समाज में यह क़ानून कितना सफल है ये तो सर्वविदित है ! दहेज़ के नाम पर ना जाने कितने बलिदान प्रत्येक वर्ष बेटियों के हो रहे हैं इसका आकलन भी करना मुश्किल है ! बड़ी विडम्बना तो ये भी है कि दहेज़ के बोझ में दबे बाप की हर कसक कहीं ना कहीं बेटी के आँखों के आसुओं से चुकाई जाती है ! आज घरेलु हिंसा की बढ़ती घटनाओं के लिए दहेज़ एक प्रमुख कारण है ! दहेज़ के नाम पर सिर्फ ग्रामीण क्ष्तेरों में ही नही बल्कि दिल्ली जैसे महानगरों में भी उत्पीडन की घटनाएँ आम सुनने में आती हैं ! मुश्किल है यह बताना कि दहेज़ के नाम पर ना जाने कितनी सिसकिया को घर के चार दीवारी में ही दबा दिया जाता है ! आज देश की अस्सी प्रतिशत शादियाँ दहेज़ के सौदे की बुनियाद पर होती हैं !

उपरोक्त सभी सामाजिक कुरीतियों के पीछे कहीं ना कहीं परम्परागत रूप से चले आ रहे लिंगभेद की काली मानसिकता का ही बोध होता है ! आज बेटियों के प्रीति सामाजिक दोहरे रवैये के लिए ऐसा कतई नही की सिर्फ पुरुष समाज ही जिम्मेदार है ! आज लिंगभेद के इस दोष में सम्पूर्ण, समाज जिसमे पुरुष एवं स्त्रियएं दोनों आते हैं,बराबर रूप से जिम्मेदार हैं ! आज घरेलु हिंसा और महिला उत्पीडन के मामलों में ज्यादातर संलिप्तता घर की महिलाओं की ही पायी जाती है ! लिंगभेद को लेकर समाज में एक गलत अभिधारणा पुरुष समाज को लेकर व्याप्त है जो बिलकुल निराधार है !यह सच है की लिंगभेद एक ऐसी समस्या है जो आज समाज के स्त्री पुरुष हर वर्ग को अपने चपेट में ले रखी है लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि लिंगभेद की इस दुर्भावना का शिकार स्त्री वर्ग को ही होना पडा है और समाज के हर वर्ग द्वारा स्त्री को ही हाशिये पर रखने का प्रयास किया गया है ! आज हमारे समाज को लिंगभेद की इस कुत्सित मानसिकता से बाहर आने की जरुरत है ! बेटे और बेटी में फर्क को ख़तम करने की जरूरत है एवं जीवन के तमाम संसाधनों को दोनों के लिए बराबर उपलब्ध कराने की जरूरत है ! समाज के साकारात्मक पहलुओं से सीख लेते हुए तमाम ऐसी बेटियों पर गर्व करने की जरुँरत है जो कहीं ना कहीं अपने योग्यता और कामयाबी का परचम लहरा रही हैं ! ऐसा कतई नही है कि बेटियों के लिए समाज में कोई अलग दयारा है बल्कि साकारात्मक पहलू से देखे तो आज बेटियां पत्रकारिता ,इनजिनियरिंग , मेडिकल,सेना,पुलिस एवं तमाम क्षेत्रों में अपनी कामयाबी के परचम फहरा रही है ! ऐसे में हमें लिंगभेद की कुत्सित सोच से ऊपर उठते हुए समाज निर्माण की दिशा में बेटियों को भी बराबर अवसर उपलब्ध कराने की जरूरत है तभी राष्ट्र एवं समाज का सर्वांगीण विकास संभव है ! लिंगभेद के इस कुत्सित मानसिकता से छुटकारा पाए बिना हम एक स्वस्थ,दहेज़ मुक्त ,हिंसा मुक्त परिवार की संकलपना भी नही कर सकते !

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