सच्चे आध्यात्मिक श्रम से अभ्युदय व निःश्रेयस की प्राप्ति

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मनमोहन कुमार आर्य-

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ईश्वर ने मनुष्य को ऐसा प्राणी बनाया है जिसमें शक्ति वा ऊर्जा की प्राप्ति के लिए इसे भोजन की आवश्यकता पड़ती है। यदि इसे प्रातः व सायं दो समय कुछ अन्न अर्थात् रोटी, सब्जी, दाल, कुछ दुग्ध व फल आदि मिल जायें तो इसका जीवन निर्वाह हो जाता है। भोजन के बाद वस्त्रों की आवश्यकता भी होती है। भोजन व वस्त्रों को प्राप्त करने के लिए धन की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही निवास के लिए अपना व किराये का घर भी चाहिये होता है। अब इन सबके लिए धन अर्जित करने के लिए उसे श्रम करना पड़ता है। यदि नहीं करेगा तो धन प्राप्त नहीं होगा जिसका परिणाम होगा जीवन निर्वाह में बाधा। अब वह क्या कार्य करे कि जिससे आवश्यकता के अनुसार धन प्राप्त हो? इसके लिए अनेक कार्य हैं जिन्हें वह कर सकता है। इसके लिए शिक्षा व किसी कार्य के अनुभव की आवश्यकता होती है। माता-पिता इसी कारण अपनी सन्तानों को अच्छी शिक्षा देते हैं जिससे वह कोई अच्छा सम्मानित कार्य कर अपनी व अपने परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें।

आजकल बच्चे कक्षा 12 तक पढ़-लिख कर आगे डाक्टर, इंजीनियर, मैनेजमेन्ट आदि के कोर्स करते हैं। इसमें उत्तीर्ण होने पर अच्छी नौकरी मिल जाती है जिससे जीवन की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होने के साथ मनुष्य समाज में सम्मानित जीवन व्यतीत करता है। जो लोग इन महगें कोर्सों व उपाधियों को प्राप्त नहीं कर पाते वह इण्टर, स्नातक व स्नात्कोत्तर उपाधियां प्राप्त कर व कुछ अन्य प्रशिक्षण आदि प्राप्त कर सरकारी, निजी कार्य या प्राइवेट नौकरियां करते हैं। कुछ अशिक्षित, अल्प शिक्षित और शिक्षित भी कृषि या श्रमिक का कार्य भी करते हैं और इनमें भी कुछ कार्यों को सीख कर अच्छा धन उपार्जित करते हैं। हमने देखा है कि कई हलवाई, प्रापर्टी डिलर, दूध के व्यापारी, खिलाड़ी, कलाकार व राजनीति से जुड़े व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न हैं। इतने सम्पन्न हैं कि ऊंची शैक्षिक योग्यता रखने वाले व बड़े पदों पर कार्य करने वाले व्यक्ति भी नहीं हैं। हमारा यह लिखने का तात्पर्य केवल यह बताना है कि नाना प्रकार के कार्यों को करके लोग धन कमाते हैं और फिर उसके अनुसार सुविधा सम्पन्न या साधारण जीवन व्यतीत करते हैं। जो व्यक्ति जो कार्य कर रहा है उसे उसका उचित पारिश्रमिक या वेतन मिलना चाहिये। कहीं कुछ अधिक मिलता है और कहीं बहुत कम, अर्थात श्रम का शोषण हुआ करता है। इस शोषण को समाप्त करने और श्रम के दिन, समय व अवकाश आदि की सुविधा दिलाने के लिए श्रम संगठन बने हुए हैं। इन संगठनों ने मजदूर व श्रमिकों की उनकी अनेक न्यायोचित मांगें सरकार व उद्योगपतियों आदि से स्वीकार करवाई हैं जिनसे मजदूरों व अन्य सेवारत मनुष्यों का जीवन सुखद बना है। इन सभी प्रकार के व्यवसाय जो मनुष्य करते हैं, उनमें देखा जाता है कि मनुष्य अपनी योग्यता व श्रमशक्ति से कार्य करता है जिसका उसे धन के रूप में कमपैन्शेसन, पारिश्रमिक, मजदूरी या वेतन मिलता है। मनुष्य जो श्रम के द्वारा कार्य करते हैं वह दूसरे मनुष्यों के काम आने वाली वस्तुओं व सुविधाओं आदि से जुड़ा होता है। यहां हम इन सभी कार्यों से भिन्न आध्यात्म से जुड़े श्रम की भी कुछ चर्चा कर रहे हैं।

अध्यात्म में इस प्रश्न पर विचार किया गया है कि यह संसार किसके द्वारा, किसके लिए व किस वस्तु से बना है। इसके बाद मनुष्य विषयक कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नों, कि मैं कौन हूं, मेरा उद्देश्य क्या है और उस उद्देश्य की प्राप्ति के साधन और साध्य क्या हैं? इन प्रश्नों पर विचार किया गया है और इनके उत्तर ढूढें गये हैं। इन प्रश्नों और इनके उत्तरों से आज का सारा संसार अनभिज्ञ है, यह आश्चर्य एवं दुःख की स्थिति है। देश विदेश के सभी मनुष्यों को इन प्रश्नों से कोई भी सरोकार प्रतीत नहीं होता। हमारा अध्ययन यह बताता है कि यह सभी मनुष्यों के लिए समान रूप से जीवन के महत्वपूण प्रश्न हैं, इन पर प्रत्येक बुद्धिमान कहे जाने वाले मनुष्य को अवश्य ही विचार करना चाहिये। या तो वह स्वयं इनके उत्तर बतायें अथवा दर्शनों आदि ग्रन्थों में तर्क, युक्ति व ऊहापोह से जो उत्तर खोजे गये हैं, उनका खण्डन करे या यथावत् स्वीकार करे। यदि वह ऐसा नहीं करता तो फिर यही माना जायेगा कि वह व्यक्ति मनुष्य = मननशील नहीं है। अतः ऐसे मनुष्य, मनुष्य न होकर पशु समान है जिसका उद्देश्य पशुओं की तरह केवल इन्द्रिय सुख के कार्य करना मात्र है। इन प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर हम दे रहे हैं। संसार में तीन पदार्थों ईश्वर, जीव व प्रकृति का अस्तित्व है जो नित्य, अनादि, अनुत्पन्न, सनातन, अमर, अविनाशी गुणों वाले हैं। ईश्वर ने प्रकृति को उपादान कारण के रूप में प्रयोग कर इस संसार को बनाया है। ईश्वर व जीव अर्थात् जीवात्मायें चेतन तत्व हैं। ईश्वर सत्य-चित्त-आनन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वातिसूक्ष्म पदार्थ है। जीवात्मा एक चेतन तत्व, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, अजर, अमर आदि गुणों वाला है जो अपने कर्मानुसार बार बार जन्म लेता है व मृत्यु को प्राप्त होता है। मृत्यु के बाद पुनः इसका जन्म होता है जिसे पुनर्जन्म के नाम से जानते हैं। मैं कौन हूं, इस प्रश्न का उत्तर है कि मैं एक जीवात्मा हूं जिसका स्वरूप पूर्व पंक्ति में प्रस्तुत किया गया है। अब मेरा व हमारा उद्देश्य क्या है? इसका उत्तर देते हैं। उद्देश्य जीवात्मा का उन्नति करना है। उन्नति अच्छे कर्मों को करके होती है। जैसे विद्यार्थी को अपने विषय की पुस्तकों का ज्ञान प्राप्त कर परीक्षा में उत्तीर्ण होना पड़ता है। इसी प्रकार जीवात्मा को अच्छे कर्म करके जिनमें सेवा, परोपकार, यज्ञ, माता-पिता-आचार्य व अतिथियों की सेवा आदि कार्यों सहित नियत समय में ईश्वर को जानकर उसके सत्यस्वरूप में अवस्थित हो उसकी स्तुति व प्रार्थना को करना होता है। इन कार्यों को करके जीवात्मा की उन्नति होती है। मनुष्य की वह अध्यात्मिक उन्नति किस प्रकार की है? वह ऐसी है कि इससे समस्त दुःखों की निवृत्ति स्वार्जित ज्ञान व ईश्वर द्वारा होती है। इससे मनुष्य बार बार के जन्म व मृत्यु के चक्र से छूटकर लम्बी अवधि के लिए मुक्त होकर ईश्वर के सान्निध्य में रहकर सुख भोगता है।

यदि मजदूरी व श्रम की तरह अध्यात्मिक श्रम की बात करें तो अध्यात्मिक श्रम ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना सहित धार्मिक लाभों सुख, शान्ति, जन्मोन्नति व मोक्ष के लिए किए जाने वाले कार्य हैं। जो लाभ एक मजदूर व व्यवसायी को भोजन, आवास, वाहन, पूंजी, यात्रा आदि से प्राप्त होता हैए वह व उससे अधिक सुख व आनन्द आध्यात्मिक श्रम अर्थात् ईश्वरोपासना, सेवा व परोपकार आदि कार्यों से आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने वाले मनुष्यों को मिलता है। यह बात केवल काल्पनिक नहीं है अपितु इसका विस्तृत वर्णन एवं क्रियात्मक ज्ञान हमारे वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है। जो व्यक्ति इस आध्यात्मिक श्रम व साधना को करता है उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति सासांरिक जीवन जीने वाले गृहस्थी व सज्जन पुरूषों से प्राप्त साधनों व धन आदि से हो जाती है। हम स्वामी दयानन्द जी के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि उन्होंने 22 वर्ष की अवस्था में अपने पिता का सुख-सुविधाओं से सम्पन्न घर छोड़ा था। उसके बाद वह मृत्यु पर्यन्त देशाटन करते हुए योग्य शिक्षकों, गुरूओं, आचार्यों, योगियों व यतियों आदि सहित सद्ग्रन्थों की खोज करते रहे और उनसे जो ज्ञान आदि पदार्थ मिलते थे उसका अभ्यास व अध्ययन कर उन्हें स्मरण कर लेते थे। उनकी भौतिक पूंजी मात्र एक कौपीन या लंगोट थी। त्याग भावना इस कदर थी कि उन्होंने अपने लिए दूसरा लंगोट तक नहीं लिया था। भोजन कभी मांगा नहीं, यदि किसी ने पूछा और स्वेच्छा से प्रदान किया, तो कर लेते थे। उनका स्वास्थ्य एक आदर्श मनुष्य के जैसा था और बल भी सामान्य व बलवानों से अधिक ही था जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उन्हें भोजन भी मिलता ही था। जिस प्रकार से धनाभाव होने पर हम निराश हो जाते हैं, ऐसा महर्षि दयानन्द के जीवन में देखने को नहीं मिलता। वह सदैव सन्तुष्ट रहते थे। गुरू की आज्ञा से जब वह सन् 1863 में कार्य क्षेत्र में उतरे तो उसके बाद उनके इतने सहायक बन गये कि उनकी सभी आवश्यकताओं का ध्यान रखते थे। सभी सांसारिक लोग जो उनके विचारों से प्रभावित होते थे, जिसमें कई स्वतन्त्र राज्यों के राजा-महाराजा भी थे, वह उनका आतिथ्य कर प्रसन्न होते थे और उनके द्वारा सम्पादित धर्म प्रचार के कार्यों में सर्वात्मा सहयोग भी करते थे। स्वामीजी ने अनेक लोगों को लेखक, पाचक, सेवा के साथ पाठशाला के संस्कृत शिक्षक, परोपकारिणी पे्रस के प्रबन्धक व अन्य कर्मचारियों के रूप में व्यवसाय भी दिया हुआ था और अपने सहायक कर्मचारियों को उचित व सन्तोषजनक वेतन देते थे और सबका सम्मान भी करते थे। इनके जीवन से शिक्षा लेकर सभी धर्म सम्बन्धी कार्यों को जिसमें योग प्रचार भी सम्मिलित कर सकते हैं, आध्यात्मिक श्रम में सम्मिलित कार्य हैं और इससे जीवन को सुखी व निरोग बनाया जा सकता है।

मई दिवस को ध्यान में रखते हुए इस लेख में हमने सांसारिक श्रम व आध्यात्मिक श्रम की चर्चा की है। हम अनुभव करते हैं कि आज के आधुनिक युग व परिस्थितियों में इन दोनों प्रकार की जीवन शैलियों का समन्वय ही सच्चा आध्यात्मिक-श्रम से युक्त जीवन हो सकता है। हम सांसारिक शिक्षा से ज्ञान, योग्यता व अनुभव प्राप्त करें और व्यवसाय के लिए किसी अच्छे कार्य व सेवा को चुने। उससे धन उपार्जन करें और इसके साथ अपने जीवन में यथासमय ईश्वरोपासना, यज्ञ-अग्निहोत्र, सेवा, परोपकार, माता-पिता-आचार्य-अतिथि सेवा आदि के कार्य भी करते रहें जिससे सभी प्रकार के आध्यात्मिक लाभ भी हमें प्राप्त हों। आज की परिस्थितियों में यही सन्तुलित जीवन कहा जा सकता है। धर्म व अध्यात्म के क्षेत्र में देश में अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियों भी फैली हुई हैं जिससे बचने के लिए विवेक की आवश्यकता है। यह विवेक महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों सहित अन्य सद्ग्रन्थों के अध्ययन से प्राप्त होगा। अध्यात्म वा सद्धर्म की जीवन में उपेक्षा बहुत हानिकारक व महगीं सिद्ध होगी। इस पर सभी को व्यापक दृष्टि से विचार कर सही मार्ग का चयन करना और उसी पर चलना जीवन का ध्येय होना चाहिये

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