सत्य के प्रतीक : भगवान परशुराम

Bhagwan_Parshuramडा. राधेश्याम द्विवेदी

‘परशु’ पराक्रम का प्रतीक है । ‘राम’ सत्य सनातन का पर्याय है । इस प्रकार परशुराम का अर्थ पराक्रम के कारक और सत्य के धारक हुआ। शास्त्रोक्त मान्यता है कि परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं, अतः उनमें आपादमस्तक विष्णु ही प्रतिबिंबित होते हैं, ‘परशु’ में भगवान शिव समाहित हैं और ‘राम’ में भगवान विष्णु। इसलिए परशुराम अवतार भले ही विष्णु के हों, किंतु व्यवहार में समन्वित स्वरूप शिव और विष्णु का है। इसलिए परशुराम दरअसल ‘शिवहरि’ हैं। पिता जमदग्नि और माता रेणुका ने तो अपने पाँचवें पुत्र का नाम ‘राम’ ही रखा था, लेकिन तपस्या के बल पर भगवान शिव को प्रसन्ना करके उनके दिव्य अस्त्र ‘परशु’ (फरसा या कुठार) प्राप्त करने के कारण वे राम से परशुराम हो गए। ‘परशु’ प्राप्त किया गया शिव से। शिव संहार के देवता हैं। परशु संहारक है, क्योंकि परशु ‘शस्त्र’ है। राम प्रतीक हैं विष्णु के। विष्णु पोषण के देवता हैं अर्थात् राम यानी पोषण/रक्षण का शास्त्र। शस्त्र से ध्वनित होती है शक्ति। शास्त्र से प्रतिबिंबित होती है शांति। शस्त्र की शक्ति यानी संहार। शास्त्र की शांति अर्थात् संस्कार। मेरे मत में परशुराम दरअसल ‘परशु’ के रूप में शस्त्र और ‘राम’ के रूप में शास्त्र का प्रतीक हैं। एक वाक्य में कहूँ तो परशुराम शस्त्र और शास्त्र के समन्वय का नाम है, संतुलन जिसका पैगाम है।
अक्षय तृतीया को जन्मे हैं, इसलिए परशुराम की शस्त्रशक्ति भी अक्षय है और शास्त्र संपदा भी अनंत है। विश्वकर्मा के अभिमंत्रित दो दिव्य धनुषों की प्रत्यंचा पर केवल परशुराम ही बाण चढ़ा सकते थे। यह उनकी अक्षय शक्ति का प्रतीक था, यानी शस्त्रशक्ति का। पिता जमदग्नि की आज्ञा से अपनी माता रेणुका का उन्होंने वध किया। यह पढ़कर, सुनकर हम अचकचा जाते हैं, अनमने हो जाते हैं, लेकिन इसके मूल में छिपे रहस्य को/सत्य को जानने की कोशिश नहीं करते। स्वाभाविक बात है कि कोई भी पुत्र अपने पिता के आदेश पर अपनी माता का वध नहीं करेगा। फिर परशुराम ने ऐसा क्यों किया? इस प्रश्न का उत्तर हमें परशुराम के ‘परशु’ में नहीं परशुराम के ‘राम’ में मिलता है। आलेख के आरंभ में ही ‘राम’ की व्याख्या करते हुए कहा जा चुका है कि ‘राम’ पर्याय है सत्य सनातन का। सत्य का अर्थ है सदा नैतिक। सत्य का अभिप्राय है दिव्यता। सत्य का आशय है सतत् सात्विक सत्ता।
परशुराम दरअसल ‘राम’ के रूप में सत्य के संस्करण हैं, इसलिए नैतिक-युक्ति का अवतरण हैं। यह परशुराम का तेज, ओज और शौर्य ही था कि कार्तवीर्य सहस्रार्जुन का वध करके उन्होंने अराजकता समाप्त की तथा नैतिकता और न्याय का ध्वजारोहण किया। परशुराम का क्रोध मेरे मत में रचनात्मक क्रोध है। जैसे माता अपने शिशु को क्रोध में थप्पड़ लगाती है, लेकिन रोता हुआ शिशु उसी माँ के कंधे पर आराम से सो जाता है, क्योंकि वह जानता है कि उसकी माँ का क्रोध रचनात्मक है। मेरा यह भी मत है कि परशुराम ने अन्याय का संहार और न्याय का सृजन किया।
श्रीमद्भागवत महापुराण में कहा जा चुका है – रेणुका के गर्भ से जमदग्नि ऋषि के वसुमान आदि कई पुत्र हुए। उनमें सबसे छोटे परशुरामजी थे। उनका यश सारे संसार में प्रसिद्ध है। कहते हैं कि हैहयवंश का अन्त करने के लिये स्वयं भगवान ने की परशुराम के रूप में अंशावतार ग्रहण किया था। उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियहीन कर दिया। यद्यपि क्षत्रियों ने उनका थोड़ा-सा ही अपराध किया था-फिर भी वे लोग बड़े दुष्ट, ब्राह्मणों के अभक्त, रजोगुणी और विशेष करके तमोगुणी हो रहे थे। यही कारण था कि वे पृथ्वी के भार हो गये थे और इसी के फलस्वरूप भगवान परशुराम ने उनका नाश करके पृथ्वी का भार उतार दिया।
राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन! अवश्य ही उस समय के क्षत्रिय विषयलोलुप हो गये थे; परन्तु उन्होंने परशुरामजी का ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया, जिसके कारण उन्होंने बार-बार क्षत्रियों के वंश का संहार किया।
श्री शुकदेवजी कहने लगे- परीक्षित! उन दिनों हैहयवंश का अधिपति था अर्जुन। वह एक श्रेष्ठ क्षत्रिय था। उसने अनेकों प्रकार की सेवा-शुश्रूषा करके भगवान नारायण के अंशावतार दत्तात्रेयजी को प्रसन्न कर लिया और उनसे एक हज़ार भुजाएँ तथा कोई भी शत्रु युद्ध में पराजित न कर सके- यह वरदान प्राप्त कर लिया। साथ ही इन्द्रियों का अबाध बल, अतुल सम्पत्ति, तेजस्विता, वीरता, कीर्ति और शारीरिक बल भी उसने उनकी कृपा से प्राप्त कर लिये थे। वह योगेश्वर हो गया था। उसमें ऐसा ऐश्वर्य था कि वह सूक्ष्म-से-सूक्ष्म, स्थूल-से-स्थूल रूप धारण कर लेता। सभी सिद्धियाँ उसे प्राप्त थीं। वह संसार में वायु की तरह सब जगह बेरोक-टोक विचरा करता।
एक बार गले में वैजयन्ती माला पहने सहस्त्रबाहु अर्जुन बहुत-सी सुन्दरी स्त्रियों के साथ नर्मदा नदी में जल-विहार कर रहा था। उस समय मदोन्मत्त सहस्त्रबाहु ने अपनी बाँहों से नदी का प्रवाह रोक दिया। दशमुख रावण का शिविर भी वहीं कहीं पास में ही था। नदी की धारा उलटी बहने लगी, जिससे उसका शिविर डूबने लगा। रावण अपने को बहुत बड़ा वीर तो मानता ही था, इसलिये सहस्त्रार्जुन का यह पराक्रम उससे सहन नहीं हुआ। जब रावण सहस्त्रबाहु अर्जुन के पास जाकर बुरा-भला कहने लगा, तब उसने स्त्रियों के सामने ही खेल-खेल में रावण को पकड़ लिया और अपनी राजधानी माहिष्मती में ले जाकर बंदर के समान कैद कर लिया। पीछे पुलस्त्यजी के कहने से सहस्त्रबाहु ने रावण को छोड़ दिया।
एक दिन सहस्त्रबाहु अर्जुन शिकार खेलने के लिये बड़े घोर जंगल में निकल गया था। दैववश वह जमदग्नि मुनि के आश्रम पर जा पहुँचा। परम तपस्वी जमदग्नि मुनि के आश्रम में कामधेनु रहती थी। उसके प्रताप से उन्होंने सेना, मन्त्री और वाहनों के साथ हैहयाधिपति का देखा कि जमदग्नि मुनि का ऐश्वर्य तो मुझसे भी बढ़ा-चढ़ा है। इसलिये उसने उनके स्वागत-सत्कार को कुछ भी आदर न देकर कामधेनु को ही ले लेना चाहा। उसने अभिमानवश जमदग्नि मुनि से माँगा भी नहीं, अपने सेवकों को आज्ञा दी कि कामधेनु को छीन ले चलो। उसकी आज्ञा से उसके सेवक बछड़े के साथ ‘बाँ-बाँ’ डकराती हुई कामधेनु को बलपूर्वक माहिष्मतीपुरी ले गये।
जब वे सब चले गये, तब परशुरामजी आश्रम पर आये और उसकी दुष्टता का वृत्तान्त सुनकर चोट खाये हुए साँप की तरह क्रोध से तिलमिला उठे। वे अपना भयंकर फरसा, तरकस, ढाल एवं धनुष लेकर बड़े वेग से उसके पीछे दौड़े- जैसे कोई किसी से न दबने वाला सिंह हाथी पर टूट पड़े। सहस्त्रबाहु अर्जुन अभी अपने नगर में प्रवेश कर ही रहा था कि उसने देखा परशुरामजी महाराज बड़े वेग से उसी की ओर झपटे आ रहे हैं। उनकी बड़ी विलक्षण झाँकी थी। वे हाथ में धनुष-बाण और फरसा लिये हुए थे, शरीर पर काला मृगचर्म धारण किये हुए थे और उनकी जटाएँ सूर्य की किरणों के समान चमक रही थीं। उन्हें देखते ही उसने गदा, खड्ग बाण, ऋष्टि, शतघ्नी और शक्ति आदि आयुधों से सुसज्जित एवं हाथी, घोड़े, रथ तथा पदातियों से युक्त अत्यन्त भयंकर सत्रह अक्षौहिणी सेना भेजी।
भगवान परशुराम ने बात-की-बात में अकेले ही उस सारी सेना को नष्ट कर दिया। भगवान परशुरामजी की गति मन और वायु के समान थी। बस, वे शत्रु की सेना काटते ही जा रहे थे। जहाँ-जहाँ वे अपने फरसे का प्रहार करते, वहाँ-वहाँ सारथि और वाहनों के साथ बड़े-बड़े वीरों की बाँहें, जाँघें और कंधे कट-कटकर पृथ्वीपर गिरते जाते थे। सहस्त्रबाहु अर्जुन का वध हैहयाधिपति अर्जुन ने देखा कि मेरी सेना के सैनिक, उनके धनुष, ध्वजाएँ और ढाल भगवान परशुराम के फरसे और बाणों से कट-कटकर ख़ून से लथपथ रणभूमि में गिर गये हैं, तब उसे बड़ा क्रोध आया और वह स्वयं भिड़ने के लिये आ धमका। उसने एक साथ ही अपनी हज़ार भुजाओं से पाँच सौ धनुषों पर बाण चढ़ाये और परशुरामजी पर छोड़े। परन्तु परशुराम जी तो समस्त शस्त्रधारियों के शिरोमणि ठहरे। उन्होंने अपने एक धनुषपर छोड़े हुए बाणों से ही एक साथ सबको काट डाला। अब हैहयाधिपति अपने हाथों से पहाड़ और पेड़ उखाड़कर बड़े वेग से युद्ध भूमि में परशुरामजी की ओर झपटा। परन्तु परशुरामजी ने अपनी तीखी धारवाले फरसे से बड़ी फुर्ती के साथ उसकी साँपों के समान भुजाओं को काट डाला। जब उसकी बाँहें कट गयीं, तब उन्होंने पहाड़ की चोटी की तरह उसका ऊँचा सिर धड़ से अलग कर दिया।
पिता के मर जाने पर उसके दस हज़ार लड़के डरकर भग गये। प्रायश्चित परीक्षित! विपक्षी वीरों के नाशक परशुरामजी ने बछड़े के साथ कामधेनु लौटा ली। वह बहुत ही दु:खी हो रही थी। उन्होंने उसे अपने आश्रम पर लाकर पिताजी को सौंप दिया। और माहिष्मती में सहस्त्रबाहु ने तथा उन्होंने जो कुछ किया था, सब अपने पिताजी तथा भाइयों को कह सुनाया। सब कुछ सुनकर जमदग्नि मुनि ने कहा- ‘हाय, हाय, परशुराम! तुमने बड़ा पाप किया। राम, राम! तुम बड़े वीर हो; परन्तु सर्वदेवमय नरदेव का तुमने व्यर्थ ही वध किया। बेटा! हमलोग ब्राह्मण हैं। क्षमा के प्रभाव से ही हम संसार में पूजनीय हुए हैं। और तो क्या, सबके दादा ब्रह्माजी भी क्षमा के बल से ही ब्रह्मपद को प्राप्त हुए हैं। ब्राह्मणों की शोभा क्षमा के द्वारा ही सूर्य की प्रभा के समान चमक उठती है। सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि भी क्षमावानों पर ही शीघ्र प्रसन्न होते हैं। बेटा! सार्वभौम राजा का वध ब्राह्मण की हत्या से भी बढ़कर है। जाओ, भगवान का स्मरण करते हुए तीर्थों का सेवन करके अपने पापों को धो डालो’।
डा. राधेश्याम द्विवेदी

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