सत्‍य का गला घोट दिया है राहुल पंडिता ने

हाल ही में बस्‍तर के आदिवासियों की समस्‍याओं और यहां चल रहे माओवादी आंदोलन पर राहुल पंडिता की पुस्‍तक ‘हेलो बस्‍तर’ प्रकाशित हुई है। राजीव रंजन प्रसाद ने इसकी समीक्षा लिखी और यह सर्वप्रथम प्रवक्‍ता डॉट कॉम पर प्रकाशित हुई। इस समीक्षा पर 10 टिप्‍पणियां आईं। सारगर्भित। एक टिप्‍पणीकार को छोड़कर शेष सभी ने राजीव जी के कलम को सलाम किया है और बताया है कि राहुल पंडिता ने ‘हेलो बस्‍तर’ पुस्‍तक के बहाने सत्‍य का गला घोटने का काम किया है। 

 

श्रीकान्त मिश्र ‘कान्त’

“………. क्रांति का ढोल पीटने वालों को इन्हें जानना अवश्य चाहिये। जब तक बस्तर राज्य था और राजधानी जगदलपुर सत्ता का केन्द्र, अबूझमाडियॉ की राजनीतिक हैसियत भी रही है और पहचान भी। दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता पश्चात् अत्यधिक जल्दबाजी में हुए व्यवस्था परिवर्तन में इस क्षेत्र ने बहुत कुछ खोया यहाँ तक कि अपनी आवाज भी। “.

राजीव जी.. एक सच्चे बस्तरिया की भांति अपनी भूमि के प्रति आपका लगाव और आदिवासियों की सतत् उपेक्षा की पी़ड़ा सदैव आपके लेखन में प्रमुखता से रही है. दण्डाकरण्य में वर्षों से उलझी हुयी समस्याओं की डोर पर आपकी पकड़ से… मैं व्यक्तिगत रूप से परिचित हूं।

हेलो बस्तर पर समीक्षा करते हुये आपने जिस तरह त्थ्यात्मक आंकड़े प्रस्तुत किये हैं वह अपने आप में बस्तर पर एक पुस्तक के पन्ने हैं। आपके बस्तर पर लिखे जा रहे उपन्यास की व्यग्रता से प्रतीक्षा है।

 

अजय कुमार झा

बस्तर पर लिखने वालों के लिए ये पोस्ट एक अनिवार्य शोध पत्र के रूप में मार निर्देशिका बनेगी। राजीव जी, अब इस पुस्तक को पढने की उत्कट इच्छा हो गई है उम्मीद है कि अगले सप्ताह तक मेरे हाथ में होगी। बहुत ही शोधपरक और ज्ञानवर्धक लेखन.

 

संजीव सारथी

आपकी समीक्षा पढ़ कर लगता है कि पुस्तक का शीर्षक बाजार को ध्यान में रख कर रखा गया है, क्योंकि बस्तर इन दिनों “इन” टॉपिक है मीलों दूर बैठे शहरी लोगों के लिए, मगर वास्तविक बस्तर की सच्चाईयों को सामने लाने में पुस्तक विफल रही है. जो लोग बस्तर की समस्याओं को सही मायनों में जानना समझना चाहते हैं, वो इस पुस्तक से दूर रहें. मेरा ख़याल है आपकी ये समीक्षा उन प्रकाशकों तक भी पहुंचनी चाहिए जो शीर्षकों में उलझा कर पाठकों को बेवकूफ बनाते हैं

 

अजय यादव

बस्तर और उससे जुड़े विषयों पर राजीव जी की सदैव अच्छी पकड़ रही है. प्रस्तुत समीक्षा भी इस बात का सशक्त उदाहरण है. यहाँ में नितेश नंदा जी की टिप्पणी “किताब लिखने वाले से ज्यादा तो समीक्षा करने वाले नें बस्तर का निचोड प्रस्तुत किया है। बारीक विश्लेषण है चाहे अबूझमाड के बारे में बात हो या बस्तर की बोली के बारे में” को उद्धृत करना चाहूँगा.

वर्तमान लेखन और पत्रकारिता के साथ सबसे बड़ी समस्या यही है कि वह बिकने के लिए है. इसके लिए भले ही सत्य का गला घोटना पड़े या किसी की भूख-प्यास को खबर बनाने की धुन में उसे भूखे ही मरने के लिए छोड़ देना पड़े. इस किताब का नाम भी निस्संदेह इसे बेचने का एक ओछा हथकंडा भर प्रतीत होता है. वैसे भी अधिकांश वामपंथी और नक्सलवाद समर्थक तथाकथित महान लेखकों ने बस्तर के आदिवासियों के नाम का प्रयोग अपनी “मार्केटिंग” के लिए ही किया है और इस कार्य के लिए उन्हें बस्तर को समझने से ज्यादा ज़रुरत उसके पिछड़ेपन के प्रचार की थी जो वे नक्सलवादियों को उनका तथाकथित मसीहा कहकर लगातार करते आ रहे हैं.

 

Umesh Mishra

Very good efforts Rajiv ji. you have exposed the propaganda of Maoist . thanks

 

विश्‍व दीपक

पुस्तक खरीदने की चाहत तो थी, लेकिन राजीव जी की समीक्षा पढकर यह चाहत अब काफूर हो गई है। आपने न सिर्फ़ लेखक की बातों का खंडन किया है, बल्कि अपनी बात भी सारे तथ्यों के साथ रखी है। मैं इस विषय पर ज्यादा तो नहीं जानता, लेकिन जितना भी जानता हूँ, वह आपकी समीक्षा को सराहने और समर्थन करने के लिए काफ़ी है। बधाई स्वीकारें!

 

नितेश नंदा

किताब लिखने वाले से ज्यादा तो समीक्षा करने वाले नें बस्तर का निचोड प्रस्तुत किया है। बारीक विश्लेषण है चाहे अबूझमाड के बारे में बात हो या बस्तर की बोली के बारे में। बस्तर की मछली कलकत्ता बेचने वाला प्रसंग माओवादियों के झूठ की पोल खोलता है। जिस प्रसंग पर और बात होनी चाहिये उसे नीचे लिख रहा हूँ – जंगल को आधार इलाका मानने वालों को उनके जीव जंतुओं के साथ जीना भी आना चाहिये और उनके जीवन की रक्षा का दायित्व भी जबरन काबिजों और स्वयं घोषित समानांतर सरकार का ही है। हे पर्यावरण के कर्ताधर्ताओं.. बस्तर की बोलती मैना को तो चुपचाप मरता हुआ देख लिया और आप एनडीटीवी के सेव टाईगर कंपेन में व्यस्त रहे अब कुछ इधर के साँपों की भी सुध लो भाई!! माओवादी बस्तर की जैवविविधता को अपना कवच बना कर घुसे हैं और अब उसे भी नष्ट करने में गुरेज नहीं करते।

 

जगत मोहन

साधुवाद, आपसे निवेदन, संभव हो तो वनवासियों का शोषण और माओवाद पर भी कुछ लिखने का कष्ट करे, सरकार द्वारा चलाये गए विकास कार्यों की जानकारी भी संभव हो तो दे, पुन: पुस्तक की विवेचना पर बधाई

 

प्राण शर्मा

सारगर्भित समीक्षा है. राजीव जी ने हर बात का खुलासा खूब किया है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here