खामियों को उजागर करने की कोशिश

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सतीश सिंह

बिहार के नालंदा जिले के हिलसा प्रखंड के एक छोटे से गांव पखनपुर की रहवासी श्रीमती रामपरी देवी के पति को गुजरे हुए लगभग दो दशक गुजर चुके हैं। उनके पति राज्य सरकार में मुलाजिम थे। अब पेंशन से उनका गुजारा होता है। बेलगाम मँहगाई के कारण उनका जीना दुर्भर हो गया है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण उनको विसंगतिपूर्ण पेंशन का भुगतान किया जाना भी है। पांचवे व छठे वेतन आयोग की सिफारिश के आलोक में उनके पेंशन को पुनरीक्षित या संषोधित करने की जरुरत थी।

बेवा और शरीर से लाचार होने के कारण वे संबंधित अधिकारियों के पास जाकर इस दिषा में कोई पहल नहीं कर पा रही थीं। उनकी मजबूरी व परेशानी को देखकर गांव के एक पढ़े-लिखे एवं प्रगतिशील युवक ने उनकी मदद की। उसने सूचना का अधिकार अधिनियम(आरटीआई), 2005 के अंतर्गत उनकी तरफ से पेंशन में सुधार के लिए संबंधित बैंक में आवेदन दिया और 30 दिनों के अंदरश्रीमती रामपरी देवी को अपना बाजिब हक मिल गया।बिहार में आरटीआई की सहायता से रोज इस तरह की नई इबारत लिखी जा रही है।

निश्चित तौर पर भारत में आरटीआई़़ ने एक नई क्रांति का सूत्रपात किया है। इस कानून के तहत आम एवं खास दोनों सूचना मांग सकते हैं। केन्द्र एवं राज्य सरकार के अधीनस्थ महकमों में सूचना मांगने की अलग-अलग व्यवस्था है, पर सूचना मांगने की प्रक्रिया सरल है। इस कारण इस कानून की लोकप्रियता दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है।

आरटीआई के तहत सबसे पहले आवेदक, लोक सूचना अधिकारी से सूचना मांगता है। आवेदन खारिज होने के बाद पुनष्चः आवेदक केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य के मामले में उसके समकक्ष अधिकारी से संबंधित सूचना मांगता है। तत्पश्‍चात् प्रथम अपील उसके ऊपर के अधिकारी के पास की जाती है। वहां से भी सही सूचना नहीं मिलने की स्थिति में अपीलकर्ता राज्य या केंद्रीय सूचना आयोग के पास द्वितीय अपील कर सकता है।

आज पूरे देश में आरटीआई ने सरकारी कार्यालयों को नींद से जगा दिया है। ज्ञातव्य है कि सरकारी दफ्तरों से किसी भी प्रकार की सूचना को निकालना आजादी के बाद से ही बिल्ली के गले में घंटी बांधने के समान रहा है, लेकिन भला हो आरटीआई का, जिसने इसे आज बच्चों का खेल बना दिया है।

आरटीआई कार्यकर्ता श्री विवेक गर्ग ने आरटीआई के तहत प्रधानमंत्री कार्यालय से एक ऐसा पत्र हासिल किया, जिससे यह सच्चाई उजागर हुई कि गृह मंत्री श्री पी चिदंबरम ने वित्त मंत्री रहते हुए पूर्व संचार मंत्री ए राजा को 2007-08 में कौड़ियों के भाव पर 2 जी स्पेक्ट्रम की नीलामी की छूट दीथी। केरल में पर्यावरण मामलों से जुड़े हुए आरटीआई कार्यकर्ता श्री हरीश वी ने अपने प्रयासों से तकरीबन 1000 एकड़ वन्य भूमि को राज्य सरकार के द्वाराएक निजी कंपनी के हाथों औने-पौने कीमत पर बेचे जाने से बचाया। इसके लिए उन्हें कई बार जिल्लत का सामना करना पड़ा। इतना ही नहीं उनके पास धमकी भरे फोन कॉल भी आए।

आज आरटीआई ने सरकारी मुलाजिमों एवं राजनेताओं के मन में खौफ पैदा कर दिया है।प्रतिकार में आरटीआई के तहत सूचना मांगने वालों को धमकी मिलना बहुत ही सामान्य बात हो गई है। अगर किसी सूचना से किसी बड़ी हस्ती को नुकसान होने की संभावना होती है तो उस स्थिति में सूचना मांगने वाले की हत्या होना अस्वाभाविक नहीं है।

उल्लेखनीय है कि साल 2005 से लेकर अब तक एक दर्जन आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या की जा चुकी है। इस क्रम में अगस्त, 2011 में हुई भोपाल की आरटीआई कार्यकर्ता शहला मसूद की हत्या ताजातरीन मिसाल है।

आष्चर्य जनक रुप से आरटीआई कानून के बनने के 6 साल के बाद भी इसकी संकल्पना अपने प्रारंभिक चरण में है। सरकारी कर्मचारी सूचना देने को आज भी अपना काम नहीं मानते हैं। अधिकांश सार्वजनिक बैंकों में आमतौर पर आरटीआई के तहत सूचना मांगने वाले आवेदनों के निष्पादन के लिए अलग से कर्मचारियों व अधिकारियों की नियुक्ति नहीं की जाती है।

शाखाओं व क्षेत्रीय व्यवसाय कार्यालयों के स्तर पर आरटीआई से जुड़े हुए प्रावधानों के बारे में अज्ञानता है। फलस्वरुप आवेदकों को सूचना से या तो महरुम रखा जाता है या फिर उन्हें गलत एवं भा्रमक सूचना प्रदान की जाती है।

पूर्व केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हब्बीबुल्लाह ने अपने एक बयान में माना है कि केंद्र सरकार के अंतर्गत काम करने वाले विभागों में अनुभाग अधिकारियों को केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी (सीपीआईओ) बनाया जाता है, जिनके पास बहुत ही कम सूचना उपलब्ध होती है। इसके ठीक उलट इस संदर्भ में केंद्रीय सूचना आयुक्त षैलेश गांधी की सोच सकारात्मक है। उनका मानना है कि यदि आवेदक सटीक सवाल पूछेंगे तो लोक सूचना अधिकारी के पास आपके प्रष्न का सही जबाव देने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं रहेगा।

आरटीआई ऐसेसमेंट ऐंड एनालिसिस ग्रुप एवं नेष्नल कैंपन फॉर पीपुल्स राइट टू इनफॉर्मेशन (एनसीपीआरआई) द्वारा 2009 में किए गए एक राष्ट्रव्यापी शोध में यह पाया गया था कि औसतन 30 फीसदी आवेदन लोक सूचना अधिकारी के द्वारा शुरुआती दौर में ही खारिज कर दिये जाते हैं। इस अध्ययन में यह भी राज खुला कि सामान्यतः लोक सूचना अधिकारी आवेदकों को सूचना मांगने से हतोत्साहितभी करते हैं। आमतौर पर सूचना 30 दिनों के अंदर नहीं दी जाती है।

अक्सर गलत एवं भ्रामक सूचना दी जाती है। सवालों को टालने के लिए कहा जाता कि उक्त सवाल सरकारी प्राधिकरण से जुड़ा है। कई मामलों में अधिनियम की धारा 8 के तहत सूचना देने से मना कर दिया जाता है। यद्यपि अधिनियम के अंतर्गत सूचना नहीं देने का कारण बताया जाना चाहिए, किंतु आमतौर पर ऐसा नहीं किया जाता है। देर से सूचना उपलब्ध करवाने के लिए महज 1.4 फीसदी मामलों में जुर्माना लगाया जाता है।

आरटीआई कार्यकर्ता तो यह भी आरोप लगाते हैं कि आयुक्तों की ज्ञान की गुणवत्ता संदेह से परे नहीं है। पूर्व केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हब्बीबुल्लाह का कहना है कि केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी को उप सचिव के स्तर का होना चाहिए, ताकि सही सूचना आवेदक को मिल सके।

आरटीआई के षुल्क को लेकर भी आम लोगों में जानकारी का अभाव है। अक्सर लोग 10 रुपये के नन जुडिशियल स्टाम्प पेपर पर आरटीआई का आवेदन देते हैं। जबकि शुल्क का भुगतान डिमांड ड्राफ्ट, पोस्टल आर्डर या नगद किया जा सकता है। इस संदर्भ में सरकार के द्वारा किसी भी प्रकार का कोई जनजागरण अभियान नहीं चलाया जा रहा है, अपितु जागरुकता के लिए इसकी सख्त आवष्यकता है।

हालांकि आरटीआई के तहत हर नागरिक को सार्वजनिक सूचना पाने का अधिकार है। फिर भी वैसी सूचना मसलन, वैधानिक गरिमा, राष्ट्रीय हित से जुड़े मामले, वैसे मामले, जिनकी जाँच चल रही हो या वह न्यायलय के अंदर विचाराधीन हो, मंत्रिमंडल के फैसलों से जुड़े मामले इत्यादि में सूचना देने से मना किया जा सकता है।

इस में दो राय नहीं है कि आरटीआई के आने के बाद से सरकारी महकमों का काम बढ़ा है। उदाहरण के तौर पर भारतीय स्टेट बैंक के पटना सर्किल में प्रथम अपीलीय प्राधिकारी, जो महाप्रबंधक स्तर के होते हैं, के पास तकरीबन 115 से 120 अपील हर महीने निष्पादन के लिए आते हैं। सरकार को इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा।

उसे हर महकमें में आरटीआई के नाम से एक स्वतंत्र विभाग का गठन करना चाहिए, ताकि आरटीआई से संबंधित मामलों का समयबद्ध तरीके से निपटारा किया जा सके। इससे सरकार के कामों में पारदर्षिता का समावेश होगा और आमजन का उनपर विश्‍वास बढ़ेगा साथ ही साथ भ्रष्टाचार पर भी कुछ हद तक अंकुश लग सकेगा।

ऐसा नहीं है कि हर बार गलती लोक सूचना अधिकारी या केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी की होती है। अधिकांशतः आवेदकों के आवेदन में उनके द्वारा मांगी गई सूचना स्पष्ट नहीं होती है। अनेकानेक आवेदन 10-20 पन्नों के होते हैं, लेकिन उनके द्वारा मांगी गई सूचना महज एक या दो पंक्तियों में होती है। इस कारण से भी आवेदकों के द्वारा मांगी गई सूचना को समय-सीमा के अंदर मुहैया करवाने में परेषानी होती है।

इस तरह की समस्याओं से निजात पाने के लिए ही कर्नाटक सरकार ने यह नियम बनाया है कि आरटीआई के अंतर्गत आवेदक सूचना केवल 150 शब्दों में ही मांग सकते हैं। निष्चित रुप से कर्नाटक सरकार के द्वारा इस कड़ी में लिया गया यह निर्णय बेहद ही सारगर्भित है।

निःसंदेह भारत में सूचना का अधिकार अधिनियम,2005 को अमलीजामा पहनाना इक्कीसवीं सदी में उठाया गया एक महत्वपूर्ण सकारात्मक कदम है। इस कानून में व्याप्त खामियों से इंकार नहीं किया जा सकता है। जैसे, इस कानून की सबसे बड़ी कमी है, निजी क्षेत्र को इसके दायरे से बाहर रखा जाना।पूरे देश में निजी क्षेत्र में पारदर्षिता का भारी अभाव है। इनपर नियंत्रण रखने में सरकार पूरी तरह से विफल रही है।

उदाहरण के तौर पर पटना में नर्सरी के दाखिले में निजी स्कूलों के द्वारा जमकर भ्रष्टाचार का खेल खेला जाता है। फिर भी सरकार उनपर नकेल नहीं कस पाती है। इस संदर्भ में दूसरी महत्वपूर्ण कमी है, दूसरी अपील के लिए किसी समय-सीमा का मुर्करर नहीं किया जाना। इस वजह से सही सूचना मिलने में सालों का समय लगने से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसके बरक्स में सही सूचना पाने के लिए न्यायलय की शरण में भी जाया जा सकता है, लेकिन इसमें वर्षों का समय लगना आम बात है।

हर कानून की तरह इस कानून के दुरुपयोग से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। कई मामलों में यह सामने आया है कि आरटीआई की आड़ में आवेदक लोक सूचना अधिकारी को ब्लेकमेल करते हैं। इस तरह की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। इन कमियों के बावजूद भी आज आरटीआई समाज के दबे-कुचले व वंचित लोगों के बीच उम्मीद की आखिरी किरण के समान है।

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सतीश सिंह
श्री सतीश सिंह वर्तमान में स्टेट बैंक समूह में एक अधिकारी के रुप में दिल्ली में कार्यरत हैं और विगत दो वर्षों से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। 1995 से जून 2000 तक मुख्यधारा की पत्रकारिता में भी इनकी सक्रिय भागीदारी रही है। श्री सिंह दैनिक हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण इत्यादि अख़बारों के लिए काम कर चुके हैं।

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