उत्तराखंड में बगावत की सुनामी

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uttarakhandअरविंद जयतिलक
पांच राज्यों के चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस शासित राज्य उत्तराखंड में हरीश रावत की सरकार पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। हाथ से फिसलती सत्ता को संभाल पाने में विफल कांग्रेस पार्टी मौजुदा परिस्थितियों के लिए भारतीय जनता पार्टी को जिम्मेदार ठहरा रही है। जबकि सच्चाई यह है कि घर के चिराग से ही घर को आग लगी है। मुख्यमंत्री हरीश रावत को हटाने के लिए बगावत का झंडा कांग्रेसी विधायकों ने उठा रखा है। विपक्षी दल के नाते अगर भाजपा लाभ उठाने की कसरत कर रही है तो यह राजनीति का तकाजा है। मजेदार बात यह है कि बागी विधायकों में पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा भी शामिल हैं जिन्हें उत्तराखंड त्रासदी के दौरान कांग्रेस हाईकमान ने हटाकर उनके स्थान पर हरीश रावत को मुख्यमंत्री नियुक्त किया था। आज इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है। कभी मुख्यमंत्री रहते हुए विजय बहुगुणा हरीश रावत की बगावत की ताप सह रहे थे, अब उसी आंच की तपिश में हरीश रावत की सरकार झुलस रही है। मौजुदा परिस्थिितियों पर गौर करें तो उत्तराखंड विधानसभा के 70 विधायकों वाले सदन में 35 विधायक हरीश सरकार के विरुद्ध हैं। पिछले दिनों सदन में वित्त विधेयक के दौरान 35 विधायकों ने विरोध में मत दिया और इस तरह हरीश सरकार सदन में पराजित हो चुकी है। अब विपक्ष मुख्यमंत्री हरीश रावत से नैतिकता के आधार पर इस्तीफा की मांग कर रहा है यह बिल्कुल ही अनुचित नहीं है। मुख्यमंत्री के लिए राहत की बात है कि राज्यपाल ने 28 मार्च तक उन्हें बहुमत साबित करने का समय दिया है और वे इस दौरान बागी विधायकों को अपने पाले में कर पाने में सक्षम होंगे इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। इसलिए और भी कि उत्तराखंड भाजपा के 26 विधायकों के साथ कांग्रेस के 9 बागी विधायक पूरी तरह हरीश सरकार को उखाड़ फेंकने पर आमादा हैं। बागी विधायकों का नेतृत्व कर रहे पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और हरक सिंह रावत की मानें तो उनके साथ कांग्रेस के अन्य विधायक भी संपर्क में हैं और जरुरत पड़ने पर वे राष्ट्रपति के समक्ष परेड कर सकते हैं। मतलब साफ है कि हरीश सरकार का जीवन अब कुछ ही दिन शेष है। गौर करें तो इसके लिए सिर्फ हरीश सरकार की कार्यप्रणाली ही जिम्मेदार नहीं है बल्कि कांग्रेस हाईकमान की रीति-नीति भी जिम्मेदार है। अतीत में जाएं तो जिस समय उत्तराखंड में कांग्रेस नेतृत्ववाली सरकार का गठन हो रहा था उसी समय बगावत के बीज पड़ गए। तब कांग्रेस हाईकमान ने निर्वाचित विधायकों और संगठन के प्रतिनिधियों की भावनाओं को दरकिनार कर मनमानी तरीके से विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री नियुक्त किया। विधायकों और संगठन से जड़े प्रतिनिधियों ने ऐतराज जताया लेकिन उनकी आवाज दबा दी गयी। अपने आचरण से कांगे्रस हाईकमान ने प्रमाणित कर दिया कि वह आंतरिक लोकतंत्र की चाहे जितनी दुहाई दे लेकिन उसकी असल विचारधारा सामंती ही है। हालांकि यह पहली बार नहीं हुआ कि कांग्रेस आलाकमान ने किसी राज्य में विधायकों और संगठन के लोगों की राय की अनदेखी कर मनमाने तरीके से मुख्यमंत्री थोपा हो और इसके एवज में उसे भारी कीमत चुकानी पड़ी हो। आंध्र प्रदेश में मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी के असामयिक निधन के बाद विधायकों ने उनके पुत्र जनगमोहन में आस्था प्रकट की और उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की गुहार लगायी। लेकिन दस जनपथ के शौर्य के आगे विधायकों और संगठन के प्रतिनिधियों की एक नहीं चली। यही नहीं कांग्रेस हाईकमान ने जनाधार वाले नेता जगनमोहन को भी किनारे लगाकर ही माना। नतीजा उन्हें पार्टी छोड़कर अलग पार्टी बनानी पड़ी। लेकिन हाईकमान की यह रणनीति कांग्रेस पार्टी के लिए शुभ साबित नहीं हुआ। आंध्रप्रदेश और उससे अलग हुए राज्य तेलंगाना में कांग्रेस की सियासी जमीन खिसक गयी। कांग्रेस की यह रीति-नीति है कि विरोध करने वालों को या तो पार्टी से निकाल दिया जाता है या उन्हें नेपथ्य में डालकर उसकी राजनीति ही खत्म कर दी जाती है। अब सियासी जमीन खिसकने की बारी उत्तराखंड की है। सच तो यह है कि उत्तराखंड में कांग्रेस पार्टी के पास सरकार बनाने लायक बहुमत ही नहीं था लेकिन वह जोड़तोड़ के बुते सरकार बनाने में सफल रही। लेकिन पार्टी में मचे घमासान को थामने में विफल रही। कांग्रेस हाईकमान ने उत्तराखंड चुनाव जीतने पर विजय बहुगुणा के हाथ सत्ता की कमान इसलिए सौंपा कि वे एक साफ छवि के नेता थे और दो राय नहीं कि राजनीति में ऐसे लोगों की जरुरत भी है। उस समय वे टिहरी से सांसद थे। राजनीति में आने से पहले वे इलाहाबाद और बांबे हाईकोर्ट के जज थे। लेकिन उनकी पृष्ठभुमि पर विचार करें तो वे पूर्व मुख्यमंत्री हेमवतीनंदन बहुगुणा के सुपुत्र के अलावा 2002 में बनी उत्तराखंड सरकार में राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे। अगर कांग्रेस हाईकमान विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री नियुक्त करते समय सभी विधायकों और संगठन के प्रतिनिधियों से रायशुमारी किया होता तो फिर हरीश रावत को उनके विरुद्ध बगावत की जमीन तैयार करने में कामयाबी नहीं मिलती। मजेदार बात यह कि 2012 विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस हाईकमान हरीश रावत को ही मुख्यमंत्री बनाने का सपना दिखाता रहा। लेकिन जब समय आया तो सत्ता-सिंहासन विजय बहुगुणा को सौंप दी। हरीश रावत से सहा नहीं गया और उन्होंने हरक सिंह रावत समेत दर्जनों विधायकों को आगे कर विजय बहुगुणा की ताजपोशी का विरोध करने लगे। सच कहें तो हाईकमान के दबाव में हरीश रावत और उनके समर्थकों को बगावत का झंडा झुकाना पड़ा लेकिन उत्तराखंड कांग्रेस में दो फाड़ हो गया। कांग्रेस हाईकमान के फैसले से नाराज केंद्रीय राज्यमंत्री हरीश रावत ने प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह को अपना इस्तीफा सौंप दिया। याद होगा जब विजय बहुगुणा देहरादून के परेड ग्रांउड में मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे उस दरम्यान डेढ़ दर्जन विधायक दिल्ली में हरीश रावत के साथ थे। यहां ध्यान देना होगा कि तब हरीश रावत के साथ निर्वाचित विधायकों जो गुट था उन्हें उम्मीद थी कि हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने पर उन्हें मंत्री पद मिलेगा। तब हरीश रावत के साथ वे लोग भी युगलबंदी करते देखे गए थे जो शुरु से उनके विरोधी रहे। उदाहरण के तौर पर हरक सिंह रावत और इंदिरा हृदयेश का नाम लिया जा सकता है। अब आज की परिस्थितियों पर गौर कीजिए कि राजनीति का मिजाज कितना बदल चुका है। जो हरक सिंह रावत कभी हरीश रावत के समर्थन में विजय बहुगुणा के विरोध में थे वे आज हरीश रावत के विरोध में विजय बहुगुणा के साथ बगावती सुर अलाप रहे हैं। दरअसल हरक सिंह रावत अपने को मुख्यमंत्री पद के दावेदार मानते हैं और इसी आस में हर बगावत का हिस्सा बनते हैं कि शायद बाजी उनके पाले में आ जाए। हरक सिंह रावत वरिष्ठ नेता के अलावा पांच साल तक नेता प्रतिपक्ष की भूमिका का निर्वहन भी कर चुके हैं। 2012 विधानसभा चुनाव के दौरान माना जा रहा था कि अगर विधायकों में से किसी को मुख्यमंत्री पद दिया जाएगा तो स्वाभाविक रुप से इंदिरा हृदयेश या हरक सिंह रावत का नाम आगे होगा। दूसरी ओर हरीश रावत के समर्थक उन्हें स्वाभाविक रुप से मुख्यमंत्री का दावेदार मान रहे थे। याद होगा कि 2002 में जब कांग्रेस पार्टी उत्तराखंड में सत्ता में आयी तब भी हरीश रावत मुख्मंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। लेकिन नारायण दत्त तिवारी के कद के आगे उनकी दावेदारी काम नहीं आयी। हालांकि कांग्रेस हाईकमान द्वारा उन्हें जरुर भरोसा दिया गया कि भविष्य में उन्हें उत्तराखंड की बागडोर सौंपी जा सकती है। केंद्र में भी उन्हें महत्वपूर्ण पद इसीलिए नहीं दिया गया कि 2012 में अगर उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार बनती है तो वह मुख्यमंत्री बन सकते हैं। लेकिन सत्ता उनके हाथ से फिसलकर विजय बहुगुणा की झोली में जा गिरी। समय ने एक बार फिर करवट लिया और उत्तराखंड की त्रासदी विजय बहुगुणा की सत्ता के लिए भी त्रासदी बन गयी। हरीश रावत कांग्रेस हाईकमान को अपने पक्ष में करने में कामयाब रहे और मुख्यमंत्री बन बैठे। अब हरीश रावत से हिसाब-किताब बराबर करने की बारी विजय बहुगुणा और उन सरीखे हरीश विरोधी क्षत्रपों की है जिन्होंने अपनी चाल चल भी दी है। अब देखना दिलचस्प होगा कि अपनों की बगावत की सुनामी से हरीश सरकार मिहफूज रह पाती है या नहीं।

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