मानसिक रोगी बना रहे हैं टीवी सीरियल

-लक्ष्मी जयसवाल-
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आज के बदलते माहौल में बदलाव सिर्फ तकनीकी सुविधाओं या फैशन को लेकर नहीं आया है। हमारे मनोरंजन की दुनिया में भी व्यापक स्तर पर बदलाव हुए हैं, जिन्होंने हमारी मानसिकता को काफी हद तक बदल कर रख दिया है। हमारी इस बदली मानसिकता का खामियाजा भुगत रहे हैं, हमारे रिश्ते और खुद हम। टीवी की दुनिया में आदर्शों व बुराइयों का चित्रण इतने व्यापक पैमाने पर किया जाने लगा है कि हम उसी को हकीकत मानकर उसी दुनिया में जीने लगे हैं। इस दुनिया से बाहर निकलकर जब हमारा सामना वास्तविक दुनिया से होता है, तो हमारा अबोध मन उसका सामना करने से कतराता है। हम टीवी के रिश्तों की तुलना अपने रिश्तों से करने लगते हैं और जब वे रिश्ते हमारी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते तो उनमें दरार आ जाती है या फिर हम खुद ही कई मानसिक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।

टीवी के इस तिलस्मी संसार में या तो सारे रिश्ते बहुत अच्छे दिखाए जाते हैं या फिर अपने ही अपनों के खिलाफ साजिश करते नजर आते हैं। दरअसल, आज विभिन्न चैनलों व उन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई है। इन कार्यक्रमों में दिखाए गए परिवारों को देखकर आम जन इनके मोह जाल में फंसता जा रहा है। आज हर लड़की अपनी होने वाल सास में टीवी सीरियल की सास की जैसी छवि ढूंढती है लेकिन जब टीवी के मोह पाश से बंधन टूटता है, तो वे सच्चाई का सामना करने में सहज नहीं हो पाती हैं। यही असहजता या तो उनके पारिवारिक रिश्तों में दरार लाती है या फिर मानसिक रोगों के लिए अवसर उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ हाल युवाओं का अपने जीवन साथी को लेकर भी है। इन सीरियल्स का उनके दिलो-दिमाग पर ऐसा असर पड़ा है कि वे अपने जीवन साथी में वही संभावनाएं ढूंढ़ने लगते हैं, जो कि तथाकथित टीवी सीरियलों में दिखाई जाती है। टीवी-सीरियलों में बढ़ा-चढ़ा कर दिखाई गई चीजें लोगों के मस्तिष्क पर कुछ ज्यादा ही हावी हो गई है। इन सीरियल की दास्तां सिर्फ लोगों के रिश्तों में आई दरार तक ही सीमित नहीं रह गई है। दर्शकों में इन सीरियलों में दिखाए गए किरदारों से इस कद्र अपनापन व भावनात्मक लगाव हो गया है कि वे इन्हें अपने अपनों की तरह चाहने लगे हैं। सीरियल की कहानी में इनके साथ कुछ भी गलत होने पर इनके हृदय पर भी चोट लगती है। दर्शक गण भी भावनात्मक रूप से आहत होते हैं। साथ ही इन सीरियलों में अपनों द्वारा अपनों के लिए ही साजिश की जाने की प्रवृत्ति से आज लोग अपने संबंधियों व मित्रों को संदेह की दृष्टि से देखने लगे हैं जो निश्चित रूप से समाज के लिए अच्छे संकेत नहीं है। इससे आपसी रिश्तों में बुराइयां ज्यादा पनप रही हैं। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम ये हो रहा है कि हम एकाकी होते जा रहे हैं। अपने रिश्तों पर से ही हमारा विश्वास उठता जा रहा है। सीरियल्स के कारण हमारी जिंदगी में आया ये अकेलापन हमारे दिलो-दिमाग पर हावी होता जा रहा है। इसके कारण प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से न केवल हमारे दैनिक कार्य, कार्यक्षमता, प्रतिभा प्रभावित हो रही है बल्कि हम कई रोगों की चपेट में आते जा रहे हैं।

आजकल तो लोगों पर सीरियल का ऐसा जादू चढ़ा है कि इस समय वे अपने परिवार वालों से बात करना भी पसंद नहीं करते। जबकि रात का वह समय जब सभी अपने-अपने कार्यस्थलों से लौटते हैं तो ऐसे में उन्हें एक-दूसरे के साथ की ज्यादा जरूरत होती है। ऐसे में बजाय एक दूसरे का साथ देने के वे आपस में अपने-अपने पसंदीदा कार्यक्रम को लेकर लड़ते रहते हैं। बेचारा टीवी का रिमोट इस हाथ से उस हाथ उलझता रहता है। इस झगड़े का परोक्ष परिणाम आपके रिश्ते पर भी पड़ता है, पर हम इनसे अनजान रहते हैं। इसके अलावा टीवी के समय में वे किसी का आना या किसी के घर जाना पसंद नहीं करते। सीरियल के चक्कर में बस टीवी के सामने चिपके रहते हैं। इससे लोगों में से अपनत्व का भाव समाप्त हो रहा है। शायद समाज में बढ़ रहे अपराध व किसी के साथ हुई दुर्घटना के बाद लोगों का अंसवेदनशील रवैया इसी टॉलीवुड की देन है। यही कारण है कि आज हमारी आंखों के सामने किसी के साथ कुछ भी हो जाए हम आंखें मूंदे खड़े रहते हैं, क्योंकि मानवीय रिश्तों के साथ तो हमारी संवेदनशीलता समाप्त हो चुकी है। अगर कहीं संवेदनशीलता बची है तो वह है सीरियल्स के किरदारों के साथ।

इसके अलावा सीरियल्स में लगातार रिश्तों, रीति-रिवाजों व रस्मों का मजाक बनाया जाता है। यहां पर एक ही स्त्री व पुरुष का अनेक बार दूसरे लोगों के साथ विवाह होना दिखाया जाता है। परिस्थिति व सीरियल की कहानी के अनुरूप नायिका का विवाह कई बार करवाया जाता है। वो भी पूरी शानो-शौकत से। हमारे समाज में जैसा विवाह संभ्रान्त घराने में होता है, इन धारावाहिकों में एक गरीब परिवार भी वैसा विवाह बड़े आराम से कर लेता है। हर चैनल के धारावाहिकों में प्यार और पैसा खेलने की चीज हो गए हैं। वास्तविक जीवन में तो उसका इन सब चीजों से कोई सरोकार है ही नहीं। हमारे समाज का आम आदमी अपने लिए दो वक्त की रोटी की जुगत में ही अपना जीवन बिता देता है। इस तरह के आलीशान विवाह व आम आदमी का भी इस तरह शान से जीना तो सिर्फ ये टीवी सीरियल ही कर सकते हैं। पर बावजूद इसके विवाह के समय काफी धूमधाम व लेन-देन आदि कुप्रथाएं इन धारावाहिकों में आम हो गई हैं। टीवी पर इस तरह की चीजें दिखाकर हम न केवल अपनी सभ्यता व संस्कृति पर प्रहार कर रहे हैं बल्कि समाज को गलत राह भी दिखा रहे हैं। इनमें दिखाई जाने वाली धूमधाम व लेन-देन के चलते समाज में दहेज प्रथा को बढ़ावा मिल रहा है। न केवल समाज में दहेज प्रथा जैसा गलत संदेश जा रहा है जबकि स्वयं भावी दूल्हा-दुल्हन भी अपने वैसे ही विवाह के सपने बुनने लगते हैं। अपनी इन ख्वाहिशों के पूरा न होने पर उनमें एक झुंझलाहट, रोष व हीनता की भावना पनपने लगती है जो कि उनके भविष्य के लिए अच्छा नहीं है।

इसके अलावा जो खासियत इन धारावाहिकों की वो है पारिवारिक कहलाए जाने वाले इन सीरियलों में अश्लीलता व रोमांस की पराकाष्ठा। इन पारिवारिक धारावाहिकों की खासियत होती जा रही है कि आप इन्हें पूरे परिवार व बच्चों के साथ बैठकर नहीं देख सकते। नायक-नायिकाओं का हर समय रोमांस सीरियल्स की टीआरपी बढ़ाने का एक जरिया बन गया है। जबकि सच्चाई तो यह है कि ये हमारे समाज पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहे हैं, अपराधों को बढ़ावा दे रहे हैं। रोमांस की सभी सीमाओं को लांघते इन सीरियलों को अपना दायरा समझना होगा। क्योंकि हमारे द्वारा देखी गई हर चीज हमारे दिलो-दिमाग पर कहीं न कहीं व्यापक रूप में असर करती है।

इन सबसे हटकर अगर हम बात करें रियलिटी शोज की, तो यहां भी परिणाम निराशाजनक ही हैं। इन दिनों टीवी चैनल्स पर रियलिटी शोज की बाढ़ सी आ गई है। चाहे वह शो डांस का हो, गााने का, कॉमेडी का या फिर खाने का। बड़ों से लेकर बच्चे तक इसकी चकाचैंध में अपने जीवन में अंधकार भरते जा रहे हैं। रियलिटी शोज की इस बढ़तर रफ्तार के कारण आज बच्चे व बड़े पढ़ाई व करियर पर ध्यान देने की बजाय इन शोज में भाग लेना ही अपने जीवन का उद्देश्य बना चुके हैं। सभी अपने लक्ष्य से भटकते जा रहे हैं। इस भटकाव के बीच देश के बच्चे, बूढ़े, युवा सभी जुटे हैं किसी भी तरह से इनमें भाग लेने के लिए। जिन लोगों को इस शो का प्रतिभागी बनने का मौका मिल जाता है, वे क्षण भर के लिए खुश जाते हैं तथा जिन्हें मौका नहीं मिलता वे निराश होकर हीनता बोध से ग्रस्त होते जाते हैं। मानसिक स्तर पर वे कई रोगों का शिकार हो जाते हैं। हालांकि जिन्हें इन शोज का हिस्सा बनने को मिलता है, उनका जीवन भी स्वर्ण आभा से उज्ज्वल नहीं होता। शो में भाग लेने के बाद बीच शो से निकलना उनमें कुंठा व अवसाद को जन्म देती है। रही बात विजेताओं की, तो सच तो ये है कि उनके जीवन में भी सदा के लिए चांदनी नहीं आती। शो खत्म होने के बाद लोग बड़ी आसानी से उन्हें भी भूल जाते हैं। उनमें से कुछ की किस्मत अच्छी होती है, जिन्हें जीवन में दोबारा कोई अवसर मिलता है, अन्यथा बाकी तो गुमनामी के अंधेरों में ही अपना जीवन गुजार देते हैं।

रियलिटी शो के नाम पर दर्शकों व प्रतिभागियों की मानसिकता के साथ जो खिलवाड़ होता है, उसे तो वे ही बेहतर समझ सकते हैं जो इ शोज का हिस्सा रह चुके हैं या जिनके परिवार के सदस्य ऐसे शोज का हिस्सा बनने के लिए ललायित हैं। दूसरी तरफ अगर हम बात करें इन शोज की सफलता की, तो हम देखेंगे कि अपने शो को हिट बनाने के लिए कार्यक्रम के निर्माता-निर्देशक हर सीमा का उल्लंघन कर रहे हैं। कभी अश्लील कॉमेडी द्वारा मनोरंजन तो कभी इन शोज में महिलाओं की छवि को धूमिल करते व्यंग्य तो कभी किसी रियलिटी शो में छोटे-छोटे अबोध बच्चों से अश्लील नृत्य करवाना या खतरनाक स्टंट करवाना। इन सबके बीच आखिर कुछ है जो नहीं दिख रहा है तो वह है युवाओं का समाज से कटना, अपनी शिक्षा छोड़कर इस चकाचैंध में स्वयं को अवसाद ग्रस्त करना। और तो और लाइट, कैमरा और एक्शन के इस खेल में मासूम बच्चों से उनका बचपन छीना जा रहा है। जो उनका मानसिक अहित तो कर ही रहे हैं साथ ही साथ उनका बचपन छीनकर समाज को मानसिक रूप से विकलांग नागरिक दे रहे हैं, जिसकी परिणति होती है विभिन्न अपराधों में। आज समाज में बढ़ रहे अपराधों के लिए काफी हद तक टीवी कार्यक्रमों की बदलती रूपरेखा व विषय वस्तु ही जिम्मेदार है। यदि समय रहते इसे नहीं रोका गया तो एक विक्षिप्त समाज के लिए कोई और नहीं, बल्कि हम सब उत्तरदायी होंगे। क्योंकि अगर दोष कार्यक्रम व चैनल्स के निर्माता-निर्देशकों का है, तो उससे कहीं ज्यादा हम उन्हें बढ़ावा देने के लिए उत्तरदायी हैं। वो हम ही हैं जो अपने बच्चों के साथ बैठकर इस तरह के कार्यक्रमों का आनंद लेते हैं। जिसकी वजह से इन कार्यक्रमों की टीआरपी बढ़ती है और चैनल्स को ज्यादा से ज्यादा मात्रा में ऐसे कार्यक्रम परोसने का अवसर मिलता है। अगर हम स्वयं अपने व अपने परिवार के लिए अपनी सीमा, अपनी मर्यादा निर्धारित कर दें तो टीवी में बढ़ती अश्लीलता व उसके द्वारा उत्पन्न मानसिक विक्षिप्तता या अपंगता को रोका जा सकता है।

सच तो यह है कि हमारे मनोरंजन के लिए सीरियल एक अच्छा माध्यम है लेकिन सीरियल्स का प्रस्तुतीकरण अच्छा होना भी एक अनिवार्य शर्त है ताकि समाज में एक अच्छा संकेत जा सके। हालांकि कई चैनल्स की तरफ से समाज में अच्छे संदेश प्रसारित करने वाले कार्यक्रमों की शुरुआत हुई थी, पर बदलते परिवेश में वे भी अपने लक्ष्य से भटक गए और खामियाजा भुगतना पड़ा दर्शकों की मानसिकता को। टीवी देखना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन आपको ही इस बात का ध्यान रखना है कि इन कार्यक्रमों की विषय वस्तु को आप स्वयं पर हावी न होने दें तथा किसी भी कीमत पर इससे आपकी मानसिकता प्रभावित न हो, या आप किसी भी प्रकार के मानसिक रोगी बनने से बचें। इसी में आपका व समाज का हित निहित है।

1 COMMENT

  1. सोलह आने सच्ची बात है कि अधिकांश सीरियल एकदम बकवास हैं. कोई भी समझदार आदमी इन सीरियल को किसी भी कीमत पर पसंद नहीं कर सकता.
    कोई इतिहास का मजाक बना रहा है, कोई हमारे रीति रिवाज़ों का मज़ाक बना रहा है, कोई जरुरत से ज्यादा ग्लैमर पड़ोस देता है.
    कुटिल चालों में व्यस्त मानसिक रोगी सरीखे किरदार क्या जहरीला असर डाल रहे हैं, कोई नहीं सोचता.
    बस, पैसे के लिए इस दुनिया को बर्बाद किये जा रहे हैं.
    भारत वर्ष के करोड़ों दिलों के सम्राट माननीय नरेंद्र मोदी जी से मेरी प्रार्थना है कि टीवी पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों के गुणवत्ता को नियंत्रित करने हेतु कुछ जरूरी उपाय करें.

    • बिलकुल शेखर जी। टीवी पर कार्यक्रमों के लिए उचित मानदंड निर्धारित होने ही चाहिए ताकि हमारी युवा पीढ़ी मानसिक रूप से प्रदूषित और अस्वस्थ न हो।

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