जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर जैन

-अशोक “प्रवृद्ध”

 

सत्य और अहिंसा का पाठ पढाकर मानव समाज को अन्धकार से प्रकाश की ओर लाने वाले महापुरुष जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का जन्म ईसा से 599 वर्ष पूर्व चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को ईस्वी काल गणना के अनुसार सोमवार, दिनांक 27 मार्च, 598 ईसा पूर्व उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के मांगलिक प्रभात बेला में बिहार राज्य में वैशाली के गणनायक राजा इक्ष्वाकु वंशीय लिच्छिवी वंश के महाराज श्री सिद्धार्थ और माता त्रिशिला देवी के यहाँ हुआ था। इसी कारण चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के पावन दिवस को जैन श्रद्धालु महावीर जयन्ती के रूप में परंपरागत रीति – रिवाज के साथ हर्षोल्लास और श्रद्धाभक्ति पूर्वक मनाते हैं। बाल्यकाल से ही साहसी, तेजस्वी, ज्ञान पिपासु और अत्यंत बलशाली होने के कारण वे महावीर कहलाए। भगवान महावीर ने अपने इन्द्रियों को जीत लिया था इसलिए इन्हें जीतेंद्र भी कहा जाता है। जैन ग्रंथों के अनुसार इनके शरीर का वर्ण सुवर्ण था और इनका चिह्न सिंह था। इनके यक्ष का नाम ब्रह्मशांति और यक्षिणी का नाम सिद्धायिका देवी था। जैन मत के अनुसार भगवान महावीर के गणधरों की कुल संख्या ग्यारह थी, जिनमें गौतम स्वामी इनके प्रथम गणधर थे। भगवान महावीर ने मार्गशीर्ष दशमी को कुंडलपुर में दीक्षा की प्राप्ति की और दीक्षा प्राप्ति के दो दिन बाद दूध और चावल से बनी खीर से इन्होंने प्रथम पारण किया था। दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 12 वर्ष 6 महीने 5  दिन तक कठोर तप करने के बाद वैशाख शुक्ल दशमी को ऋजुबालुका नदी के किनारे साल वृक्ष के नीचे भगवान महावीर को कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई थी। एक जैन कथा के अनुसार महावीर स्वामी का तीर्थंकर के रूप में जन्म उनके पिछले अनेक जन्मों की सतत साधना का परिणाम था। मान्यतानुसार एक समय महावीर का जीव पुरूरवा भील था। संयोगवश उसने सागरसेन नाम के मुनिराज के दर्शन किये। मुनिराज रास्ता भूल जाने के कारण उधर आ निकले थे। मुनिराज के धर्मोपदेश से उसने धर्म मार्ग धारण किया। भगवान महावीर अहिंसा और अपरिग्रह के साक्षात् मूर्ति थे। सभी के साथ समान भाव रखने वाले महावीर किसी को कोई भी दुःख देना नहीं चाहते थे। अपनी श्रद्धा से जैन धर्म को पुनः प्रतिष्ठापित करने के बाद कार्तिक कृष्ण अमावस्या मंगलवार, 15 अक्टूबर, 527 ई. पू. को दीपावली के दिन पावापुरी में भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु में निर्वाण को प्राप्त किया था। भगवान महावीर स्वामी ने जैन धर्म को पुन: स्थापित कर विश्व को एक ऐसी शाखा प्रदान की जो पूर्णतः  अहिंसा और मानवता पर आधारित थी। महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद जैन धर्म दो संप्रदायों में बंट गया लेकिन बंटने के बाद भी जैन धर्म में व्याप्त महावीर स्वामी की शिक्षाओं को कोई हानि नहीं हुई है।

यद्यपि भगवान महावीर स्वामी ने एक राजपरिवार में जन्म लिया था और उनके परिवार में ऐश्वर्य, धन-संपदा की कोई कमी नहीं थी, जिसका वे मनचाहा उपभोग भी कर सकते थे तथापि युवावस्था में क़दम रखते ही उन्होंने संसार की माया-मोह, सुख-ऐश्वर्य और राज्य को छोड़कर यातनाओं को सहन करने का मार्ग अपनाया। सारी सुविधाओं का त्याग कर वे नंगे पैर पैदल यात्रा करते रहे। और अपने कार्यों व उपदेश से वर्धमान से वीर , फिर वीर से सन्मति , फिर सन्मति से अतिवीर और फिर महावीर हो गये। इस कार्य में कलिंग के राजा जितशत्रु के द्वारा  अपनी सुन्दर सुपुत्री यशोदा के साथ कुमार वर्द्धमान के विवाह का भेजा गया प्रस्ताव भी आड़े  नहीं आया।

बड़े होकर लोक कल्याण का मार्ग अपने आचार-विचार में लाकर धर्म प्रचारक का कार्य करने वाले भगवान महावीर का नाम बचपन में वर्धमान रखा गया था। जैन मान्यतानुसार वर्धमान ने कठोर तप द्वारा अपनी समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर जिन अर्थात विजेता कहलाए। उनका यह कठिन तप पराक्रम के समान माना गया, जिस कारण उनको महावीर कहा गया और उनके अनुयायी जैन कहलाये । इनके नामों की भी अपनी एक पृथक कहानी है। इनके जन्मोत्सव पर ज्योतिषों द्वारा इनके चक्रवर्ती राजा बनने की घोषणा की गयी। उनके जन्म से पूर्व से ही कुंडलपुर के वैभव और संपन्नता की ख्याति ‍दिन दूनी रा‍त चौगुनी की गति से बढ़ती ही गई । इसलिए महाराजा सिद्धार्थ ने उनका जन्म नाम वर्धमान रखा। उनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में जनता में फ़ैल रही बात से बचपन से ही उनकी ख्याति बढ़ने लगी थी। चौबीस घंटे लगने वाली दर्शनार्थिंयों की भीड़ ने राज-पाट की सारी मयार्दाएँ तोड़ दी। वर्धमान ने लोगों में सबके लिए समान रूप से उनके द्वार सदैव खुले रहने का संदेश प्रेषित किया। वर्धमान के आयु में वृद्धि होने के साथ ही उनके गुणों व व्यक्तित्व में भी गुणात्मक वृद्धि होने लगी । जैन मान्यतानुसार एक बार जब सुमेरू पर्वत पर देवराज इंद्र उनका जलाभिषेक कर रहे थे। तब कहीं बालक बह न जाए इस बात से भयभीत होकर इंद्रदेव ने उनका अभिषेक रुकवा दिया। इंद्र के मन की बात भाँप कर उन्होंने अपने अँगूठे के द्वारा सुमेरू पर्वत को दबा कर कंपायमान कर दिया। यह देखकर उनकी शक्ति का अनुमान लगाकर देवराज इंद्र ने उन्हें वीर के नाम से संबोधित करना शुरू कर दिया। तब से वर्धमान वीर कहलाने लगे। महापुरुषों का दर्शन ही संशयचित लोगों की शंका का निवारण कर देता है। सत्यासत्य तत्त्व के विषय में सशंकित दो मुनियों के शंका का निवारण कुमार वर्द्धमान को देखते ही दूर हो जाने के कारण उन दो मुनियों अर्थात यतियों ने प्रसन्नचित्त हो वर्धमान का सन्मति नाम रखा था। एक कथा के अनुसार बाल्यकाल में महावीर महल के आँगन में खेल रहे थे। तभी आकाशमार्ग से संजय व विजय नामक दो मुनि विचरण के लिए निकले हुए थे। दोनों इस बात की अनुसन्धान में लगे थे कि सत्य और असत्य क्या है? उन्होंने नीचे पृथ्वी की ओर देखा तो नीचे महल के प्राँगण में खेल रहे दिव्य शक्तियुक्त अद्‍भुत बालक को देखकर वे उसकी ओर खींचे नीचे उतर आये और सत्य के साक्षात दर्शन करके उनके मन की शंकाओं का स्वतः समाधान हो गया है। उन्हें सन्मति प्राप्त हो गई। इस पर इन दोनों मुनियों ने उन्हें सन्मति का नाम दिया और स्वयं भी उन्हें उसी नाम से पुकारने लगे। एक बार युवावस्था में लुका-छिपी के खेल के दौरान बालकों के साथ बहुत बडे वटवृक्ष के ऊपर चढकर खेलते हुए वर्द्धमान के धैर्य की परीक्षा करने के लिये संगम नामक देव भयंकर सर्प का रूप धारण कर उपस्थित हुए। सर्प को देखकर डर से थर – थर काँपने लगे और वहाँ से भाग खड़े हुए। किंतु वर्द्धमान इससे जरा भी विचलित नहीं हुए। वे निःशंक हो कर वृक्ष से नीचे उतरे और तुरंत साँप के फन पर जा बैठे। । संगमदेव उनके धैर्य और साहस को देख कर दंग रह गया। उसने अपना असली रूप धारण किया और उनकी महावीर स्वामी नाम से स्तुति कर बोला, स्वर्ग लोक में आपके पराक्रम की चर्चा सुनकर ही मैं आपकी परीक्षा लेने आया था। आप मुझे क्षमा करें। आप तो वीरों के भी वीर अतिवीर है। इस तरह वे अतिवीर हो गये।

इन चारों नामों को सुशोभित करने वाले त्रिशलानन्दन महावीर स्वामी तीस वर्ष की आयु होने पर संसार में बढ़ती हिंसक सोच, अमानवीयता को शांत करने के उपाय की खोज के लिये तपस्या और आत्मचिंतन में लीन रहने का विचार करने लगे। कुमार की विरक्ति का समाचार सुनकर माता-पिता को बहुत चिंता हुई। क्योंकि कुछ ही दिनों पूर्व कलिंग के राजा जितशत्रु ने अपनी सुपुत्री यशोदा के साथ कुमार वर्द्धमान के विवाह का प्रस्ताव भेजा था। उनके इस प्रस्ताव के मद्देनजर वर्धमान के माता-पिता ने अपने पुत्र के लिए जो स्वप्न सँजोए थे, वे स्वप्न उन्हें बिखरते हुए नजर आ रहे थे। वर्द्धमान को बहुत समझाया गया, परन्तु वे नहीं माने। अंत में माता-पिता को वर्धमान के जिद के आगे झुकना पड़ा और उन्हें वर्धमान को मोक्षमार्ग की स्वीकृति देनी पडी। मुक्ति मार्ग के पथिक को भोग विलास की लालच जरा भी विचलित नहीं कर सकी । मार्गशीर्ष  कृष्ण दशमी सोमवार, 29 दिसम्बर, 569 ईसा पूर्व को मुनिदीक्षा लेकर वर्द्धमान स्वामी ने शालवृक्ष के नीचे तपस्या आरम्भ कर दी। उनकी तप साधना अत्यंत कठिन थी , जो कि पूर्णतः मौन साधना पर अवलम्बित थी । उन्हें जब तक पूर्ण ज्ञान नहीं की उपलब्धि नहीं हो गयी, तब तक उन्होंने कुछ नहीं बोला और न ही किसी को उपदेश ही दिया। वैशाख शुक्ल दशमी, 26 अप्रैल, 557 ईसा पूर्व के दिन जृम्भक नामक ग्राम में अपराह्न के समय गौतम उनके प्रमुख शिष्य (गणधर) बने । और उनकी धर्मसभा समवसरण कहलायी। इसमें मनुष्य, पशु-पक्षी आदि सभी प्राणी उपस्थित होकर धर्मोपदेश का लाभ लेते थे। लगभग 30 वर्ष तक उन्होंने सम्पूर्ण देश में भ्रमण कर लोकभाषा प्राकृत में सदुपदेश दिया और लोगों के लिए कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। संसार- समुद्र से पार होने के लिये उन्होंने तीर्थ की रचना की, अतः वे तीर्थंकर कहलाये। आचार्य समंतभद्र ने भगवान के तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ कहा है।

वस्तुतः जैन तीर्थंकर पार्श्व और महावीर ने ही सर्वप्रथम एवं सबसे अधिक अहिंसा परमोधर्म के महत्व पर प्रकाश डाला है। महावीर स्वामी के अनुसार हिंसा किसी भी रूप में नहीं करनी चाहिए। सदा सत्य बोलना चाहिए। निर्बल, निरीह और असहाय व्यक्तियों की ही नहीं बल्कि पशुओं को भी नहीं सताना चाहिए। मनुष्य को मन, वचन , कर्म से शुद्ध होना चाहिए। ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। मनुष्य को अपने जीवन काल में देशाटन अवश्य करना चाहिए इससे ज्ञानार्जन होता हैं। यह ज्ञानार्जन का सर्वश्रेष्ठ साधन हैं। चोरी कभी नहीं करनी चाहिए। चोरी भी मन , वचन एवम कर्म से होती हैं अथवा किसी एक से भी करना, महापाप हैं। कर्म के सम्बन्ध में वेदों में उद्धृत वैदिक मत के ठीक विपरीत महावीर स्वामी ने कहा कि कर्मों के कारण आत्मा का असली स्वरूप अभिव्यक्त नहीं हो पाता है। कर्मों को नाश कर शुद्ध, बुद्ध, निरज्जन और सुखरूप स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार तीस वर्ष तक अपने मत का प्रचार करते हुए भगवान महावीर अंतिम समय मल्लों की राजधानी पावा पहुँचे। वहाँ के उपवन में कार्तिक कृष्ण अमावस्या मंगलवार, 15 अक्टूबर, 527 ई. पू. को 72 वर्ष की आयु में उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। उनके जीवन के मूल मंत्र जियो और जीने दो और उनके सबसे प्रिय संदेश अहिंसा के सिद्धांत पर चलकर ही हम देश, दुनिया में फैली अराजकता व अशांति को समाप्त कर सकते हैं। करुणामय एवं निस्वार्थ सादगीपूर्ण जीवन की प्रेरणा देती महावीर जयन्ती का त्योहार सच्चाई, अहिंसा तथा सौहार्द के प्रति सबों की प्रतिबद्धताओं को मज़बूत करने के लिए कार्य करने की प्रेरणा देती हैं।

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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