अदालतों को मेरे सिर्फ दो सुझाव

lawडॉ.वेदप्रताप वैदिक

सर्वोच्च न्यायालय और सरकार के बीच आजकल युद्ध छिड़ा हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय न्यायाधीशों की नियुक्ति में पूर्ण स्वतंत्रता चाहता है। इसी संदर्भ को उसने ज़रा व्यापक कर दिया है। उसने देश के विधि विशेषज्ञों, जजों, वकीलों, सांसदों और प्रबुद्धजन से तो सुझाव मांगे ही हैं, साधारण लोगों से भी पूछा है कि भारत की न्याय-व्यवस्था सुधारने के लिए उनके क्या-क्या सुझाव हैं।

मैं एक साधारण नागरिक के नाते सिर्फ दो सुझाव देना चाहता हूं। एक तो अदालतों की भाषा और दूसरा अदालतों के खर्चों के बारे में! देश की सभी अदालतों का काम-काज भारतीय भाषाओं में होना चाहिए। सबसे पहले सभी कानूनों का संहिताकरण हिंदी में होना चाहिए और उनके अनुवाद सभी भारतीय भाषाओं में मिलने चाहिए। कानून की सारी पढ़ाई भारतीय भाषाओं में जब तक नहीं होगी, अदालतों की बहसें और फैसले स्वभाषा में कैसे होंगे? यदि अदालतों का काम स्वभाषा में शुरु हो जाए तो हमारे देश का न्याय जादू-टोना नहीं बना रहेगा। वादी और प्रतिवादी को भी पता चलेगा कि अदालत में चली बहस का अर्थ क्या है? यदि कानून की पढ़ाई स्वभाषा में होगी तो हजारों नए स्नातकों की संख्या बढ़ेगी। जजों की कम संख्या में बढ़ोतरी होगी। यदि अदालतें स्वभाषा में काम करेंगी तो मामले दनादन निपटेंगे। तीन करोड़ मुकदमें लटके नहीं रहेंगे।

यदि अदालतों में स्वभाषा चलेगी तो वकीलों की लूट-पाट रुकेगी। उनके दांव-पेंचों को वादी-प्रतिवादी समझ लेंगे। इसके अलावा मुकदमों की फीस भी मोटे तौर पर तय होनी चाहिए। मोटी फीस के डर से लाखों लोग अदालतों के पास भी नहीं फटकते। डाक्टरी और वकालत- ये दो धंधे ऐसे हैं, जिनमें लोगों की गर्ज बहुत ज्यादा होती है। उनका शोषण करना आसान होता है।

हमारी न्याय-व्यवस्था के बारे में मेरे पास दर्जनों सुझाव हैं लेकिन उनसे भी अच्छे सुझाव देनेवाले कई और लोग हैं। मैं इन दो सुझावों पर ज़ोर इसीलिए दे रहा हूं कि शायद कोई और नहीं देगा।

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