संस्कृत के पक्ष में दो शब्द

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भाषा न तो किसी की जागीर है और न ही इसे सीमाओं की परिधि में समेटा जा सकता। यह तो रुचि के अनुरूप है। भाषा को जबरन किसी पर नहीं थोपा जा सकता। हमारे देश में वर्ग, जाति और धर्म के आधर पर जिस प्रकर से भाषाओं का बंटबारा हुआ वह अच्छी बात नहीं है। वर्ग, जाति और धर्म के सीमाओं से बाहर के लोगों ने भाषाओं के विकास में बड़ी भूमिका अदा की है। जैसे उर्दू के विस्तार और विकास में, प्रेमचन्द्र, पिफराक गोरखपुरी, बंदी, गुजराल, गुलजार, नारग जैसे लोगों की भागीदारी सराहनीय है। फारसी के विकास में भगवतस्वरूप, चन्द्रशेखर जैसी हस्तियों ने यह काम किया है जो इन भाषाओं के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखा गया है।

मैं व्यक्तिगत रूप से संस्कृत का तरफदार हूं। मेरे लहू में संस्कृत और भारतीयता बसता है। मुझे भारतीय संस्कृति, सभ्यता और संस्कृत भाषाओं से अटूट प्रेम है। दूसरा पहलू मेरे संस्कृत प्रेम का यह है कि मैंने फारसी भाषा में पीएच.डी. की है और संस्कृत एव फारसी दोनों का जन्म अविस्ता से हुआ है। दोनों भाषा एक दूसरे के काफी करीब हैं। मैंने संस्कृत तो चतुर्वेदी, द्विवेदी और त्रिवेदी की भांति नहीं पढ़ी और न ही संस्कृत मंत्र का उच्चारण करने की क्षमता रखता हूं। मगर मुझे मंत्र, वेद की पंक्तियां प्रभावित करती है। मन को शान्ति प्रदान करती है। मेरा लालन पालन ब्राह्मणों के इसी परिवेश में हुआ है। जहां पर मैंने इसके रस को अनुभव किया है।

मुझे अरब के उस महान यात्राी, बरजूया का वह शब्द अभी भी स्मरण है। जिसमें वह कहता है कि वह भारत देश के अमृत लेकर लौटा है। अर्थात् संस्कृत पढ़कर लौटा हे। और पंचतंत्रों की कहानियों का भेंट लेकर आया है। जो कभी नष्ट होने वाला धन नहीं है। बरजूइया के इसी अरबी में लिखे, पंचतंत्र की कहानियों का अनुवाद प्रथम पहल की और पश्चात फारसी, पशतो, परवतो, कुर्दीश एवं अरब के अन्य भाषाओं में हुआ था।

एन.डी.ए. की पहली सरकार का गठन हुआ था, तब ज्योतिष विज्ञान की बड़ी चर्चाएं हुई थी। और कुछ लोगों ने इसका घोर विरोध् किया था मगर सच्चाई यही है कि ज्योतिष विद्या को उन्हीं लोगों ने सफल नहीं होने दिया जिसके उफपर इसके विकास की जिम्मेवारी सौंपी गई थी। जब एनडीए-2 का गठन हो रहा था, तब बड़ी संस्थाओं में हमारे प्रतिनिध्गिण शपथ संस्कृत और हिन्दी में ले रहे थे। मैं प्रसन्न था कि अब संस्कृत और हिन्दी के उत्थान के लिऐ नई सरकार सहृदय काम करेगी और इन भाषाओं का न केवल विकास होगा बल्कि विस्तार भी होगा। इसे कामकाज और रोजी रोजगार से जोड़ने का प्रयास होगा। केन्द्रीय विद्यालय में जर्मन और संस्कृत का विवाद को जिस प्रकार से हवा दी जा रही है उससे संस्कृत का विकास संभव नहीं है। लोग जर्मनी में संस्कृत के भविष्य से डरे हुए हैं। मैं उन लोगों को जानता हूं जो संस्कृत के ज्ञाता हैं और उन्हें ईरान और मध्य ऐशियाई देशों में बड़ा सम्मान प्राप्त हो रहा है। सरकार संस्कृत को एक अच्छे विकल्प के रूप में पेश करे, जिसके पढ़ने में सभी वर्गों की रूचि हो।

संस्कृत केवल एक भाषा नही है। यह हमारी धरोहर, विरासत, संस्कृति, सभ्यता का इतिहास है। जिसे कुछ मठाधीशों ने एक वर्ग विशेष के लोगों ने अपने अधिकार क्षेत्रा में कब्जा रखा है। इस भाषा को अपने लाभ के लिऐ, पूजा पाठ, मृत्यु ओर विवाह तक सीमित कर रखा है। मैं देश के बड़े प्रतिष्ठित संस्थानों, शिक्षा संस्थानों, काॅलेजों और विश्वविद्यालयों को निकट से जानता हूं। जहां पर स्थापित इन भाषा के माफियाओं ने इस भाषा को बहुत क्षति पहुंचाई है और कई काॅलेजों में इसकी पढ़ाई बन्द कर दी गई है। कई काॅलेजों में शिक्षकों के पद को समाप्त कर दिया गया है। इस भाषा में वर्चस्व की लड़ाई, क्षेत्रवाद और जातिवाद की लड़ाई ने इस भाषा को कहीं का नहीं छोड़ा। आज बच्चे और उनके अभिभावक संस्कृत भाषा के नाम से शरमा जाते हैं। संस्कृत पढ़ने और पढ़ाने वाले झेपते दिखाई देते हैं। संस्कृत स्वर्ग की भाषा है। देवी देवताओं की भाषा है। यह भाषा हमारी पहचान है। हमारी स्मिता है। प्राचीन भाषा के इतिहास की रीढ़ है। पावन भाषा उन्नति और विकास का प्रतीक है। इसका विरोध् नहीं, स्वागत होना चाहिऐ, इसे बोझ नहीं सहृदय पढ़ना और पढ़ाना चाहिऐ।

फखरे आलम

1 COMMENT

  1. बहुत सुंदर। लेखक को धन्यवाद।

    स्मृति के आधार पर स्वामी विवेकानंद जी के विचार शब्दांकित करता हूँ।
    (१)
    स्वामी जी कहते हैं, शासन किसी का भी हो, संस्कृत पढी जानी चाहिए।
    जब शूद्र(वृत्ति) शासन होगा; बिना संस्कृत समृद्धि तो आयेगी, जो, शारीरिक भोग विलास को बाँटेगी, साधारणता उसका गुण होगा।
    (२)
    पर उसका नकारात्मक पहलु भी होगा। वह असामान्य प्रतिभाएं प्रोत्साहित नहीं कर पाएगी।(पाणिनि, पतंजलि, कात्यायन, जैसे ….कहाँ है?)
    (३)
    इसी के अनुभव से, लगता है; भारत गत ६७ वर्षों से निकला है। चेतने की घडी आ चुकी है।
    (४)
    “न हि ज्ञानेन सदृश्यं पवित्रम्‌ इह विद्यते” का आदर्श जीवन में उतारनेवाले शिक्षक नहीं है। सभी बनिया है।
    (५)
    जब ज्ञान लक्ष्यी ब्राह्मण, रक्षा लक्ष्यी क्षत्रिय, पूर्ति लक्ष्यी वैश्य, और सुविधाएँ उपलब्ध करानेवाला शूद्र होता था; प्रत्येक का लक्ष्य अलग होने से स्पर्धा नहीं, सामंजस्य था।
    (६)
    आज का मात्र धन लक्ष्य़ी समाज होने के कारण; समाज, गला काट स्पर्धा का आधार बन चुका है।
    तो ईर्षा, मत्सर, द्वेष, ऐसे दुर्गुणों से पोषित भ्रष्टाचार का अजगर देश को निगल गया। कमर टूट चुकी है।

    (७)
    जिस के कारण हमारा सनातनत्व था। उन मूल्यों का लगभग समाप्त होना; भय सूचक घण्टा है।
    संस्कृत के साथ संस्कृति यदि पुनर्स्थापित हुयी; तो, ही हम बच सकते हैं।

    सावधान।

  2. यह लेख संस्कृत के महत्त्व को अच्छी तरह प्रकट करता है । लेखक ने एक अच्छी बात कहीं है कि संस्कृत या किसी भाषा को किसी जाति या धर्म या वर्ग से जोड़ना उस के विकास में बाधक है । हर भाषा उस की है जो उसे चाव से पढ़ता है और जो उस की प्रेमी है ।

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