अखबारी नेताओं के ऊल-जलूल बयान

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-निर्मल रानी-

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आमतौर पर लगभग प्रत्येक व्यक्ति इस बात का इच्छुक होता है कि समाज में उसकी अपनी अलग पहचान बने, उसे शोहरत हासिल हो, लोग उसे चेहरे और नाम के साथ जानें-पहचानें तथा उसका स मान करें। हमारे भारतीय समाज में तो खासतौर पर प्रसिद्धि व मान-स मान का कीड़ा लगभग प्रत्येक ज़ेहन में पलता देखा जा सकता है। अनेक लोग अपने सद्कर्मों के कारण तथा समाज में की जा रही अपनी सेवाओं व समाज के प्रति अपने योगदान के चलते अपनी इन आकांक्षाओं को पूरा करने में सफल रहते हैं। परंतु स्वयं को अपने कर्मों अथवा आचरण के द्वारा प्रसिद्धि के द्वार तक पहुंचाना भी कोई आसान काम नहीं है। स्वयं को उस मुक़ाम तक पहुंचाने के लिए जहां कि मीडिया व अखबार उसके विषय में कोई खबर अथवा लेख प्रकाशित करने लगें, आसान काम नहीं है। इसके लिए कड़ी मेहनत,सच्ची लगन, तपस्या, कुर्बानी तथा योग्यता आदि की ज़रूरत होती है। परंतु ऐसे लोग जो इस कठिन व दुर्गम मार्ग पर चलने की क्षमता नहीं रखते न ही उनमें ऐसा दृष्टिकोण व सलाहियत होती है इसके बावजूद वे शोहरत भी हासिल करना चाहते हैं तो इसके लिए वे कुछ ऐसे नाटकीय कर्मों का सहारा लेते हैं, जिसकी वहज से मीडिया उनकी ओर आकर्षित हो और ऐसे लोग अखबारों में सुिर्खयां बना पाने में कामयाब रहें। अपने इस खोखले मकसद को हासिल करने के लिए यदि उन्हें ऊट-पटांग व ऊल-जलूल बातें भी करनी पड़ें अथवा बेसिर-पैर के निरर्थक बयान भी देने पड़ें तो भी उन्हें इसमें कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं होती।

मिसाल के तौर पर आज यदि कोई गुमनाम सा व्यक्ति यह बयान जारी कर दे कि आईएस प्रमुख अबु बकर अल बगदादी का सिर काट कर लाने वाले को एक लाख डॉलर का इनाम दिया जाएगा। निश्चित रूप से अल बगदादी का नाम सुनकर तथा उसके सिर की लगी भारी कीमत की खबर सुनकर मीडिया एक बार ज़रूर बयानबाज़ी करने वाले उस व्यक्ति की ओर आकर्षित होगा और उसके इस बयान को प्रमुखता से प्रकाशित करेगा।
जबकि मीडिया यदि चाहे तो इस प्रकार का बयान देने वाले व्यक्ति से यह भी
पूछ सकता है कि उस व्यक्ति की अपनी हैसियत क्या है जो इतने बड़े
आतंकी सरगना के सिर की कीमत लगा रहा है? दूसरा सवाल यह भी कि
वह कहां से एक लाख डॉलर की रकम का प्रबंध करेगा? परंतु मीडिया
जोकि स्वयं इन दिनों ऐसी बेतुकी खबरों या बयानबाजि़यों की
फिराक में लगा रहता है और प्रतिस्पर्धा के दौर में अपनी टीआरपी
बढ़ाने के लिए कुछ ऐसी ही चटपटी व मसालेदार खबरों व बयानों की
प्रतीक्षा भी करता रहता है, वह आनन-फ़ानन में ऐसी खबरों को
तरजीह देते हुए प्रमुखता से प्रसारित व प्रकाशित भी कर देगा। और ऐसी
खबर के प्रकाशित होते ही इस प्रकार का बयान जारी करने वाले किसी
भी छुटभैये नेता का शोहरत हासिल करने का मकसद पूरा हो जाता
है। इस प्रवृति के सड़कछाप नेता यह बात भलीभांति जानते हैं कि न तो
कोई व्यक्ति बगदादी के पास पहुंच सकेगा और न ही उसका सिर कलम
कर सकेगा और न ही उस नेता को एक लाख डॉलर की रकम का प्रबंध
करने की नौबत ही आएगी। लिहाज़ा आंखें बंद करके मुंह खोल देने में
हर्ज ही क्या है?

कुछ समय पूर्व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक नेता जोकि स्थानीय स्तर पर तो अपनी पहचान ज़रूर रखते थे तथा उत्तर प्रदेश में
विधायक व मंत्री जैसे पदों पर भी रह चुके थे। उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर
कोई भी नहीं जानता था। उन्होंने डेनमार्क में हज़रत मोहम्मद साहब
का विवादित कार्टून बनाए जाने के विरुद्ध एक विवादास्पद बयान जारी किया।
उन्होंने ऐसा कार्टून बनाने वालों के सिर की भारी कीमत लगा दी।
अखबारों सहित टेलीविज़न चैनल्स ने उनके इस बयान को प्रमुखता से
उछाला। रातों-रात यह हज़रत राष्ट्रीय स्तर के मुस्लिम नेता के रूप में
स्थापित हो गए। न ही इनके आह्वान पर कोई व्यक्ति कार्टूनिस्टों की
गर्दन काटने गया न ही उन्हें किसी को अपनी घोषित की हुई भारी
धन-राशी देनी पड़ी। मगर बैठे-बिठाए इनके हिस्से में शोहरत
ज़रूर आ गई। यानी सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। इसी
तरह स्थानीय स्तर पर भी और भी कई पेशेवर किस्म के छुटभैय्ये नेता
हैं जो अपने छोटे मुंह से बड़ी-बड़ी बातें हांक कर मीडिया में अपनी
जगह बनाने से नहीं हिचकिचाते। बावजूद इसके कि ऐसे लोगों को समाज
भली-भांति समझ चुका होता है। यहां तक कि उनका नाम अखबारों में
देखकर पहले अपनी नाक-मुंह सिकोड़ता है उसके बाद उनकी खबर को
अनमने तरीके से महज़ यह जानने के लिए पढ़ता है कि देखें आज अमुक
शरारती तत्व ने कौन सा बयानी विस्फोट किया है। भारतीय मीडिया में
हालांकि ऐसे लोगों को ‘बयान बहादुर का खिताब भी दिया गया है।
परंतु पूरी तरह से बेहयाई का जामा धारण कर चुके ऐसे
लोगों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। इन्हें तो सिर्फ अखबारों में अपनी
खबर,अपना नाम और हो सके तो अपना चित्रा प्रकाशित कराने भर से
वास्ता है।

जैसे कि कश्मीर में अलगाववादी लोग अक्सर भीड़-भाड़ वाली
जगहों पर रैलियां या जुलूसों में अथवा किसी प्रदर्शन के दौरान
पाकिस्तान का झंडा लहराते देखे जा सकते हैं। अलगाववादियों व पाक
परस्त ऐसे कश्मीरियों के खिलाफ भारत सरकार भारतीय मीडिया,लेखक व
टिप्पणीकार, शासन व प्रशासन तथा ज मु-कश्मीर राज्य की मशीनरी अपने
तरीके से उस का विरोध करती है तथा ऐसी घटनाओं की निंदा भी
की जाती है। परंतु इन सब कुटनीतिक तरीकों से अलग हट कर कुछ
पेशेवर छुटभैय्ये नेता जिनका अपना न तो कोई जनाधार होता है न
ही उन्हें राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की कोई समझ, वे भी इतने
बड़े विषय पर अपने तरीके से अपनी प्रतिक्रिया देकर शोहरत हासिल
करने के मकसद से कुछ अलग तरीके से अपना विरोध दर्ज करवाते हैं।
ऐसे लोग स्वयं अकेले या अपने परिवार के दो-एक सदस्यों के साथ अथवा
अपनी मित्र मंडली के दो-चार साथियों को लेकर सर्वप्रथम मीडिया को
आमंत्रित करते हैं या अपना फोटोग्राफर बुलाते हैं। उसके बाद
कैमरे के समक्ष पाकिस्तानी झंडा जलाकर अपना रोष व्यक्ति करते हैं।
हालांकि समाज में अथवा राजनीति के क्षेत्र में ऐसे लोगों की अपनी
कोई अहमियत अथवा गिनती भी नहीं होती। परंतु पाकिस्तानी झंडे
जलाकर वे मीडिया में सुिर्खयां बटोरने में ज़रूर कामयाब हो जाते
हैं। यह लोग वही लोग हैं जो जब चाहे किसी के सिर की भी कीमत लगा
देते हैं।

कुछ वर्ष पूर्व एक इसी प्रकार के बड़बोले परंतु छुटभैय्ये नेता का एक बयान अखबार में पढ़ने को मिला था। उसमें लिखा था
कि यदि भारत सरकार व भारतीय सेना पाक अधिकृत कश्मीर में मौजूद
आतंकवादियों के प्रशिक्षण कैंप पर हमले नहीं कर सकती तो वह मुझे
हैलीकॉप्टर उपलब्ध कराए और मैं जाकर उन ट्रेनिंग कैंपों को
नष्ट कर दूंगा जो पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा संचालित
किए जा रहे हैं। अब ज़रा इस वक्तव्य के रचनात्मक व प्रायोगिक पहलू पर
गौर किजिए। क्या यह सारी बातें इतनी आसान व संभव हैं जितनी कि उस
नेता ने अपने बेतुके बयान में इतने हलके तरीके से कह डालीं? क्या
किसी देश की सेना किसी आम व्यक्ति के कहने पर उसे हैलीकॉप्टर अथवा
शस्त्र उपलब्ध करा सकती है? यदि ऐसा संभव होता अथवा इतना आसान होता
तो क्या हमारी सेना के जवान स्वयं ही यह काम न कर डालते? अब इसी बात
के दूसरे पहलू पर भी गौर कीजिए कि यदि उस छुटभैय्ये नेता को
हैलीकॉप्टर उपलब्ध करा भी दिया जाए तो क्या वह उस हैलीकॉप्टर
को उड़ा सकेगा? बिना नक़्शे तथा वायुमार्ग के ज्ञान के बिना वह आतंकी
कैंपों तक कैसे पहुंच सकेगा? और यदि यह सबकुछ संभव हो भी गया
तो वह स्वयं को उन आतंकियों के हमले से कैसे बचा सकेगा? परंतु
ऐसे ‘बयान बहादुर’ नेताओं को इन सब बातों को सोचने की न तो
ज़रूरत महसूस होती है न ही वे इन बयानों की बारीकियों को समझना
व मानना चाहते हैं। इनका तो एक मात्र मकसद यही होता है कि कुछ
ऐसा विवादित व निराला वक्तव्य जारी करो जो उनकी अपनी हैसियत व उनके
कद से कहीं ऊंचा हो। और ऐसा बयान मीडिया का ध्यान अपनी ओर
आकर्षित करता रहे तथा प्रसिद्धि प्राप्त करने का शार्टकट मार्ग जो
उन्होंने अपना रखा है उसमें सफलता हासिल हो सके। मीडिया को ऐसे
अखबारी नेताओं के उल-जलूल बयानों से परहेज़ करना चाहिए। तथा
बेसिर-पैर की ऐसी बयानबाजि़यों को प्रकाशित करने के बजाए उस स्थान
पर कोई सार्थक व समाज कल्याण संबंधी समाचार प्रकाशित करने को
अधिक महत्व देना चाहिए।

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