उल्‍लासधर्मा है भारत का मन

हृदयनारायण दीक्षित

भारत का मन उल्लासधर्मा है। व्यक्ति की तरह राष्ट्र का भी अंतर्मन होता है। भारत का मन हजारों वर्ष प्राचीन संस्कृति के अविरल प्रवाह का सुफल है। संस्कृति के निर्माण में वेद, उपनिषद्, पुराण, महाकाव्य और सतत् जिज्ञासा वाले वैज्ञानिक दृष्टिकोण की खास भूमिका है। वेदों में भरा पूरा समाज है। ‘ऋग्वेद’ विश्व ज्ञान का प्रथम एनसाइक्लोपीडिया है। यहां मानव सुलभ सांसारिक इच्छाएं है। रूप, रस, गंध, स्पर्श और छंद के आनंद है। भारत का मन मधुमय है। ऋषि वायु, जल, ध्वनि सहित इंद्रियबोध से प्राप्त सभी रसों, स्वादों में मधुप्रिय है। ‘ऋग्वेद’ के ऋषि एक परंपरा है पर विश्वामित्र, वशिष्ठ अनूठे हैं। दोनो ‘ऋग्वेद’ के मंत्र द्रष्टा ऋषि है। दोनो सैकड़ों वर्ष बाद रामकथा में भी है। वे व्यक्ति नाम हैं लेकिन संस्था भी है। अथर्वा ‘ऋग्वेद’ के प्रमुख द्रष्टा है। उनका गाया भूमि सूक्त विश्व की अनूठी काव्य अनुभूति है। वाल्मीकि आदिकवि कहे जाते है, उनकी रची ‘रामायण’ अद्भुद इतिहास गाथा है। व्यास दिलचस्प हैं। जैसा नाम वैसा काम, संस्कृत में व्यास का अर्थ विस्तार होता है। व्यास का काम आश्चर्यजनक रूप से व्यापक और विस्तृत है। 98000 श्लोकों वाली विश्व की सबसे बड़ी कृति ‘महाभारत’ की रचना के अलावा वेदों के संकलन का श्रेय भी उन्हें ही मिला है।

अनेक विद्वान वेदों को ‘अपौरूषेय’ बताते है, अनेक इन्हें ऋषियों द्वारा देखी गई और काव्यबध्द की गई ऋचांए कहते हैं। ‘ऋग्वेद’, ‘यजुर्वेद’ के कालनिर्धारण को लेकर भी दिलचस्प बहस चलती है। तिलक और ए0सी0 दास जैसे विद्वान ‘ऋग्वेद’ को हजारों वर्ष प्राचीन मानते है। यूरोपीय विद्वानर् ईष्यावश इसे ईसा के 2000 वर्ष पहले की रचना बताते है। इसी तरह कुछ विद्वान वेदों की संख्या 3 बताते है, वे ‘अथर्ववेद’ को नहीं गिनते। ज्यादातर विद्वान 4 वेद मानते है। भारत का अंतर्मन इस बहस में नहीं पड़ता। वेद उसकी सनातन पूँजी है। विश्व ज्ञान का आदि स्रोत है। वे ज्ञान गंगा का गोमुख हैं। सो आराध्य है, वरेण्य हैं। बार-बार गुनगुनाने योग्य भी है।

ऋषि विश्वामित्र हैं। वे ‘ऋग्वेद’ (3.62) के विश्वख्यात गायत्री मंत्र के द्रष्टा/ऋषि/प्रवक्ता है। लेकिन त्रेता की रामकथा में वे श्रीराम व लक्ष्मण को शस्त्र विद्या भी सिखाते हैं। वशिष्ठ ‘ऋग्वेद’ के द्रष्टा/ऋषि है। वे राम से 65 पीढ़ी पहले हुए इक्ष्वाकु के समय है और श्री राम के समय भी है। दोनो के नाम भी विशिष्ट अर्थ वाले है। विश्वामित्र के नाम में विश्ववरेण्य प्रतीति है, उनके कथन में ‘तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य’ (गायत्री) अनुभूति है। शब्द वशिष्ठ में ‘ष्ठ’ वरिष्ठ या कनिष्ठ की तरह प्रयुक्त हुआ। वस का अर्थ है वास, प्रवास, निवास, वासी, निवासी आदि। वशिष्ठ भारत वासी निवासी जनों में विशिष्ट, वरिष्ठ ‘वशिष्ठ’ हैं। ‘ऋग्वेद’ के 7वें मंडल के प्रथम सूक्त, प्रथम मंत्र में ही वशिष्ठ अग्नि की स्तुति करते हुए उन्हें श्रेष्ठ मनुष्यों के हाथों और उंगलियों द्वारा प्राप्त किया हुआ बताते है। अग्नि वैदिक काल के बहुत बड़े देवता है लेकिन मनुष्य उन्हें ‘कर्म-कुशलता’ से प्राप्त करते हैं। यहां कोई अंध आस्था नहीं है।

वेद आदि-ज्ञान हैं। विश्वामित्र वशिष्ठ आदि ऋषियों की ही तरह वाल्मीकि की ‘रामायण’ ने समूची पृथ्वी को प्रभावित किया। डॉ. सूर्यकांत बाली ने ‘भारत गाथा’ नामक प्रीतिकर ग्रंथ में एक अध्याय का नाम रखा है कुलपति वाल्मीकि। वे लिखते (भारत गाथा पृष्ठ-111) हैं वाल्मीकि को ब्राह्मणइतर खासकर व्याध मानने की परंपरा साहित्य में तो सशक्त है ही लोगों की जुबान पर आज तक चढ़ी हुई है। डॉ0 बाली दलित समाज को धन्यवाद देते हैं दलित कहा जाने वाला समाज धन्यवाद का पात्र है कि उसने वाल्मीकि को सांगोपांग अपनाकर लौकिक संस्कृत के इस आदि कवि का वह परिचय हमें करवा दिया है जिसे देश भूलने के कगार पर था (वही ः पृष्ठ-110) वाल्मीकि व्याध्र होकर भी तत्कालीन/आधुनिककालीन जन्मना ब्राह्मणों के सिरमौर बने। भारत में ज्ञान के क्षेत्र सबके लिए थे। यह आरोप गलत है कि विद्याध्ययन दर्शन और काव्य सृजन पर केवल ब्राह्मणों का ही अधिकार था। व्यास को ही लीजिए। यमुना तट पर एक मत्स्यजीवी समाज था। इसी समाज की कन्या सत्यवती और पराशर से व्यास का जन्म हुआ। सत्यवती आद्रिका नामक अप्सरा की पुत्री थी। अप्सरा शब्द संस्कृत के अप (जल) से बना है। अप्सरा का भारतीय मतलब है जलदेवी और भौतिकवादी अर्थ है जल व्यवसाय से जुड़ी कन्या। व्यास और घृताची के प्रेम से परम विद्वान शुकदेव का जन्म हुआ। सत्यवती और पराशर से व्यास जन्मे। सत्यवती ने पराशर को परिचय दिया, मैं नाव चलाती हूँ, निषाद पुत्री हूँ। (आदि पर्व महा.-103.9) उसकी भेंट शांतनु से हुई उसने उनको भी वही परिचय दिया। (वही ः 100.48/49) शांतनु-सत्यवती से चित्रांगद और विचित्रवीर्य का जन्म हुआ। उनका असमय ही निधन हो गया। शांतनु और गंगा से भीष्म थे। सत्यवती ने वंशवृध्दि के लिए भीष्म को बुलाया लेकिन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा आड़े आई। व्यास से सत्यवती ने कहा कि तुम मेरे प्रथम पुत्र हो, विचित्रवीर्य छोटा। माता के नाते वह तुम्हारा भाई है। इसलिए उनकी पत्नियों से तुम संतान उत्पन्न करो (वही ः 104.33.34) धृतराष्ट्र और पान्डु व्यास की संताने हुई। धृतराष्ट पांडु और उनके पिता व्यास को किस वर्ण का माने? व्यास पिता पराशर की दृष्टि से मुनिपुत्र है वे मां के पक्ष से धीवर हैं। धृतराष्ट्र, पांडु पिता की दृष्टि व्यास पुत्र है मातृ पक्ष से वे काशिराज की कन्याओं से पैदा हैं।

प्राचीन महानायकों को वर्ण, जाति की दृष्टि से देखने, की बात ही गलत है। मनु ने जाति व्यवस्था/वर्ण व्यवस्था नहीं बनाई। मनु ‘ऋग्वेद’ में हैं। ‘ऋग्वेद’ के समय वर्ण नहीं थे। मनुस्मृति में तत्कालीन समाज व्यवस्था का वर्णन है। डॉ0 अंबेडकर ने भी मनु को वर्ण व्यवस्था/जाति व्यवस्था का जनक नहीं माना। ‘महाभारत’ दीर्घकाल तक लिखी गयी। रचना के प्रारंभिक काल में वर्ण व्यवस्था जन्मना नहीं थी, वरना पराशर, व्यास, धृतराष्ट्र और पांडु की जाति का उल्लेख होता। गीता ‘महाभारत’ का हिस्सा है। गीता के चौथे अध्याय में कर्म आधारित चार वर्णो का उल्लेख है। (गीता-4.13) ऋग्वैदिक काल में वर्ण नहीं थे। ‘ऋग्वेद’ के पहले भी एक विकासमान संस्कृति थी। ‘ऋग्वेद’ में जन्मना वर्ण नहीं है। सिर्फ पुरूष सूक्त (10वाँ-मंडल) में ब्राह्मण राजन्य, वैश्य, शूद्र के उल्लेख हैं, वर्णो के नहीं।

‘ऋग्वेद’ के पुरूष सूक्त का अर्थ या अनुवाद आसान नहीं है। ऋषि कहते है ‘पुरूष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भत्यं’ – यह पुरूष ही सब कुछ है, जो हो गया, जो होगा सब पुरूष है। (ऋ0 10.90.2) लेकिन ऋषि आगे कहते हैं, पुरूष का विभाजन होने लगा, भूमि आदि पिण्डो और प्राणियों की उत्पत्ति हुई। (वही ः 5) लेकिन आगे इसी पुरूष को यज्ञ प्रतीक देते हैं। कहते हैं, देवताओं ने उस विराट पुरूष को ह्वि बनाया। वसन्त ऋतु को घी बनाया, ग्रीष्म ऋतु को ईधन (लकड़ी) और शरद् को ह्विष्य। (वही 6 व 7) इससे नभचर, थलचर प्राणी उत्पन्न हुए। ऋक और ‘यजुर्वेद’ की ऋचाएं आई। आदि। मंत्र 11 ज्यादा ध्यान देने योग्य हैं ‘यत्पुरूषं व्यदधु कतिधा व्यकल्पयन’ – ज्ञानी जानी इस पुरूष की कितने प्रकार से कल्पना करते हैं? – ‘कतिधा कल्पयन’ विचारणीय है।

पुरूष विराट है तो कल्पनाए भी तमाम होगी। ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र वाला मंत्र 12 इसी कल्पना का विस्तार है। इस कल्पना में पुरूष एक प्राणी है। इसका मुख ब्राह्मण है। सबका मुख ब्राह्मण ही होता है। मुख से वाक् है, वाक् का केन्द्र अग्नि ऊर्जा है। क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि सभी आधुनिक वर्णो का मुख ब्राह्मण ही है। फिर बताते हैं, बाहू राजन्य हैं। प्रत्येक पुरूष, एक ‘पुर’ (नगर) है। पुर की रक्षा का काम बाहु-हाथ करते है। इस कल्पना में जन्मना ब्राह्मण के हाथ भी क्षत्रिय हैं। इसी तरह पुरूष का पेट वैश्य है। वैश्य संग्रही वृत्ति का प्रतीक है। सभी मनुष्यों का पेट वैश्य है संग्रही है। पैर आधार हैं। शूद्र भी आधार हैं। आधार पर ही संग्रह, सुरक्षा और शीर्ष का ढांचा खड़ा होता है। ऋग्वेद में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का अर्थ वर्ण या जाति नहीं है। प्रत्येक मनुष्य का मुख वाक् केंद्र है, प्रत्येक मनुष्य के बाहु सुरक्षा है, प्रत्येक मनुष्यों का पेट संग्रह केंद्र है और प्रत्येक मनुष्य के पैर आधार है। इस मंत्र का अर्थ वर्ण व्यवस्था के रूपक में नहीं लिया जाना चाहिए। विराट पुरूष से ब्राह्मण क्षत्रिय आदि की उत्पत्ति की बात सर्वथा गलत है। कैसे पैदा होंगे? भारत के सुदूर अतीत में एक वर्णहीन, उल्लासधर्मा समाज था। वैसा ही वर्णहीन जातिहीन समाज बनाना हिंदुत्व की अपरिहार्यता है।

* लेखक उत्तर प्रदेश विधान परिषद सदस्य हैं।

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