क्षीण हुई ‘महाप्रदेश’के विभाजन की संभावनाएं

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निर्मल रानी

पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का मत था कि राजनीतिज्ञों की दिलचस्पी समस्याओं को पैदा करने व उन्हें बरकरार रखने में रहती है। क्योंकि उनका अस्तित्व ही समस्याओं के चलते है। यदि समस्याएं नहीं होंगी फिर राजनीतिज्ञों को पूछेगा कौन? लिंकन का उक्त कथन समय-समय पर पूरे विश्व में क हीं न कहीं अक्सर साकार होते हुए दिखाई देता है। ज़ाहिर है भारत भी इसका अपवाद नहीं है। हमारे देश में भी अनेक राजनैतिक दलों के नेताओं की ओर से अक्सर ऐसे शगूफे छोड़े जाते रहे हैं जिन्होंने कि ठहरे हुए पानी में पत्थर मारने जैसा काम समाज में किया है। गोया कभी धर्म के नाम पर समस्या खड़ी करने की चाल तो कभी जाति क्षेत्र,भाषा,संस्कृति आदि जैसे मुद्दे उछाल कर उन पर अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने का प्रयास।

पिछले दिनों देश में हुए पांच राज्यों के चुनावों की घोषणा होने से ठीक पहले उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने भी एक ऐसा ही समस्या पैदा करने वाला कार्ड खेलने की कोशिश की थी । उनका अंदाज़ा था कि प्रदेश का दलित वोट बैंक तो उनके साथ है ही परंतु यदि वे प्रदेश को चार राज्यों में विभाजित करने का मुद्दा चुनावों में उछाल देती हैं तो इन चारों नव प्रस्तावित राज्यों के अन्य वर्गों के मतदाता भी उनके दल को अपना समथर्न देंगे। और इसके बाद भले ही सत्ता में वापस आने पर मायावती स्वंय विभाजन के इसी प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में ही क्यों न डाल दें। राजनैतिक दृष्टि कोण से कितना सनसनीख़ेज़ था लखनऊ का उस दिन का राजनैतिक वातावरण जबकि मायावती ने विधानसभा का सत्र बुलाकर मात्र एक मिनट के भीतर उत्तर प्रदेश को पश्चिम प्रदेश, पूर्वांचल, अवध प्रदेश तथा बुंदेलखंड जैसे चार छोटे राज्यों में विभाजित करने का प्रस्ताव बड़े ही हैरतअंगेज़ ढंग से आनन फानन में पारित करवा कर इस प्रस्ताव को प्रदेश सरकार की ओर से केंद्र सरकार को भेज दिया था। मायावती के उस प्रस्ताव को हालांकि केंद्र सरकार ने कुछ आपत्तियों व प्रश्रों के साथ राज्य सरकार को पुन: वापस तो ज़रूर कर दिया था। परंतु उस प्रस्ताव के आने के बाद न सिर्फ कांग्रेस बल्कि भारतीय जनता पार्टी भी असमंजस की स्थिति में ज़रूर पड़ गई थी। विभाजन का प्रस्ताव कांग्रेस व भाजपा के लिए गले की हड्डी बन गया था। यह दोनों राष्ट्रीय राजनैतिक दल विभाजन के इस प्रस्ताव का न तो खुलकर विरोध कर पा रहे थे न ही इसे पूरी तरह से अपना सर्मथन दे पा रहे थे। हां अजीत सिंह, अमर सिंह व राजा बुंदेला जैसे लोगों ने मायावती के प्रस्ताव का समर्थन ज़रूर किया परंतु चुनाव परिणामों के बाद इन सभी का हश्र भी या तो मायावती जैसा हुआ या फिर इससे भी बुरा।

ठीक इसके विपरीत समाजवादी पार्टी ने इस मुद्दे पर प्रदेश में अपना वैसा ही एकतरफर रुख अपनाया जैसाकि पार्टी महिला आरक्षण विधेयक के मुद्दे पर अपना चुकी है। यानी प्रस्ताव का खुलकर विरोध करना। लिहाज़ा सपा ने प्रदेश के विभाजन के प्रस्ताव का भी इसी प्रकार खुलकर विरोध किया। सपा राज्य के विभाजन के पक्ष में क़ तई नहीं थी । परिणामस्वरूप समाजवादी पार्टी राज्य में 224 सीटों जैसे भारी बहुमत से विजयी होकर सत्ता में आ गई। जबकि राज्य को विभाजित करने का शोशा छेडऩे वाली मायावती को मात्र 80 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। राज्य के मतदाताओं के इस निर्णय से साफ हो जाता है कि राज्य की जनता को प्रदेश के बंटवारे में कोई दिलचस्पी नहीं है। बजाए इसके अधिकांश प्रदेशवासी संयुक्त महाप्रदेश अर्थात उत्तर प्रदेश में ही रहने के पक्षधर हैं। मायावती के राज्य के विभाजन के प्रस्ताव को लपकने वाले अमर सिंह का तो पूरे उत्तर प्रदेश में विशेषकर उनके पसंदीदा पूर्वांचल राज्य के मतदाताओं ने तो उनका ऐसा बुरा हाल किया कि वे चुनाव के बाद सीधे सिंगापुर जा पहुंचे थे। उनके आगे-पीछे दिखाई देने वाले चंद प्रमुख चेहरे भी अपने चेहरे छिपाते नज़र आ रहे हैं। जबकि उन्हें दलाल के रूप में प्रचारित करने वाले आज़म खान इस समय प्रदेश में अपनी कद्दावर हैसियत बना चुके हैं। ख़बरों के अनुसार अमरसिंह की पार्टी लोकमंच के लखनऊ स्थित मुख्यालय में चुनाव परिणाम आने के बाद से ही ताला लटका हुआ है तथा उस पर धुल पड़ रही है। उस ऑफिस का खुलना या उसमें लोगों का आकर बैठना तो दूर, खबर तो यह है कि आम लोग उस कार्यालय के सामने से गुज़रने से भी परहेज़ कर रहे हैं। इसी प्रकार राज्य के विभाजन के एक और पैरोकार चौधरी अजीत सिंह को भी प्रस्तावित हरित प्रदेश क्षेत्र में वह सफलता नहीं मिल सकी जिसकी उन्हें उम्मीद थी। जबकि चौधरी अजीत सिंह को हरित प्रदेश के आर्किटेक्ट में सबसे बड़े नेता के रूप में देखा जाता है। इसी तरह एक बार 2002 में हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला ने भी अपने राजनैतिक प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करने के उद्देश्य से उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी सेंधमारी करने के लिए हरित प्रदेश राज्य के गठन के मुद्दे को उछाल कर उत्तर प्रदेश के 2002 विधानसभा चुनावों में अपने प्रत्याशी उसी काल्पनिक हरित प्रदेश (पश्चिमी उत्तर प्रदेश)क्षेत्र में उतारे थे। उनका भी हश्र वहां कुछ ऐसा ही हुआ कि वे उत्तर प्रदेश का रास्ता भूलने को मजबूर हो गए।

इसमें कोई शक नहीं कि प्रशासनिक व व्यवस्था संचालन के दृष्टिकोण से छोटे राज्य का गठन कुछ मायने में लाभप्रद भी होता है। जिस प्रकार पंजाब से अलग हो कर हरियाणा व हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों ने विकास की राह तय की है उसी प्रकार उत्तर प्रदेश से अलग हुए उत्तराखंड राज्य में हुए विकासकार्यों को भी इसके उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। परंतु पंजाब,हिमाचल तथा उत्तराखंड के विषय में यह भी सत्य है कि वहां की भौगोलिक परिस्थिति,वहां का रहन-सहन,संस्कृति, रीति-रिवाज भी अपने-अपने प्रदेश के शेष क्षेत्र से भिन्न थे। इसलिए हिमाचल व उत्तराखंड के अलग होने को पूरी तरह से केवल उस नज़रिए से नहीं देखा जा सकता जिस नज़रिए से शेष प्रदेश को विभाजित करने की बात की जा रही है। छोटे राज्यों के गठन से होने वाले नुकसान में छत्तीसगढ़ जैसे खनिज एवं वन संपदा से संपन्न राज्य का नक्सलवाद की गिरफ्त में आ जाना देखा जा सकता है। इसी प्रकार भ्रष्टाचार हालांकि पूरे देश में इस समय एक समस्या बन चुका है। अनेक नेता भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं। परंतु यह संभवत: झारखंड जैसे छोटे राज्य के गठन व इस राज्य में पैदा हुए नए राजनैतिक समीकरण का ही दुष्परिणाम था कि राज्य को मधु कौड़ा जैसा महाभ्रष्ट व्यक्ति मुख्यमंत्री के रूप में मिला। शायद संयुक्त बिहार में मधु कौड़ा जैसा व्यक्ति अपने राजनैतिक $कद को इतना ऊंचा कर ही न पाता कि वह राज्य का मुख्यमंत्री बन बैठता।

कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनावों के परिणामों ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि दरअसल राज्य को विभाजित करने तथा उसे पुनर्विभाजित करने की चिंता आम लोगों की चिंता कतई नहीं है। आम भारतीय नागरिक चाहे व प्रदेश के किसी भी राज्य अथवा क्षेत्र का निवासी क्यों न हो उसकी सबसे बड़ी व पहली समस्या,फिक्र व सोच जो कुछ भी है वह यही है कि उसके पास रोटी,कपड़ा और मकान की समुचित व्यवस्था हो। चारों ओर रोज़गार,व्यवसाय व कृषि का उत्तम वातावरण हो। सडक़,बिजली व पानी की समुचित व्यवस्था हो। शिक्षा व स्वास्थय की पर्याप्त सुविधाएं हों। स्वच्छ व भयमुक्त वातावरण, भ्रष्टाचार मुक्त शासन व प्रशासन हो। कानून व्यवस्था का बेहतर प्रबंध हो तथा देश के जि़म्मेदार राजनीतिज्ञों का स्तर ऐसा हो जिसपर देश के नागरिक गर्व कर सकें। समस्याओं को पैदा करने इन्हें सींचने व पौषित करने वाले राजनैतिक दलों व ऐसी प्रवृति के नेताओं को अब यह बात बखूबी समझ लेनी चाहिए कि अब इस देश की जनता व मतदाता पहले जैसे साधारण व भेड़चाल की तरह मतदान करने वाले नहीं रहे। मतदाता अब शायद नेताओं से ज़्यादा समझदार हो चुके हैं और उनके हर इरादों के बारे में समय से पहले ही यह समझ जाते हैं कि इनके किस शगू$फे व शोशे का वास्तविक अर्थ क्या है तथा देखने व सुनने में वह शगूफा लग क्या रहा है। मायावती के उत्तरप्रदेश को विभाजित करने के प्रस्ताव की प्रदेश के मतदाताओं द्वारा धज्जियां उड़ाया जाना तथा पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनावों के दौरान किसी भी राजनैतिक दल द्वारा यहां तक कि मतदाताओं द्वारा भी इस तथाकथित समस्या रूपी मुद्दे को मुद्दा ही न समझा जाना अपने-आप में इस बात का सबसे बड़ा सुबूत है। कुल मिलाकर समाजवादी पार्टी द्वारा प्रदेश की सत्ता संभाले जाने के बाद अब पूरे विश्वास के साथ यह कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश जैसे देश के ‘तीर्थ प्रमुख महाप्रदेश’ के विभाजन की संभावनाएं निकट भविष्य में क्षीण हो कर रह गई हैं।

1 COMMENT

  1. भ्रस्ताचार और प्रान्त निर्माण में कोई सम्बन्ध नहीं है
    बड़े बड़े प्रान्तों को छोटी ईकैयों में बांटना आवश्यक है
    संघ के प्रान्तों को ही देखिये उन्होंने कितने प्रांत क्यों बनाये है
    राजनीती करनी अलग बात है
    सभी क्षेत्रों का विकास आवश्यक है
    इसलिए बिहार से मिथिला और उत्तर प्रदेश से भोजपुर(पूर्वांचल नहीं), अवध, पश्चिम के बदले दूसरा नाम चुना जाय
    भारत के सभी प्रान्त २.५ से ५ % आबादी और या क्षेत्रफल के हो कोई ३०-प्रान्त बराबर के बने केन्द्रशाषित या तो नहीं हो या ५० लाख से ऊपर के मेट्रो केवल हों ऐसे अनेक विचारणीय बिंदु दूसरे राज्य पुनर्गठन के पास होंगे
    एक तरफ उत्तर प्रदेश(जो उत्तर में नहीं है- युक्त प्रान्त के UP उनितेद प्रोविंस को रखने बना, बिहार जो बुद्ध विहार केवल कुछ समय ही रहा, वब जो पश्चिम नहीं(EB बंगलादेश हो गया), महाराष्ट्र( रास्त्र से बड़ा कौन इसलिए ठाकरे अनाव्श्यक्ल बोलते), तमिलनाडु)नाडू क्यों)..आदि अनेक नाम बदलने होंगे- १२-१५ लक्ख के पूर्वोत्तर के प्रान्त को बड़ी इकाइयों में समेटने होंगे मैंने १९९६मे एक विचार लिखा था–
    Proposed States and their capitals with population and areas in the percentage of our country, Bharat as well population density / sq. km.:
    Proposed State Capital Area Population Density
    1. Jammu-Kashmir-LaddakhSrinagar,Jammu 6.76 0.98 45
    2. Punjab Chandigarh 1.53 2.46 499
    3. Kendriya Pradesh Delhi 3.08 3.99 404
    4. Harit Pradesh Kannauj 1.80 3.84 664
    5. Uttaranchal Dehra Dun 2.59 3.58 379
    6. Avadh Lucknow 2.10 4.66 694
    7. Vindhya-Bundelkhand Jhansi 3.85 2.66 221
    8. भोजपुर Jaunpur 1.66 4.12 776
    9. Bihar Patna 1.40 3.79 847
    10. Mithila Barauni 1.70 4.61 849
    11. Udayachal Bongaigaon 1.57 3.20 636
    12. Brahmputra Jorhat 3.55 1.39 113
    13. Barak Shillong 3.21 1.44 139
    14. Bang Pradesh Kharagpur 2.35 6.41 854
    15. Jharkhand Jamshedpur 3.58 3.14 273
    16. Utkal Bhubaneshwar 3.27 2.73 260
    17. Andhra Vijaywada 3.13 2.78 277
    18. Telangana- Rayalseema Hyderabad 5.54 4.30 242
    19. Chhattisgarh Raipur 4.11 2.03 154
    20. Vidarbh Nagpur 2.70 2.01 232
    21. Mahakaushal Jabalpur 2.78 1.51 172
    22. Madhya Bharat Bhopal 3.73 2.21 183
    23. Rajputana Jaipur 3.33 2.66 249
    24. Mewar Udaipur 2.44 1.38 176
    25. Maru Pradesh Jodhpur 4.99 1.46 91
    26. Saurashtra-Kachchh Rajkot 3.35 1.46 136
    27. Gujarat Gandhinagar 2.63 3.50 415
    28. Paschim Maharashtra Lonavala 2.94 4.74 502
    29. Purva Maharashtra Aurangabad 3.88 2.94 236
    30. Uttar Karnataka Hubli 3.57 2.54 222
    31. Dakshin Karnataka Mysore 2.20 2.52 357
    32. Kerala Kochi 1.12 3.05 849
    33. Vada Tamizhgam Chidambaram 1.80 3.05 529
    34. Then Tamizhgam Madurai 2.38 3.08 404
    (All 34 States in India Jabalpur 98.27 100.22 312)
    N.B.1. The population (2001Census) 1,02,70,15,247 and area 3,28,7,263 km2 of Bharat are in the close approximation to the total percentage shown above.
    2.Density- wise Bang Pradesh, Kerala, Mithila and Bihar are on the top.
    3. The Map given on third cover page is not to scale.
    4. The above proposition was first released in the Maithili Sandesh on 26.10.1996 Bulletin No.8 on the occasion of the all India conference of the working journalists at Ranchi. Movement for at least three States (Maru Pradesh, Uttar Karnataka and Vada Tamizhgam i.e. North Tamil Nadu) first proposed by me has already started which vindicates my hypothesis.

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