शिक्षा के अधिकार की अहमियत को समझे …

ललित कुमार कुचालिया

हमारे भारत को गावों का देश के नाम से जाना जाता है. और जिस देश की सत्तर फीसदी जनता ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती हो, जिसने अपने भीतर विभिन्न भाषाओं तथा कला संस्कृति का समावेश किया हो, आप इसी से अंदाज़ा लगा सकते हो कि ऐसे देश को शिक्षा की कितनी ज़रुरत होगी।

भारत आज़ादी से पहले जब अंग्रेजों के हाथों की कठ पुतली बना हुआ था, उस दौर में यह देश शिक्षा के स्तर को उबारने की कोशिश तो कर रहा था लेकिन ब्रिटिश हुक्मरान लोग उभरने देते भी कैसे? ये एक बड़ा सवाल बुद्धिजिवयों के मन में उठ रहा था, इनको इस बात का भी डर था कि कही ये शिक्षित हो गए तो हमारा देश में राज करने से क्या फायदा होगा? जो भी लोग उस समय के पढ़े -लिखे होते थे, वो इन्ही के यहाँ पर दो टुकडों की खातिर घर पर बंधे एक कुत्ते की तरह पहरेदारी करते थे. कहने का मतलब ये है कि पूर्ण रूप से इन गोरे लोगों के अधीन होकर चापलूसी करना, धीरे -२ समय बदलता गया देश में एक और शिक्षित वर्ग कहीं किसी कोने में पड़ा जागरूक हो रहा था. जैसे महात्मा गाँधी, डॉ. अंबेडकर, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पंडित जवाहर लाल नेहरु… इत्यादि

लेकिन वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग देश को आज़ादी दिलाने के चक्कर में जगह-२ जाकर आंदोलनों की शुरुआत कर रहे थे. अंग्रेजों का रुख अब पूरी तरह से इन आन्दोलन करने वालों की ओर केन्द्रित हो चुका था शिक्षित वर्ग इस तरफ शिक्षित होता जा रहा था. यही वर्ग देश में थोड़ी बहुत पढाई करके, विदेशी शिक्षा हासिल करने विदेशो की ओर पलायन कर रहा था. इन्होंने शिक्षा की अहमियत को समझा, क्‍योंकि इनको लग रहा था कि देश को आज़ादी लड़ाई करके मिलने वाली नहीं है. इसको शिक्षा के बल पर हासिल करना होगा. जैसे -२ ये लोग विदेशी शिक्षा हासिल करके लौटे तब इनको इस बात का एहसास हुआ कि गोरे लोग देश को कब्जाए बैठे हैं. धीरे -२ शिक्षित वर्ग ने एक शिक्षित लोगो का संगठन खड़ा करना शुरू कर दिया कि किस प्रकार इनके चुंगल से देश कों आजाद करना चाहिए. उस वक़्त भी शिक्षा का स्तर कुछ खास नहीं दिखाई दे रहा था. लेकिन लोगों का रुख शिक्षा के प्रति धीरे-२ बढ़ने लगा, देश अब आज़ादी पाने कि पूरी चरम सीमा पर पहुच चुका था।

ब्रिटिश गवर्नर लार्ड माउन्टबेटन और लार्ड मिंटो को लगा कि कही अगर यह सारा देश एकजुट हो गया तो बहुत बड़ा खतरा पैदा हो सकता है तभी उन्होंने मोहम्द अली जिन्ना पर नज़र रखनी शुरू कर दी. और अंत में देश को दो भागों बटवा ही डाला. गाँधी ने देश को हिस्सों में बाटने की मंशा जाहिर की और १४ अगस्त १९४७ को पाकिस्तान के रूप में स्वीकृति दे दी. और भारत कों १५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजों के हाथो से स्वतंत्र हो ही गया। आज़ादी मिलने के बाद भी देश के बुद्धिजीवी वर्ग ने अधिकार की अहमियत को समझा और देश में धीरे -२ साक्षरता दर का विस्तार होने लगा. देश कि जनता ने अब शिक्षा को हासिल करने की कोशिश की, आज़ादी से पहले जनता अंग्रेजों की गुलामी कर रही थी. वहीं अब ये जनता क्षेत्रियो ज़मीदारो की गुलामी करने लगे जिन लोगों ने शिक्षा की अहमियत को समझा, उन्होंने अपने बच्चों को शिक्षा के पीछे धकेल दिया.

समुन्द्र के तटवर्तिए क्षेत्र में जहां पर अंग्रेजों का वर्चस्व था. वहा शिक्षा का स्तर काफी हद तक ठीक था. जैसे- तमिलनायडू, केरल, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, गुजरात, महाराष्‍ट्र, गोवा, ये भारत के उन राज्यों में से एक थे जहा के लोगों ने शिक्षा के अधिकार को समझा और पहचाना, भारत का मध्य भू- भाग राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश हरियाणा,पंजाब. इन क्षेत्रों में शिक्षा का स्तर ज़रूरत से ज्यादा कम था. जहां के ज़मींदार वर्ग ने इनको उभरने नहीं दिया. तभी ये प्रेदश आज भुखमरी और गरीबी के सबसे ज्यादा शिकार है. भारतीय संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर ने संविधान में शिक्षा के अधिकार की अहमियत को बताया कि शिक्षा देश के हर वर्ग के लिए ज़रूरी है. पंडित जवाहर लाल नेहरु जब देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने देश की जनता को शिक्षा के प्रति जागरूक होने की बात कही थी कि देश की जनता को जागरूक होना होगा. तभी देश का विकास होगा. देश के उच्च वर्ग को अब सबसे ज्यादा समस्या हो गयी थी तो, वो था दलित वर्ग जिसको देश का सबसे ज्यादा दबा कुचला वर्ग माना जाता था, जिसका नाम सुनकर धरती भी चिढ़ जाती थी. इस वर्ग को शिक्षा देना कोई नहीं देना चाहता था। इनके पूर्वजों ने इसी तरह की मुसीबतों को झेला है. देश के उच्च पदों पर बैठे कुछ गिने चुने दलित वर्ग के आज भी उच्च वर्ग की आँखों में खटकते हैं.

समय के साथ-२ इन्सान बदला, उसकी सोच बदली, समाज बदला, और अपने विचारो में तेज़ गति लानी शुरू की. देश के दूर दराज क्षेत्रों में पल रही प्रतिभाओं के सामने सबसे बड़ी समस्या थी तो वो ये इसको आगे कैसे लाया जाए? इन दूर-दराज इलाकों से स्कूल कोसो दूर होते थे जहां तक पहुच पाना असंभव होता था. देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदरा गाँधी के बेटे राजीव गाँधी बड़े ही प्रतिभाशाली व्यक्तित्व वाले इन्सान थे. अपनी माता जी के मृत्यु के बाद जब देश की सत्ता अपने हाथों में ली. तो उनका बस एक ही सपना था की देश का हर हर बच्चा पढ़ा लिखा हो. राजीव गाँधी ने सन १९८६ में प्रतिभा शाली बच्चों के लिए जवाहर नवोदय विद्यालय की नींव रखी, ताकि हर प्रतिभाशाली बच्चों के लिए उनके भविष्य को उज्जवल बनाया जाये. ग्रामीण परिवेश से आये बच्चो को अपनी प्रतिभा निखारने का पूरा मौका मिले. केंद्र सरकर भी जवाहर नवोदय विद्यालय के हर एक बच्चे पर सालाना बावन हज़ार रूपये खर्च करती है

केंद्र सरकार की शिक्षा का अधिकार, सर्व शिक्षा अभियान जैसी कई पहलों पर और प्रगति के बावजूद भी भारत में विश्व की ३५ हज़ार फीसदी आबादी निरक्षर है जिसकी साक्षरता दर ६८ फीसदी है. प्राथमिक स्तर पर सन १९५०-१९५१ में स्कूलों में दाखिला लेने वालों बच्चों की संख्या उन्नीस करोड़ दो लाख थी.वही २०००-२००१ में ये बढ़कर दस अरब अन्ठानवे करोड़ हो गयी आज़ादी के बाद साक्षरता दर १८.३३ फीसदी से बढ़कर २००१ में ६४.०१ फीसदी हो गयी है. एक पक्ष में देखा जाये तो देश की साक्षरता दर बढ़ तो रही है. लेकिन दूसरे पक्ष में जनसंख्या का होता विस्फोट हर तरफ में निरक्षरों की दर बढ़ा रहा है. बिहार, नागालैंड, मणिपुर ही मात्र ऐसे राज्य है जहा निरक्षरों की संख्या लगातार बढ़ रही है.

जिस शिक्षा को हमने गुरु-शिष्य के पवित्र रिश्तो को गंगा जैसे पवित्र जल की तरह समझा. आज वही शिक्षा एक सब्जी मंडी की तरह हो गयी है, जो चाहे खरीद लो, पैसे के बल पर आज पूंजीपति लोगों ने शिक्षा को वैश्वीकरण का रूप दे दिया. क्या आज के दौर में शिक्षा के अधिकार की यही अहमियत है, हमारे पास अभी भी संभलने का मौका है हमें जल्द से जल्द शिक्षा की अहमियत को समझना होगा ताकि देश फिर से कहीं गुलाम न हो जाये.

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