‘तापस पालों ‘ की कोई मजबूरियां भी तो समझे…!!

tpतारकेश कुमार ओझा

भारतीय राजनीति में ज्यादातर दिल्ली व हिंदी पट्टी के राजनेता ही छाए रहते हैं। दूसरे प्रदेशों के राजनेताओं की चर्चा कम ही होती है। गलत कारणों से ही सही लेकिन आजकल पश्चिम बंगाल के तृणमूल कांग्रेस सांसद व बंगला फिल्मों के प्रख्यात अभिनेता तापस पाल राष्ट्रीय परिदृश्य में चर्चा का विषय बने हुए हैं। क्योंकि उन्होंने टीएमसी के स्वाभाविक विरोधी दल माकपा समेत  महिलाओं के बारे में भी तमाम एेसी अनर्गल बातें कह डाली , जिसकी उम्मीद राजनेता  तो दूर एक  सामान्य व्यक्ति से भी नहीं की जा सकती है। स्वाभाविक रूप से इसके लिए तापस पाल की चारों ओर लानत – मलानत भी खूब हो रही है। इससे पहले भी  प्रदेश के कई टीएमसी नेता विरोधियों के बाबत उटपटांग बातें कह चुके हैं। सवाल उठता है कि समाज के किसी क्षेत्र में प्रतिष्ठित और दो – दो बार सांसद रह चुका व्यक्ति क्या इतना नासमझ हो सकता है कि वे काफी निम्न स्तर की तमाम एेसी  बातें कहें जो सामान्य व्यक्ति भी कहने में संकोच करे। दरअसल इसकी पृष्ठभूमि में हमें तापस पाल जैसों की मजबूरियों को समझना होगा। सच्चाई यह है कि आज तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर निर्वाचित होकर लोकसभा , राज्यसभा व विधानसभा की शोभा बढ़ा रहे ज्यादातर सेलेब्रिटी  राजनेता अराजनीतिक पृष्ठभूमि के हैं।  2006-2207 के एेतिहासिक नंदीग्राम भूमि आंदोलन के बाद जब पश्चिम बंगाल का  माहौल तेजी से तत्कालीन वाममोर्चा सरकार के खिलाफ व विपक्षी दल तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में होने लगा तो समय की मांग को देखते हुए और  कथित नंदीग्राम नरसंहार का विरोध करते हुए समाज के विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिष्ठित हस्तियां भी माकपा के खिलाफ और ममता बनर्जी के पक्ष में लामबंद होने लगी। बेशक इनमें कई एेसे थे जो कम्युनिस्ट पार्टियों के स्वर्णकाल में खुद को वामपंथी कहलाने में गर्व महसूस करते थे। परिस्थितयों के चलते ममता बनर्जी ने भी माकपा के खिलाफ माहौल तैयार करने में  एेसी हस्तियों का सहयोग लिया।  2011 में हुए विधानसभा चुनाव में  कम्युनिस्टों के लगातार 34 साल का राज खत्म हुआ, और ममता बनर्जी पूर्ण बहुमत के साथ राज्य की मुख्यमंत्री बनी। लेकिन इसी के साथ सूबे की राजनीति में तेजी से परिवर्तन भी होने लगा। बेहद मजबूत औऱ अनुशासित संगठऩ वाले कम्युनिस्ट पार्टियों के स्थान पर सत्ता में आई तृणमूल कांग्रेस में गुटबाजी तेजी से बढ़ने लगी। नतीजा यह हुआ कि राज्य में होने वाले किसी भी स्तर के चुनाव में उम्मीदवार देने के मामले में  मुख्यमंत्री ममता बनर्जी संगठन के नेताओं के बजाय तापस पाल जैसे सेलीब्रिटीज पर निर्भर होती गई। जिनकी व्यापक पहचान तो हो ही, वे चुनाव जीतने में भी सक्षम हो। इस दांव के पीछे तृणमूल कांग्रेस नेतृत्व की सबसे बड़ी मजबूरी पार्टी की गुटबाजी पर लगाम लगाना रहा। दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर एेसे लोग चुनाव तो जीतते रहे, लेकिन बहुत कम राजनीति का ककहरा भी सीख पाए। कम्युनिस्ट जैसे अनुशासित व कैडर बेस संगठन का लाभ भी एसे जनप्रतिनिधियों को नहीं मिला। लिहाजा उनकी अपरिपक्वता समय – समय पर सतह पर आती रही। वहीं पार्टी लाइन पर बोलने की प्रतिस्पर्धा और कार्यकतार्ओं का जोश बनाए रखने की मजबूरी भी एेसे नेताओं को उटपटांग बोलने को मजबूर करती अाई है। कदाचित यही वजह है कि लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अचानक भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के खिलाफ आक्रामक हुई तो उनकी पार्टी एक उम्मीदवार ने मोदी के हाथ – पांव तोड़ डालने की धमकी सार्वजनिक मंच से दे डाली। हालांकि इससे उनका बाल भी बांका होना तो दूर उल्टे उन्हें जबरदस्त प्रचार मिल गया, और वे चुनाव भी जीत गए। तापस पाल का इरादा भी शायद एेसा ही कुछ गुल खिलाने का रहा होगा , लेकिन उन्हें तो लेने के देने पड़ गए।

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