लोकतंत्र की खातिर मीडिया भी अपनी जिम्मेदारी समझे

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-अनिल सौमित्र

आजकल मीडिया में आतंकवाद, खासकर ‘हिन्दू आतंक’ चर्चा में है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि ‘हिन्दू आतंक’ मीडिया के कारण ही चर्चा में है। कई बार किसी खास मुद्दे और विषय पर चर्चा करते समय उस मुद्दे पर कम और उसके माध्यम पर अधिक चर्चा होने लगती है। कुछ ऐसा ही हुआ जब पिछले हफ्ते आजतक के सहयोगी चैनल ‘हेडलाइन्स टुडे’ ने स्टिंग ऑपरेशन दिखाने का दावा किया। बाद में इस चैनल के खिलाफ कुछ हजार लोगों ने प्रदर्शन किया। इन प्रदर्शनकारियों का आरोप था कि इस चैनल ने तथ्यों को तोड़-मरोड़कर, कुछ लोगों की आपसी चर्चा या मीटिंग और उस चर्चा में कही गई बातों का हवाला देकर ‘हिन्दू आतंकवाद’ और ‘भगवा आतंक’ का सिद्धांत गढ़ने की कोशिश की। प्रदर्शन करने वाले इस बात से सख्त नाराज थे कि चैनल के इस ‘दोषारोपण कार्यक्रम’ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके पदाधिकारियों के नाम का उल्लेख कर उन्हें आरोपित करने का प्रयास किया गया। कुछ प्रदर्शनकारी उस चैनल के कृत्य से इतने उद्वेलित और आवेशित थे कि उन्होंने शांतिपूर्ण प्रदर्शन की अवहेलना कर दी। उन्होंने वहां के कुछ गमले, कुछ फर्नीचर और कांच के कुछ दरवाजों को तोड़ डाला। लेकिन हजारों की भीड़ ने जो कुछ किया उसका चयनित अंश ही मीडिया चैनलों ने दिखाया। जिस चैनल के खिलाफ प्रदर्शन हुआ उस चैनल ने भी प्रदर्शनकारियों को हिंसक, अलोकतांत्रिक और फासिस्ट तो बताया, लेकिन यह नहीं बताया कि इसमें कितनी जनहानि हुई, कितने लोग हिंसा के शिकार हुए और कितने करोड़ का नुकसान हुआ? अगर प्रदर्शन हिंसक ही था तो आजतक या हेडलाइंस चैनल हजारों की हिंसक भीड के आक्रमण से़ बर्बाद हो गया होगा। ऐसा कुछ अब तक पता नहीं चला है।

खैर चैनल के स्टिंग ऑपरेशन और उसके बाद हुए घटनाक्रम से कई बातें चर्चा योग्य बन गई। आखिर ये माध्यम क्या चाहते हैं? इनका उद्देश्य क्या है? वे मीडिया के ‘सूचना, शिक्षा और मनारंजन’ की उपादेयता को खतरे में क्यों डाल रहे हैं? दर्शक अभी भी यह समझने की कोशिश कर रहा है कि उस स्टिंग आॅपरेशन से उसे किसी प्रकार की सूचना मिली, वह शिक्षित हो रहा है या उसका मनोरंजन हो रहा है! क्या उस स्टिंग ऑपरेशन से भगवा आतंक या हिन्दू आतंक का सिद्धांत स्थापित होता है या इस सिद्धांत को स्थापित करने के लिए यह स्टिंग ऑपरेशन किया गया? अव्वल तो वह स्टिंग ऑपरेशन था भी कि नहीं यह भी दर्शकों की समझ में नहीं आ रहा। अपने ऑपरेशन के बारे में बताते हुए स्वयं ऑपरेशनकर्ता ने खुलासा किया कि ‘हिन्दू आतंक’ को स्थापित करने वाला टेप बैठक में उपस्थित एक कथित हिन्दू आतंकी सरगना दयानंद पांडे की लैपटॉप के कैमरे से रिकॉर्ड किया गया था। टेप देखकर लगता है कि दयानंद ने चुपके से चोरी-चोरी उस चर्चा को रिकॉर्ड कर लिया था। तो सवाल लाजिमी है कि ये दयानंद किसके इशारे पर, किसके लिए काम कर रहा था? उसने चोरी का माल किसे उपलब्ध कराया! क्या हेडलाइंस टुडे ने दयानंद को उस स्टिंग ऑपरेशन के लिए पहले से ही तय कर लिया था या दयानंद ने बाद में उस चोरी के टेप को बेच दिया? या कि गिरफ्तारी के बाद दयानंद के लैपटॉप से अश्लील विडियो के साथ यह टेप भी जांच एजेंसियों को मिला और उसे हेडलाइंस ने जुगाड़ लिया और उसे ही अपना स्टिंग ऑपरेशन बता दिया! क्या यह सब दर्शकों के लिए इतना ही जरूरी था? पूर्व केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री रविशंकर प्रसाद ने टीआरपी और सरकारी विज्ञापन के बारे में इन दृश्य चैनलों की जद्दोजहद के बारे में जो कुछ बताया उससे तो यही लगता है कि ये स्टिंग ऑपरेशन मीडिया की जरूरत नहीं बल्कि मजबूरी है। ऐसे कार्यक्रमों से चैनल की टीआरपी बढ़ती है, वह चर्चा में आता है और उसके लिए विज्ञापन वसूली आसान हो जाता है।

मीडिया संस्थान को भी पैसा और पूंजी चाहिए। यह माध्यमों के अस्तित्व की पहली जरूरत है। यह पैसा और पूंजी भी इतनी बड़ी हो कि प्रतिस्पद्र्धा और सूचना-साम्राज्यवाद में उसे टिकाए रख सके। दर्शक और टीआरपी लिए आक्रामक, सनसनीखेज, आकर्षक, मनमोहक और उत्तेजक कार्यक्रम भी चाहिए। भले ही यह सब ‘सूचना, शिक्षा और मनोरंजन’ की कीमत पर ही क्यों न हो। समाचारों और कार्यक्रमों में एक खास नजरिया न हो तो दर्शक, श्रोता या पाठक आकर्षित नहीं होता। दर्शक बटोरने के चक्कर में दृश्य माध्यमों ने अपना उद्देश्य तो खो ही दिया अब वे दर्शकों का भरोसा भी खोने लगे हैं। आज कोई भी समाचार चैनल यह दावा नहीं कर सकता कि उसका कार्यक्रम दर्शकों को ‘सूचना, शिक्षा या मनोरंजन’ दे रहा है। समाचारों से मनोरंजन, हास्य कार्यक्रमों में सूचना और संगीत कार्यक्रमों से शिक्षा ढूंढने की नौबत आ गई है। चैनल बदलते जाओ-‘सूचना, शिक्षा या मनोरंजन’ ढूंढते रह जाओगे।

दृश्य माध्यमों के भारतीय दर्शक दुनिया के मुकाबले नये जरूर हैं, लेकिन इनके भीतर भी ‘दृश्य-साक्षरता’ और ‘दृश्य-शिक्षा’ विकसित हो चुकी है। दर्शकों का स्वतंत्र चिंतन कम भले ही हुआ हो, लेकिन उन्होंने अब भी स्वतंत्र रूप से सोचना और विचार करना बंद नहीं किया है। चाहे आजतक हो या हेडलाइंस टुडे या आइबीएन, स्टार न्यूज या कोई और भी चैनल, वह दर्शकों को अपने एकाधिकार-जाल में कैद नहीं कर सकता। अब दर्शक भी किसी एक चैनल या सिर्फ एक माध्यम को अंतिम सत्य मानने के लिए तैयार नहीं है। अब वह घटनाओं को, दृश्यों और उसकी व्याख्या को माध्यमों के परिपेक्ष्य के अलावा राजनैतिक परिपेक्ष्य में समझने की कोशिश करने लगा है। दर्शक अब यह समझने लगा है कि टीवी चैनल या दृश्य माध्यमों का परिपेक्ष्य मैनिपुलेशन और अद्र्धसत्य पर आधारित होता है। वह राजनीतिक हितों की पूर्ति करता है।

गौर करें तो मीडिया का एक बड़ा वर्ग इसी मैनीपुलेशन और टीआरपी-विज्ञापन के खेल में लगा है। वह सूचना, शिक्षा और मनोरंजन को ताक पर रखकर वर्गीय, क्षेत्रीय, जातीय और सांप्रदायिक मुद्दों पद सनसनी और उत्तेजना पैदा करने की लगातार कोशिश में है।

मीडिया से संबंधित अनेक अध्ययनों में यह बात स्वीकार की गई है कि माध्यमों में हिंसा की बार-बार पुस्तुति अंततः हिंसक घटनाओं को मदद पहुंचाती है। हिंसा अगर माध्यमो में व्यापक रूप में अभिव्यक्ति पाती है तो इससे शांति या जागरुकता कम, हिंसा और दहशत को ही बल मिलता है। आम लोगों में आतंकवाद या हिंसा से लड़ने का भाव कम होने लगता है या खत्म हो जाता है। इस प्रकार का मीडिया कवरेज संक्रामक रोग की तरह है। तो हेडलाइंस टुडे या इसके जैसे अन्य चैनल आखिर क्या चाहते हैं? इन माध्यमों की मंशा क्या है? क्या देश हिन्दू आतंक के समर्थन या विरोध में उठ खड़ा हो, या कि हिन्दू आतंक के खिलाफ इस्लामी आतंक और अधिक आक्रामक हो जाये? क्या माध्यमों के स्टिंग आॅपरेशन से जांच एजेंसियों, न्यायालय या अन्य संगठनों को कोई लाभ हुआ है या हो रहा है? क्या ये माध्यम, ये चैनल हिन्दू आतंक के खिलाफ और कांग्रेस के पक्ष में राजनैतिक माहौल बना रहे हैं? क्या संघ या हिन्दू संगठनों को डराने, सबक सिंखाने या उन्हें हतोत्साहित करने के लिए स्टिंग ऑपरेशन और उसके बाद के कार्यक्रम को अंजाम दिया गया था?

संभव है स्टिंग ऑपरेशन करने और कार्यक्रम निर्माण के पूर्व ही पूरी तैयारी कर ली गई हो। शायद हेडलाइंस टुडे और आजतक समूह को स्टिंग ऑपरेशन के बाद प्रदर्शन और प्रदर्शन के उग्र हो जाने का अंदेशा भी हो। फिर प्रदर्शन के बाद प्रदर्शन के तरीके, प्रदर्शनकारी और एक विशेष संगठन पर पूरा कार्यक्रम फोकस कर दिया गया। सवाल यह भी है कि स्टिंग ऑपरेशन सुनियोजित था या मीडिया ने जो किया वह सुनियोजित था? आखिर इन दोनों ‘सुनियोजित’ घटनाओं को देखने से देश की जनता का क्या और कितना भला हुआ? मीडिया सिर्फ पैसे, पूंजी और टीआरपी-विज्ञापन के लिए ही नहीं सामाजिक दायित्व के निर्वहन के लिए भी है। लोकतंत्र मे आरएसएस या कोई भी राजनीतिक-सामाजिक संगठन देश के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह है, मीडिया भी तो अपनी जिम्मेदारी समझे।

1 COMMENT

  1. ये तो इन लोगो का खानदानी पेशा है
    नकाब तो इन देशद्रोहियों के मुह से हटना ही है चाहे ये कितनी ही कोशिस कर ले
    कब तक तोड़फोड़ करेंगे

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