तनवीर जाफ़री
देश के पहले और आखिरी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पहलवान तथा फ्री स्टाईल कुश्ती लड़ने वाले योद्धा एवं फिल्म अभिनेता दारा सिंह का 84 वर्ष की आयु में 12 जुलाई को प्रातः साढ़े सात बजे मुंबई में उनके निवास पर निधन हो गया। दारासिंह का जन्म एक प्रतिष्ठित सिख जाट किसान परिवार में 19 नवंबर 1928 को अमृतसर ज़िले के धामोचक गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम सूरतसिंह रंधावा था तथा माता बलवंत कौर थीं। इसमें कोई शक नहीं कि मृत्यु संसार में एक ऐसा सत्य है जिसे कोई झुठला नहीं सकता। साधारण इंसान तो क्या देवता, अवतार व पैगंबर के रूप में धरती पर अवतरित हुए उन लोगों को भी मृत्युलोक में जाना ही पड़ा है जिनकी दुआओं, आशीर्वाद व स्पर्शमात्र से तमाम मरने वाले लोग क्षणिक रूप से जीवित हो जाया करते थे। लिहाज़ा निःसंदेह दारा सिंह ने भी 84 वर्ष की आयु में उसी मृत्यु लोक की ओर प्रस्थान किया। उनकी मृत्यु ब्रेन हैम्रज के कारण हुई। परंतु दारा सिंह ने अपने पीछे जो इतिहास छोड़ा है वह निश्चित रूप से अद्वितीय व बेमेल है।
1947 में सिंगापुर के चैंपियन पहलवान त्रिलोक सिंह को उन्होंने कुआलालमपुर में पछाड़ा। उसके बाद उन्हें मलेशिया चैंपियन घोषित कर दिया गया। इस विजय के बाद उनके हौसले इतने बुलंद हुए कि वे विदेशों में ही रहकर फ्री स्टाईल कुश्ती लड़ते रहे और तमाम विदेशी चैंपियन पहलवानों को धूल चटाते रहे। अपने विदेशों में प्रवास के दौरान उन्होंने आस्ट्रेलिया के चैंपियन किंगकांग, कनाडा के जार्ज गोरडिंको तथा न्यूज़ीलैंड के जॉन डिसिल्वा जैसे पहलवानों को पछाड़ा। अपने जीवन में उन्होंने लगभग पांच सौ पेशेवर कुश्तियां लड़ी परंतु इनमें से किसी भी कुश्ती में उन्होंने हार का सामना नहीं किया। इस प्रकार वे 1952 तक विदेशों में ही रहे और पूरी दुनिया को अपना लोहा मनवाते रहे।
1952 में भारत वापस लौटते ही वे पहले पंजाब व बाद में भारत के चैंपियन पहलवान बन गए। इसके बाद 1962 में किंगकांग फिल्म में बतौर अभिनेता अभिनय कर फिल्म जगत में अपनी पहचान बनाई। 1960-1970 के दशक में वे भारतीय सिने जगत में एक एक्शन किंग के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हुए। फिल्म जगत में काम करने से लेकर रामानंद सागर के सुप्रसिद्ध टीवी धारावाहिक रामायण में हनुमान का किरदार अदा करने तक के लंबे सफर में उन्होंने तमाम यादगार किरदार अदा किए और उसके अनुरूप उन्हें इज्जत, शोहरत, व उपाधियां भी मिलती गईं। 1978 में उन्हें रुस्तम-ए-हिंद के खिताब से नवाज़ा गया। उन्होंने अमेरिका के फ्रीस्टाईल चैंपियन को भी हराया। कुश्ती व फ्री स्टाईल कुश्ती में देश और दुनिया में अपना लोहा मनवाने के बाद उन्होंने 1983 में कुश्ती को विधिवत अलविदा कह दिया। उन्होंने अपनी आखिरी कुश्ती दिल्ली में लड़ी। इस कुश्ती टुर्नामेंट का उद्घाटन राजीव गांधी द्वारा किया गया था जबकि दारासिंह को विजेता ट्राफी ज्ञानी जैल सिंह के हाथों दी गई थी। इसी टूर्नामेंट में उन्होंने पेशेवर कुश्ती मुकाबले को अलविदा कह दिया था।
तमाम फिल्मों में किरदार अदा करने के बाद जब उन्होंने रामानंद सागर द्वारा निर्देशित टीवी धारावाहिक रामायण में हनुमान का किरदार अदा किया उस समय तो वे शोहरत के चरमोत्कर्ष तक पहुंच गए। हनुमान की भूमिका में उन्हें देखने के बाद यही महसूस होता था जैसे क़ुदरत ने उन्हें केवल इसी भूमिका के लिए ही पैदा किया हो। डील-डौल, सौष्ठव शरीर, डॉयलाग बोलना तथा अपने ईष्ट भगवान राम के प्रति निष्ठा, आदर एवं सत्कार व सम्मान का जो समावेश उनकी भूमिका में देखने को मिला वह शायद ही कोई दूसरा व्यक्ति कर सकता हो। उनकी मृत्यु के पश्चात जिस प्रकार फिल्म जगत के लोगों में शोक व्याप्त दिखाई दे रहा है तथा उनके मरणोपरांत मशहूर व विशिष्ट हस्तियों द्वारा उद्गार व्यक्त किए जा रहे हैं वह निश्चित रूप से रुस्तम-ए-हिंद के व्यक्तित्व की तर्जुमानी करते हैं। कुश्ती जगत के लोग उन्हें पहलवानों के लिए आदर्श व प्रेरणास्त्रोत बता रहे हैं तो कहीं उन्हें देश का पहला एक्शन हीरो बताया जा रहा है।
अमिताभ बच्चन उन्हें एक महान भारतीय बता रहे हैं तो शाहरुख खान की नज़रों में वे रियल सुपरमैन थे। किसी ने उन्हें सहज व सरल व्यक्तित्व का स्वामी बताया तो कोई उन्हें सरल व शांत स्वभाव का व्यक्ति बता रहा है। मैंने भी बचपन में जिस समय अपना होश संभाला उस समय किंगकांग फ़िल्म के पोस्टर में दारा सिंह के सुडौल शरीर को देखकर बहुत प्रभावित होता था। हालांकि मुझे फिल्में देखने का ज्यादा शौक़ नहीं था परंतु फिर भी दारा सिंह का व्यक्तित्व हमेशा मुझे अपनी ओर आकर्षित करता था। समय बीतने के साथ 1987 में मैंने इलाहाबाद में एक राष्ट्रीय एकता गोष्ठी आयोजित की जिसमें तत्कालीन सांसद अमिताभ बच्चन ने शिरकत की थी। उसी वर्ष मई 87 में भारत-रूस मैत्री संघ के एक आयोजन में मुझे मुंबई जाने का अवसर मिला। मैं अमिताभ बच्चन के एक तत्कालीन सहायक से फोन करवाकर अपनी पसंद के कुछ फिल्मी कलाकारों से मिलने गया उनमें दारासिंह भी एक थे। मेरी ख्वाहिश थी कि जिस लंबे-चौड़े शरीर के रुस्तम-ए-हिंद को मैं फिल्मों व पोस्टरों में देखा करता था कुछ लम्हे उनके साथ बैठकर भी बिताए जाएं।
दारासिंह ने मुझे मिलने का समय दे दिया और मैंने 30 मई 1987 को दारा विला नामक जुहु स्थित उनके विशाल बंगले में उनके साथ लगभग डेढ़ घंटा बिताया। इस दौरान उन्होंने हमें चाय नाश्ता करवाने के बाद अपने बंगले की छत पर ले जाकर समुद्र का दर्शन कराया। वे हमें अपने बंगले के बेसमेंट में बनी अपनी विशाल व्यायामशाला में भी ले गए। जब उन्हें यह पता लगा कि मैं अमिताभ बच्चन को इलाहाबाद से चुनाव लड़वाने वाले कार्यकर्ताओं में से हूं तो उन्होंने अमिताभ बच्चन के चुनाव के संबंध में मुझसे काफी सारी जानकारियां लीं। कई बातें सुनकर वे कभी खूब रोमांचित हो उठते तो कभी ज़ोर-ज़ोर का ठहाका लगाकर हंसने भी लगते।
अपनी उस मुलाकात के दौरान मैंने बातों-बातों में यह भी बताया कि मेरी ससुराल अंबाला में है। यह सुनकर वे और भी खुश हुए तथा उन्होंने मुझे गले से लगाया और कहा कि यह तो हमारा व्यक्तिगत रिश्ता हो गया। इतना ही नहीं बल्कि चलते समय उन्होंने मुझे 250 रुपये भी दिए। जब मैंने पैसे लेने से मना किया तो वे बोले कि भाई हम पंजाब के लोग हैं और तुम तो हमारे अज़ीज़ हो लिहाज़ा पहली मुलाकात में हम तुम्हें बिना शगुन लिए नहीं जाने देंगे। और इस प्रकार मजबूरीवश उनकी बात रखने के लिए उनसे वह शगुनरूपी पैसे मुझे लेने पड़े।
बातचीत के दौरान मैंने उनके भीतर यह देखा कि वास्तव में वह शोहरत के जिस पायदान पर थे तथा जितने बड़े पहलवान व कलाकार थे उसके अनुसार उनके अंदर कहीं भी किसी भी प्रकार का गुरूर या घमंड अथवा अहंकार कतई नहीं था। वे अपने घर में भी निहायत सादगी के साथ रहते थे। हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने रामायण में उनके द्वारा अदा किए गए हनुमान के किरदार को भुनाने के लिए उन्हें 2004 में राज्यसभा का सदस्य अवश्य बना दिया था। परंतु दरअसल उनकी विचारधारा एक धर्मनिरपेक्ष व सर्वधर्म संभाव की सोच रखने वाले सच्चे राष्ट्रवादी व्यक्ति की थी। जब मैंने उन्हें राष्ट्रीय एकता गोष्ठी के मकसद के विषय में विस्तार से बताया तो वे अत्यंत प्रसन्न हुए तथा उन्होंने मेरे इस आयोजन की बहुत सराहना की। उन्होंने धर्मनिरपेक्षता व सर्वधर्म सम्भाव के लिए किए जा रहे मेरे कार्यों को बहुत पसंद किया तथा भविष्य में भी मुझे सदैव इस दिशा में सक्रिय रहने को कहा। चलते समय उन्होंने मेरी डायरी पर मेरे आयोजन के विषय में कुछ सकारात्मक, प्रेम, आशीर्वाद व शुभकामनाएं देती हुई पंक्तियां भी लिखीं जो हमेशा मेरे पास उनकी निशानी व उनके हस्ताक्षर के रूप में सुरक्षित रहेंगी। उन्होंने पंजाब के मोहाली में दारा स्टूडियो की स्थापना 1978 में की थी जो उनकी यादगार के तौर पर आज भी चल रहा है । आशा है उनका यह स्टूडियो उनकी आकांक्षाओं व इच्छाओं के अनुरूप सदैव संचालित होता रहेगा। उस महान व अद्वितिय शख्सियत के निधन पर मेरा उस महान आत्मा को शत-शत नमन।