अमित तिवारी
अचानक से मन थोडा व्यथित हो गया. एक खबर मिली कि एक लड़के ने दो हत्याएं महज इसलिए कर दी कि लड़की ने उसके प्रेम को अस्वीकार कर दिया था. लड़की के अस्वीकार से क्षुब्ध हुआ वह सीधे उसके ऑफिस पहुँच गया, जहाँ बीच-बचाव की कोशिश करते एक लड़का भी मारा गया और लड़की का भी गला उस उन्मादी युवक ने काट दिया.
जांच पड़ताल होगी. बहुत से बयान आयेंगे-जायेंगे. उस उन्मादी युवक को शायद सजा होगी या शायद अपने रसूख के दम पर वह निश्चिन्त होकर घूमता रहेगा.
वाद का विषय यह नहीं है. जैसा भी होगा वह नया नहीं होगा. दोनों ही तरह की बातें होती रहती हैं. पकडे जाकर सजा पाने वाले भी बहुत हैं… और रसूख और पहुँच के दम पर छुट्टा घूमने वाले भी. विषय है आज के युवाओं के अन्दर पलते इस रोष का. वरन इसे रोष कहना भी गलत ही है. रोष तो एक सकारात्मक शब्द है. यह मात्र उन्माद है. पथभ्रष्ट होते युवा एक गंभीर विषय बन चुके है. एक ऐसा विषय जिस पर कोई चर्चा भी नहीं है. जिस घटना का जिक्र है वह आज के समय में एक सामान्य घटना ही है. यह ऐसा सच है आज के समय का जिस से हर रोज रूबरू होना पड़ता है. हर रोज सुबह अखबार में ऐसी अनगिन घटनाएं देखने को मिल जाती हैं. हर रोज इतना कुछ देखने को मिल जाता है अपनी इस समकालीन पीढ़ी के बारे में कि मन उखड़ जाता है. यह पीढ़ी न अपनी बुद्धि का सही इस्तेमाल करना जानती है ना अपनी शक्ति का.. बुद्धि का इस्तेमाल होता है तो द्विअर्थी संवाद करने में और शक्ति का प्रयोग होता है किसी गरीब और कमजोर पर. बात चाहे पैसा मांगने पर चाय वाले पर चाकू चलाने की हो या फिर कार से छू जाने पर रिक्शे वाले की हत्या कर देने का.. या फिर ऐसी ही किसी नृशंस घटना में उस शक्ति की परिणति होती है.
इसे शक्ति कहा जाए या फिर कायरता का ही नया रूप. जहाँ सच से सामना करने की शक्ति इतनी क्षीण हो गयी है इस पीढ़ी की कि वह उतावलेपन में कोई निर्णय नहीं ले पाने की हालत में रही है.
इस तथाकथित सभ्य और आधुनिक होती युवा पीढ़ी के और भी कई वाहियात रूप देखने को मिलते रहते हैं. शर्म आती है कि हम ऐसी पीढ़ी के समकालीन हैं. ऐसी पीढ़ी जो या तो घोर उन्मादी है या फिर फैशन के नाम पर अपाहिज और दोमुंही पीढ़ी.
ऐसी वाहियात जमात जिसे अपने समाज और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों से कोई सरोकार शेष नहीं है. शर्म आती है जब देखता हूँ कि एक तरफ जब मिस्र जैसे छोटे से अरब देश में जनता सड़क पर उतर कर 30 वर्षों के तानाशाही शासन को उखाड़ फेंकने में लगी है, तब यहाँ की दोगली जमात फेसबुक और ऑरकुट पर चुटकुलेबाजी और तस्वीर बांटने में लगी है. उसे गुस्सा आता है तब, जब लड़की उसका वासनाजनित प्रेम स्वीकारने से मना कर देती है या फिर कोई चाय वाला अपने हक के पैसे मांग लेता है.
जितना वक्त आज की यह तथाकथित आउन नॉर्म्स और सिविलाइजेशन को फॉलो करने वाली जमात खुद को संवारने और आइना देखने में बिताती है.. उतना वक्त शायद ही किसी सार्थक कार्य या चर्चा में बिताते हों.. यही कारण तो है कि आज सर्वाधिक युवाओं का देश भारत.. बीमार है.. क्रान्ति और देशभक्ति शब्द गाली जैसे लगते हैं इनके होंठों पर. अब इनका आदर्श भी फिल्मी परदे का अभिनेता होता है. क्रांति के लिए भी इन्हें अब किसी के अभिनय की ही जरूरत पड़ती है. अब ये सड़क पर तभी उतर सकते हैं जब इन्हें कोई ‘रंग दे बसंती’ या फिर ऐसी ही कोई फिल्म दिखाई जाए. कुछ ऐसी फिल्में देखकर ही इनके अन्दर क्रांति जन्म लेती है. और फिर जैसे ही दो शुक्रवार के बाद कोई हिस्स्स्स… या दबंग या तीस मारखां देख लेते हैं.. तुरंत इनके अन्दर की शीला जवान हो जाती है. सारी क्रांति ख़त्म.. इस संवेदन हीन पीढ़ी के मन में अब गजनी में आमिर खान की प्रेमिका के मरने पर तो संवेदना जागती है, लेकिन हर रोज भूख और बेबसी से मरते लाचार किसान और मजदूरों की खबर देख-पढ़कर नहीं जागती है.
बहस के लिए सबके पास इतना वक्त है.. लेकिन सार्थक विमर्श भी होना चाहिए.. इसकी किसी को चिंता नहीं है.. देश हमारा है.. लेकिन इसकी चिंता पडोसी के हाथ में है.. हम सबका चरित्रा यही रहता है.. चिंतन यही रहता है..
चेहरा देखकर तिलक करने की प्रवृत्ति है..
विमर्श के लिए कोई तैयार नहीं है. लोग खुद के प्रति ईमानदार होकर अपनी भूमिका का चयन नहीं कर रहे हैं आज के समय में.. इतने सब के बाद भी जब कोई कहता है कि मेरा भारत महान.. तो सच में कोफ्त होती है. जब यहाँ तरक्की के बड़े-बड़े आंकड़े सुनाये जाते हैं तब यह सब मात्रा आत्मप्रवंचना जैसा ही लगता है. लेकिन हमें सोचना होगा कि आत्मप्रवंचना करने से आत्मसंतुष्टि तो मिल सकती है.. लेकिन सत्य नहीं बदलता है…
देश की हालत क्या है? कितनी बीमार है.. ? ये तो सबको पता ही है.. लेकिन परेशानी यही है कि हम सच को स्वीकारने के बजाय आत्मप्रवंचना में लगे रहते हैं.. हम तो वो जमात है कि जिनके सामने कोई आकर देश के निवासियों को ‘स्लमडाॅग’ कहकर ‘आॅस्कर’ देकर चला जाता है और हम बेशर्मों की तरह ‘जय हो-जय हो’ कहते रहते हैं.
कभी कभी ये सब देखकर ऐसा लगता है कि जैसे बहुत बार थप्पड़ खाने से किसी का चेहरा लाल देखकर भी लोगों को लगता है कि उसके शरीर में खून बहुत है.. लेकिन हमें स्वीकारना चाहिए कि थप्पड़ मारकर गाल लाल कर लेने से ख़ून नहीं बन जाता है… देश की भी यही हालत है… इधर उधर के थप्पड़ से गाल लाल हो जाता है.. और सब लाल चेहरा देखकर खुश हो जाते हैं..
देश के सेहत का सच तो आज भी अस्थि-पंजर बना किसान-मजदूर ही है. और यहाँ के युवा का सच अखबारों की ऐसी ही सुर्खियाँ… बेहया और बदमिजाज पीढ़ी.
अमित जी आपकी भावनाएं निश्चित ही समय के अनुरूप एक कड़वा सत्य है ,भोग विलास और आधुनिकीकरण के खोखले दावों के चक्रव्यूह में देश की सभ्यता तथा संस्कृति पर अन्धान्धुन्द प्रहार दिन प्रतिदिन होता चला जा रहा है ,सरकार की नीतियां गरीब को और गरीब -अमीर को और अमीर बनाने में सहायक हो रही हैं,यहाँ तक तो हम पचा भी लेंगें किन्तु हमारी संस्कृति ही नष्ट हो जाए ऐसी नीतियों पर तत्काल अंकुश लगाना होगा.
वचपन में एक कहानी पढ़ी थी.एक लड़का अपने सहपाठी की पेन्सिल चुरा लाया और अपनी माँ को दिखाया.माँ ने बच्चे से कुछ नहीं कहा .बच्चे का साहस बढ़ा .वह छोटी मोटी चोरियां करने लगा.माँ ने कहा तो कुछ नहीं पर उसके द्वारा लाये गए सामानों का इस्तेमाल करने लगी.बाद में लड़का पकड़ा गया उसे पकड़ कर ले जाते समय माँ रोने लगी.लडके ने माँ से नजदीक जाकर बात करने की इच्छा जाहिर की.जब वह नजदीक पंहुचा तो उसने माँ के कान से अपने मुंह सटा दिए .लोगों ने समझा की वह माँ के कान में कुछ कहना चाहता है,पर माँ के कान से मुंह सटाते ही उसकी माँ जोर से चिल्ला पड़ी लडके ने माँ के कान कुत्तर दिए थे.लोगों के द्वारा भर्तस्ना किये जाने पर उसने खुलासा किया की अगर माँ उसको पहले ही दिन रोकती तो आज उसे यह सजा नहीं मिलती.इसीसे मैंने माँ को सजा दी है.मैं नहीं समझता की मुझे और कुछ कहने की जरुरत है,क्योंकि इस तरह के सब गुनाहों के लिए इससे पहले या उसके भी पहले की पीढी कही न कही गुनहगार है.