उपेक्षा की मार झेलता है सरकारी स्कूल

पिंकी कुमारी 

1हाल ही बिहार सरकार ने राज्य में वर्षों से खाली पड़े उर्दू शिक्षकों की बहाली की प्रक्रिया शुरू की है। जिसे वह तीन महीने में ही पूरी कर लेना चाहती है। हालांकि सरकार के इस प्रयास को राजनीतिक दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की जा रही है। अभी भी राज्य के सरकारी स्कूलों में विभिन्न विशयों के लिए शिक्षकों के हजारों पद खाली पड़े हैं। इस कमी को दूर करने के लिए राज्य सरकार ने शिक्षा मित्रों की बहाली कर रखी है। लेकिन यह नीति शिक्षा के स्तर को बढ़ाने की बजाए उसे गर्त में ही ले जा रहा है। राज्य सरकार ने जिन शिक्षा मित्रों की बहाली की है वास्तव में वह इस योग्य ही नहीं है। ऐसे शिक्षकों की बहाली भले ही रिक्त पदों को भरने की एक कवायद हो सकती है। लेकिन शिक्षा प्रणाली के लिए यह घातक साबित हो रहा है। न्यूनतम वेतन पर बहाल किए गए इन शिक्षा मित्रों की पद के अनुरूप शैक्षणिक योग्यता भी नहीं है।

दरअसल राज्य में सभी पार्टियों ने शिक्षा को राजनीतिक हथकंडे के रूप में इस्तेमाल किया है। सरकार वोट बैंक को ध्यान में रखकर ही शिक्षकों की बहाली करती है। ऐसे में इनकी नियुक्ति के दौरान गुणवत्ता का ख्याल नहीं रखा गया। चयन की प्रक्रिया ऐसी है कि योग्य से ज्याद अयोग्य शिक्षक ही बहाल हो गये हैं। ऐसे-ऐसे शिक्षक भी नियुक्त हुए हैं, जिन्हें सामान्य जानकारी, गणित और अंग्रेजी का बुनियादी ज्ञान तक नहीं है। दूसरी ओर बिहार सरकार ने वार्षिक बजट में करीब 20 फीसदी शिक्षा पर खर्च के लिए रखा है। यह राशि छात्रवृत्ति‍, साइकिल व पोशाक पर खर्च करेगी। आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में 20.7 करोड़ छात्रों के लिए करीब 74,000 हजार स्कूल हैं, जिनमें विभिन्न विषयों में लगभग 50.5 लाख शिक्षक कार्यरत हैं। इन स्कूलों में विज्ञान व फिजीकल शिक्षकों की भारी कमी है।

शिक्षा वास्तव में समाज का आईना होता है। किसी भी राज्य की प्रगति का यह एक अप्रत्यक्ष पैमाना भी साबित होता रहा है। बिहार भले ही देश में तेजी से प्रगति करने वाले राज्यों में शुमार हो रहा हो। गुजरात से आगे निकलने की होड़ में हो, लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में इसे अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। संसाधनों की कमी, विद्यालयों का भूमिहीन होना, योग्य शिक्षक व प्रशिक्षकों की कमी समेत कई ऐसी बुनियादी जरूरतें हैं जिनकी कमी से यहां का शिक्षा जगत जूझ रहा है। शहरों में तो फिर भी इस कमी को दूर कर लिया जाता है लेकिन सुदूर देहातों में समस्याएं जस की तस हैं। मुजफ्फरपुर जिला के पारू ब्लॉक स्थित कर्मवारी गांव के मुसहर बस्ती में चल रहे प्राथमिक विद्यालय की ऐसी ही कुछ हालत है। यहां दो कमरों का भवन जरूर है, लेकिन पढ़ाने वाले शिक्षक ही गायब रहते हैं। क्लास के दरवाज़े को ही नोटिस बोर्ड बना दिया और अपनी गैर हाजि़री का फरमान ‘‘सीएल में हूँ‘‘ लिखकर बता दिया है। बस्ती के पंच महेंद्र मांझी का कहना है कि शिक्षिका आती हैं, लेकिन पढ़ाई के नाम पर केवल खानापूर्ति होती है। दोपहर का भोजन के तहत खिचड़ी बनती है और बच्चे खाकर घर चले जाते हैं।

कुछ ऐसी ही हालत नेकनामपुर पंचायत के महादलित बस्ती में चल रहे प्राथमिक विद्यालय की है जिसे आज भी भवन नसीब नहीं हो सका है। चिलचिलाती धूप और ठंड में बच्चे खुले आसमान के नीचे शिक्षा लेने को मजबूर हैं। पहली से पांचवी तक संचालित इस भवनविहीन स्कूल में मुष्किल से 10-15 बच्चे ही पढ़ने आते हैं। यहां केवल दो शिक्षिका ही पदस्थापित हैं। शिक्षिका ष्यामा देवी के अनुसार भवन नहीं होने के कारण ही बच्चों की संख्या घट गयी है। सरकार के पास पैसे हैं लेकिन जमीन नहीं है और कोई भी अपनी जमीन देने को तैयार नहीं है। हालांकि इस संबंध में बिहार सरकार की एक अनोखी योजना भी संचालित है। जिसके तहत स्वेच्छा से स्कूल के लिए जमीन देने वाले के नाम पर स्कूल का नाम करने का प्रस्ताव है। इसके बावजूद आशा के अनुरूप इसके परिणाम नहीं आ रहे हैं। ऐसे में सरकार ने अभिवंचित समुदाय की बस्ती के निकट ही भू-अर्जन की योजना भी बनाई है। लेकिन यह भी केस कचहरी में उलझकर रह गई है। तीन माह पूर्व दिल्ली स्थित एक गैर सरकारी संस्था चरखा की टीम ने इस संबंध में पारू के प्रखंड विकास पदाधिकारी से मिलकर उनका ध्यान इस ओर आकृष्टव भी कराया था। जिन्होंने भवन निर्माण का आष्वसान देते हुए प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी को पढ़ाई की व्यवस्था को ठीक करने व दोशी शिक्षकों पर त्वरति कार्रवाई करने का आदेश भी दिया था। लेकिन उनका मौखिक आदेश अबतक अमल में नहीं आ पाया है।

देश में शिक्षा की स्थिती पर गैर सरकारी संस्था प्रथम द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार बिहार में साक्षरता की दर मात्र 40 प्रतिशत है जो राश्ट्रीय औसत से काफी कम है। हालांकि देश के सरकारी सकूलों में जहां 6-14 साल की उम्र के 67 प्रतिशत बच्चे पढ़ते हैं वहीं बिहार में यह 88.3 प्रतिशत है। लेकिन बिहार में स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों का प्रतिशत भी राश्ट्रीय औसत से अधिक है। जिसे समाप्त करने और गुणवतापूर्ण शिक्षा के लिए योग्य और प्रशिक्षित शिक्षकों की बहाली की आवष्यकता है। यह विडंबना ही है कि बिहार में खाली पदों के लिए भरने के लिए सरकार ने ऐसे गुरूजनों के हाथ शिक्षा की लौ थमाई है जिनसे शब्दों का शुद्ध उच्चारण भी नहीं होता तो बच्चों का भविश्य क्या संवारेंगे? पिछले सप्ताह शिक्षा प्रणाली पर सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी कई मायनों में अहम है। न्यायालय का मानना था कि देश की शिक्षा प्रणाली अपना लक्ष्य हासिल करने में विफल रह गई है और इसमें तत्काल सुधार की आवष्यकता है। पहले की तुलना में देश में साक्षरता की दर अवष्य बढ़ी है लेकिन यह बेहतर मानव मूल्यों में परिवर्तित नहीं हो सका है। पहले देश में साक्षरता की दर कम होने के कारण पढ़े लिखे लोगों की संख्या कम थी। लेकिन समाज में मानव मूल्यों का महत्व था। शिक्षा व्यवस्था की खामियों पर सुप्रीम कोर्ट की यह पहली टिप्पणी नहीं है। लेकिन यह पहली बार है जब सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने इसे सामाजिक मूल्यों के दृश्टिकोण से देखा और उसमें बदलाव के सुझाव दिए हैं। न्यायालय के बाहर भी कई मौकों पर विभिन्न सामाजिक संगठनों और स्वंयसेवी संस्थाओं ने भी अलग अलग मंचों से इस तरह की आवाज को बुलंद किया है। ऐसे में अब जरूरत है इसमें सुधार किया जाए। बेहतर होगा कि इसकी शुरूआत सरकारी स्कूलों से ही की जाए। (चरखा फीचर्स)

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