यूपी में सोनिया-राहुल को चौतरफा चुनौती

rahulसंजय सक्सेना
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ेगी और राहुल गांधी या फिर प्रियंका गाधी वाड्रा को कांग्रेस मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट नहीं करेगी। कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर और राहुल-प्रियंका को सीएम बनते देखने का सपना पाले लोंगों को यह खबर अच्छी नहीं लगी तो उन्हे दुख इस बात का भी है कि गांधी परिवार के किसी सदस्य को सीएम प्रोजेक्ट नहीं किये जाने से कांग्रेस को एक बार फिर सियासी नुकसान हो सकता है। कांग्रेस की स्थिति काफी पतली है। 27 वर्षो से कांग्रेस में ‘सूखा’ पड़ा है। 05 दिसबंर 1989 को नारायण दत्त तिवारी की सरकार जाने के बाद यूपी में कांग्रेस की कभी वापसी नहीं हुई। उत्तर प्रदेश हमेशा नेहरू-गांधी परिवार की सियासी कर्मभूमि रही है। नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक उत्तर प्रदेश से ही चुनाव लड़ते रहे हैं। परंतु कांग्रेस का यह दुर्भाग्य है कि राजीव गांधी के बाद सोनिया और राहुल गांधी कभी उत्तर प्रदेश की सियासत में अपनी छाप नहीं छोड़ पाये। दोनों नेता रायबरेली और अमेठी तक ही सिमटे रहे,जो काम सोनिया और राहुल वर्षो में नहीं कर पाये उसे भाजपा नेता और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चंद महीनों में कर दिखाया।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वाराणसी से सांसद है। यह सच है तो हकीकत यह भी है कि सांसदी का चुनाव लड़ने से पहले मोदी का उत्तर प्रदेश से कोई विशेष नाता नहीं था। वह अपने सियासी सफर के शुरूआती दिनों में यहां आये जरूर थे, परंतु यहां उन्होंने ऐसा कुछ नहीं था जिससे यह कहा जाये कि उनका यूपी से गहरा नाता था। यूपी की तरफ मोदी का विशेष ध्यान 2014 के लोकसभा चुनाव से कुछ माह पूर्व गया था। शायद उन्हें इस बात का अहसास था कि दिल्ली का ताज हासिल करना है तो उत्तर प्रदेश को पहले ‘जीतना’ होगा। इसी के बाद यूपी में मोदी की कई जनसभाएं कराईं गईंर्। उनके यूपी से लोकसभा चुनाव लड़ने की चर्चा शुरू हुई और कुछ समय के भीतर ही यह तय भी हो गया कि वह बाबा भोलेनाथ की नगरी वाराणसी से चुनाव लड़ेंगे। मोदी का यह दांव बिल्कुल सटीक बैठा। पूरे उत्तर प्रदेश में इसका प्रभाव देखने को मिला। यूपी की जनता ने मोदी के नाम पर भाजपा की झोली में लोकसभा की 71 सींटे डाल दी। यह एक रिकार्ड था। मोदी के समाने कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी और युवराज राहुल गांधी की एक न चली। मुलायम सिंह यादव की पार्टी भी मोदी लहर में उड़ गई। बसपा का तो खाता ही नहीं खुला। कांग्रेस,सपा,बसपा के तमाम प्रत्याशियों के साथ-साथ तमाम छोटे-छोटे दलों के प्रत्याशियों की जमानत तक जब्त हो गई। बीजेपी और मोदी के पक्ष में यह नतीजे तब आये थे जबकि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने जीत के लिये एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था। लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद कुछ समय के लिये कांग्रेस ‘कोमा’ में चली गई, लेकिन यह दौर लम्बा नहीं चला। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस फिर से खड़ा होने की तैयारी कर रही है। इसके लिये 2017 के विधान सभा चुनाव से बेहतर मौका क्या हो सकता है, लेकिन दुख की बात यह है कि कांग्रेस की कोशिशों पर राजनैतिक पंडितों को भरोसा नहीं हो रहा है।
दरअसल, परम्परागत रूप से किसी भी चुनाव से पूर्व कांग्रेसी वापसी का ढिंढोरा पीटने लगते हैं। यह और बात है कि जब नतीजे सामने आते हैं तो कांग्रेस जीत तो दूर तीसरे/चौथे स्थान पर दिखाई पड़ती है। प्रत्येक हार के बाद कुछ समय के लिये कांग्रेसी खामोशी की चादर ओढ़ लेते हैं। धीरे-धीरे यह चादर खिसकती जाती है।यूपी में कांग्रेस के पास न तो रणनीति है न दमदार नेता। देखने में यह आता है जब कांग्रेसियों के पास कोई वीजन नहीं होता है तो वह जनता को बार-बार नेहरू-गांधी परिवार की कुर्बानी की याद दिलाकर भावनात्मक रूप से ब्लैकमेंल करना शुरू कर देती हैं। एक समय था उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास जनाधार वाले तमाम नेताओं की लम्बी-चौडी फौज हुआ करती थी। पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी, वीर बहादुर सिंह के अलावा लोकपति त्रिपाठी,वासुदेव सिंह,बलदेव सिंह आर्य,सईद्दुल हसन,नरेन्द्र सिंह,राजा अजीत प्रताप सिंह,स्वरूप कुमारी बख्शी, अरूण कुमार सिंह मुन्ना, महावीर प्रसाद, सिब्ते रजी,प्रवीण कुमार शर्मा, सुनील शास़्त्री हुकुम सिंह(अब दोनों भाजपा में), शिव बालक पासी, जफर अली नकवी,दीपक कुमार,मानपाल सिंह, सुखदा मिश्रा जैसे तमाम नेताओं की अपने-अपने इलाकों में तूती बोला करती थी।
कांग्रेस के पास इन ताकतवर नेताओं की फौज थी और उस पर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी जैसे नेताओं की सरपरस्ती, ने कांग्रेस को कई दशकों तक यूपी में कमजोर नहीं होने दिया, लेकिन इंदिरा और राजीव गांधी की मौत के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार पूरी तरह से कुछ तितर-बितर हो गया। न तो कांग्रेस की डूबती नैया को सोनिया गांधी उबार पाई, न ही राहुल गांधी की कोशिशें कामयाब हुईं। नारायण दत्त तिवारी कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री साबित हुए जो 1989 तक सीएम की कुर्सी पर विराजमान रहे थे। यूपी में कांग्रेस का ग्राफ सेंंसेक्स की माफिक गिरता ही गया। इस दौरान कई दिग्गज कांग्रेसी नेता स्वर्ग सिधार गये तो अनेकों दिल्ली नेतृत्व में पैनेपन के अभाव में मायूसीवश घरों में कैद होकर रह गये। ऐसे नेताओं की भी कांग्रेस में कमी नहीं रही जिन्होंने लोकसभा जीतने की उम्मीद को पूरा होते नहीं देख राजनीति का सुख उठाने के लिये राज्यसभा का रास्ता पकड़ लिया। इसका प्रभाव यह हुआ कि कांग्रेस गर्दिश में समाती गई और कांग्रेसी चुनाव जीतने की बजाये बढ़बोलेपन के सहारे राजनीति की पतवार संभाले रहे।
कांग्रेस में ताकतवर नेताओं की कमी सबको खलती रही,लेकिन इस दौरान कोई नई लीडरशिप नहीं उभरी। चंदनाम जरूर सामने थे, लेकिन यह सर्वमान्य नहीं थे। पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल, उत्तर प्रदेश कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष डा0रीता बहुगुणा जोशी, प्रमोद तिवारी, संजय सिंह, आदित्य जैन, सलमान खुर्शीद, पूर्व नौकरशाह से नेता बने पीएल पुनिया, समाजवादी पार्टी छोड़कर कांग्रेस का दामन थामने वाले बेनी प्रसाद वर्मा, फिल्म अभिनेता से नेता बने राजब्बर तमाम नाम गिनाया जाये। कोई भी कांग्रेस को मझधार से नहीं उभार पाया। बात यहीं आकर खत्म नहीं हुई थी,जिस कांग्रेस का सिक्का पूरे देश में चलता था,उस कांग्रेस के दिग्गज नेताओं सोनिया-राहुल गांधी तक को अपनी जीत पक्की करने के लिये समाजवादी पार्टी से वॉकओवर लेना पड़ जाता था। अमेठी और रायबरेली में सोनिया-राहुल की जीत पक्की करने के लिये समाजवादी पार्टी अपना प्रत्याशी नहीं उतारती तो उपकार स्वरूप कांग्रेस नेतृत्व कन्नौज और मैनपुरी में अपना प्रत्याशी नहीं खड़ा करती ताकि मुलायम सिंह परिवार के सदस्य आसानी से अपनी जीत सुनिश्चित कर सकें।यूपी की तरह ही बिहार में भी कांग्रेस और राहुल गांधी नीतिश कुमार और लालू यादव के पिछल्लूग नजर आये। बात ज्यादा पीछे न जाकर 2007 और 2012 के विधान सभा चुनाव, 2009 एवं 2014 के लोकसभा चुनाव के अलावा बीते लगभग चार वर्षो में हुए विधान सभा के उप-चुनाव की कि जाये तो कांग्रेस कहीं भी मुकाबले में नहीं दिखी। उक्त चुनावों और उसमें कांग्रेस की पतली हालत की चर्चा इस लिये हो रही है क्योंकि इन सभी चुनावों में कांग्रेस ने अपने युवराज राहुल गांधी को आगे करके जीत के बड़े-बड़े दावे किये थे। जीत का स्वाद चखने के लिये राहुल गांधी ने दलितों के यहां जाकर कई दिन गुजारे। उनकी झोपड़ी में बैठकर खाना खाया।मच्छरों के बीच चरपाई पर सोये। जिस तरह राहुल ने दलितों को लुभाने के लिये अभियान चलाया था, उसी प्रकार मुसलानों को रिझाने के लिये भी उन्होंने कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। मुजफ्फरनगर दंगों हो या फिर दादरी कांड अथवा साम्प्रदायिक हिंसा का और कोई मामला राहुल स्वयं ऐसे मौकों पर गये और एक वर्ग विशेष के साथ एक पक्ष बनकर खड़े रहे। इसके बाद भी हाल ही में सम्पन्न हुए यूपी के पंचायत चुनावों में रायबरेली को छोड़कर कहीं भी कांग्रेस का खाता नहीं खुला।सबसे करारी हार राहुल के अपने लोकसभा क्षेत्र अमेठी में हुई है।इस हार की ठीकरा राहुल गाधी और उनके खास लोगों के सिर पर फूटने से बचाने के लिए टीम राहुल व उनके करीबी लोगों ने यह बहाना बनाना आरम्भ कर दिया है कि पंचायत चुनाव चूंकि सिम्बल पर नहीं लड़े गए थे, इसलिए हार की जिम्मेदारी राहुल गांधी पर डालना नाइंसाफी होगी। कांग्रेस को लगातार पराजय मिल रही है,लेकिन आज भी यूपी में गांधी परिवार की उपस्थिति अमेठी रायबरेली, इलाहाबाद और थोड़ी-बहुत सुखा प्रभावित बुंदेलखंड आदि इलाकों तक सीमित है। कांग्रेस के पास कोई ऐसा कद्दावर नेता नहीं है जिसे मुख्यमंत्री के तोर पर प्रोजेक्ट किया जा सके। निर्मल खत्री, मधुसूदन मिस्त्री के सहारे संगठन अगर आगे बढ़ सकता तो कब का बढ़ गया होता। कांग्रेस में सर्वमान्य नेता का अभाव है तो सीएम के नाम पर जब चर्चा होती है तो कांग्रेसियों की सुंई प्रियंका वाड्रा के नाम पर अटक जाती है।
ऐसे हालत में कांग्रेस 2017 में कैसे वापसी कर सकती है। इसका जबाव लोग राहुल से पूछ रहे थे तो राहुल गांधी किसी परिपक्त नेता की तरह जबाव देने के बजाये रणनीतिकार प्रशांत किशोर की शरण में चले गये। पहले मोदी के पीएम की कुर्सी तक पहुंचाने में और हाल ही में संपन्न हुए बिहार चुनाव में जदयू-राजद-कांग्रेस गठबंधन की जीत में अहम भूमिका निभाने वाले राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर राहुल की मंशा को पूरा करने के लिये अब यूपी चुनावों में कांग्रेस की कमान संभाले हुए हैं। पिछले करीब तीन दशकों से कांग्रेसी यूपी में सत्ता का स्वाद चखना तो दूर नंबर तीन से आगे नहीं बढ़ पाये हों,लेकिन प्रशांत किशोर का साथ मिलते ही कांग्रेसी 2017 के चुनाव में बीजेपी, सपा और बसपा को चारो खाने चित कर देने का दावा करने लगे हैं। प्रशांत किशोर एक ऐसा नाम जो अब किसी पहचान का मोहताज नहीं है। फिर यदि परदे के पीछे रहने वाले इस शख्स को आप एक झटके में न पहचान पाएं हों, तो आपके बता दें कि ये वही शख्स है, जिसने पहले मोदी के लोकसभा चुनाव प्रचार की कमान संभाली। उसके बाद प्रशांत के सामने बड़ी परीक्षा तब आई जब बिहार में उन्हें मोदी के खिलाफ और नीतीश के समर्थन में रणनीति बनाने का मौका मिला। लोकसभा चुनाव की कामयाबी का श्रेय मोदी की छवि और उनके जोरदार चुनावी भाषणों को गया। इन भाषणों में कई ऐसे नारे रहे जो आज तक लोगों के जेहन में ताजा हैं। अच्छे दिन की बात हो या ‘सबका साथ सबका विकास की बात,’ मोदी सरकार बनने के बाद भी ये नारे ताजा झोकों की तरह सुनने को मिलते रहे। अब बारी है उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की है। प्रशांत किशोर 2017 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव जीत कर जीत की हैट्रिक लगाना चाहते हैं तो वहीं राजनैतिक पंडितों का कहना है कि प्रशांत से कहीं चूक तो नहीं हो गई है। 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी की और बिहार में नीतीश-लालू गठबंधन की जीत का पूरा श्रेय प्रशांत को नहीं दिया जा सकता है। लोकसभा चुनाव के समय जो माहौल था,उस पर ध्यान दिया जाये तो तब दस वर्ष पुरानी मनमोहन सरकार से जनता बुरी तरह से ऊब चुकी थी और वह विकल्प तलाश कर रही थी। विकल्प के तौर पर उसे मोदी ही सामने दिखाई दिये तो उसने उनको ही चुन लिया। इसी प्रकार बिहार में नीतीश-लालू के महागठबंधन के पक्ष में मतदाताओं की लामबंदी इस लिये हुई थी क्योंकि यह गठबंधन सामाजिक रूप से काफी सशक्त था। नीतीश और लालू का अपना जनाधार था। वहीं उत्तर प्रदेश में अगर सत्ता विरोधी महौल बनता भी है तो इसका सबसे अधिक फायदा उठाने के लिये बसपा मौजूद है। बीजेपी भी मोदी के सहारे यूपी में बड़ा दांव लगाये बैठी है। यूपी में कांग्रेस के पास न तो कोई बड़ा चेहरा है और न ही कोई मजबूत वोट बैंक। उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस या राहुल के साथ जाते हुए प्रशांत किशोर तर्क देते है कि वो संभावनाशील के साथ जाते हैं ? खैर, कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के लिए उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव उनके सियासी सफर की सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा साबित होने जा रहे हैं। राजनैतिक पंडित कहते हैं कि राहुल गांधी के नाम पर चुनाव लड़ाने में प्रशांत किशोर के सामने कई अड़चने आयेंगी। इतने सालों की सियासत के बावजूद भी राहुल गांधी की प्रशासनिक क्षमताएं साफ नहीं हैं। ऐसे में सिर्फ राहुल के नाम पर बनी चुनावी रणनीति का कारगर होना बहुत मुश्किल होगा। लेकिन ध्यान देने वाली बात ये भी है कि कांग्रेस में राहुल गांधी को केंद्र में रखे बिना कोई चुनावी रणनीति बन भी नहीं सकती। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में अग्निपरीक्षा तो प्रशांत किशोर की भी होने जा रही है।
भूलना नहीं चाहिए कि यूपी में जातिवादी राजनीति हमेशा हावी रहती है। कई सीटे तो ऐसी हैं जहां प्रत्याशी का चयन ही योग्यता के आधार पर नहीं उसकी जाति देखकर किया जाता है। इसी प्रकार करीब डेढ़ सौ विधान सभा सीटें ऐसी हैं जहां अल्पसंख्यक मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। यहां भी जीत के लिये किसी रणनीति की जरूरत नहीं पड़ती है। मुसलमान वोटर आंख मूंद कर उसे वोट देते हैं जो बीजेपी का हरा सकता है। ऐसी ही तमाम चुनौतियों का सामना कर रहे आर. जी.(राहुल गांधी ) के माथे पर पी.के (प्रशांत किशोर) कैसे जीत का सेहरा बांध पायेंगे। यह देखने वाली बात होगी।

कांग्रेसियों की आंख की किरकिरी पीके !

यूपी में मरणासन कांग्रेस को नया जीवनदान देने के लिये कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सेवा क्या ली, प्रशांत को लेकर कांग्रेसी आपस में ही झगड़ने लगे हैं,जबकि इससे बेफिक्र प्रशांत किशोऱ उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी के साथ-साथ प्रियंका गांधी, शीला दीक्षित पर दांव लगाने का मन बना रहे हैं। पहले मोदी, फिर नीतीश और अब राहुल गांधी के लिए सियासी प्लान बना रहे प्रशांत किशोर यानी पीके का प्लान कुछ इस तरह का है, जिसके तहत यूपी में मायावती और अखिलेश के सामने कांग्रेस की तरफ से एक बड़ा और भरोसेमंद चेहरा होना जरूरी है। प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री द्वारा राहुल-प्रियंका को सीएम पद का दावेदार नहीं मानने के बावजूद पीके को लगता है कि अगर राहुल गांधी खुद मुख्यमंत्री का चेहरा बन जाये तो इसका फायदा उसे न केवल यूपी के विधान सभा चुनाव में होगा, बल्कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस की स्थिति मजबूत होगी, लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने पीके के इस प्रस्ताव को लगभग नामंजूर कर दिया है। पीके की रणनीति अगड़ी जाति, मुस्लिम और पासी का समीकरण बनाने की है। बीजेपी पहले ही ओबीसी पर दांव लगा चुकी है. इसीलिए वो लगातार बड़े ब्राह्मण चेहरे पर जोर दे रहे हैं। रणनीति के तहत अगर ब्राह्मणों की कांग्रेस में घर घर वापसी होती है, आधा राजपूत मुड़ता है तो मुस्लिम भी कांग्रेस के पाले में आ सकते हैं। दरअसल, पीके यूपी चुनाव में कांग्रेस को आर-पार की लड़ाई लड़ने की सलाह दे रहे हैं और पूरी ताकत झोंकने को कह रहे हैं. इसके लिए वो बिहार की तर्ज पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की बीजेपी की सियासत से भी निपटने को तैयार हैं। पीके के करीबी मानते हैं कि बड़ा चुनाव जीतकर ही राहुल और कांग्रेस दोबारा खोयी ताकत वापस पा सकते है। अगर सीए की कुर्सी के लिये राहुल- प्रियंका पर सहमति नहीं हुई तो पीके ने शीला दीक्षित का भी नाम सुझाया है।
दरअसल, पीके की सलाह है कि कांग्रेस के वो ब्राह्मण चेहरे जो पिछले 27 सालों से यूपी की सियासत में हैं, उनसे काम नहीं चलेगा। इसी लिये वह पुराने चेहरों को किनारे करके कुछ नये और दमदार चेहरे तलाश रहे हैं। पुराने चेहरों को किनारे करने के चक्कर में ही पीके कांग्रेसियों के निशाने पर चढ़े हुए हैं। वह न तो पीके को कोई तवज्जो दे रहे हैं, न ही उनकी रणनीति पर अमल कर रहे हैं। पूरे प्रदेश की बात छोड़ दी जाये राहुल और सोनिया के सियासी गढ़ अमेठी और रायबरेली में भी पीके की नहीं सुनी जा रही है।

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संजय सक्‍सेना
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ निवासी संजय कुमार सक्सेना ने पत्रकारिता में परास्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद मिशन के रूप में पत्रकारिता की शुरूआत 1990 में लखनऊ से ही प्रकाशित हिन्दी समाचार पत्र 'नवजीवन' से की।यह सफर आगे बढ़ा तो 'दैनिक जागरण' बरेली और मुरादाबाद में बतौर उप-संपादक/रिपोर्टर अगले पड़ाव पर पहुंचा। इसके पश्चात एक बार फिर लेखक को अपनी जन्मस्थली लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र 'स्वतंत्र चेतना' और 'राष्ट्रीय स्वरूप' में काम करने का मौका मिला। इस दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे दैनिक 'आज' 'पंजाब केसरी' 'मिलाप' 'सहारा समय' ' इंडिया न्यूज''नई सदी' 'प्रवक्ता' आदि में समय-समय पर राजनीतिक लेखों के अलावा क्राइम रिपोर्ट पर आधारित पत्रिकाओं 'सत्यकथा ' 'मनोहर कहानियां' 'महानगर कहानियां' में भी स्वतंत्र लेखन का कार्य करता रहा तो ई न्यूज पोर्टल 'प्रभासाक्षी' से जुड़ने का अवसर भी मिला।

1 COMMENT

  1. गांधी परिवार का तो दावा प्रधान मंत्री पद के लिए ही बनता है , उनके सदस्य राज्य के मुख्य मंत्री स्तर के पद के लिए दावेदार नहीं होते क्योंकि वे राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं , और ऐसा करना उनकी शान के खिलाफ होगा , जिस प्रकार के दावे गठबंधन के लिए अभी किये जा रहे हैं और उसके अनुसार यदि चुनाव हो तो कांग्रेस का चौथा स्थान तय ही है

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