वादों के खेमेबंदी में कैद विचार

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namvar singhदिनेश परमार

— गत दिनों हिंदी के वरिष्ट आलोचक नामवर सिंह ने एक कार्यक्रम में बीजेपी से सम्बंधित लोगो के साथ मंच साझा क्या किया। वामपंथी खेमेबंधि में भूचाल आ गया
वामपंथी विचारो के` जाने -माने` लेखको ने नामवर सिंह के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. उन्हें कार्यक्रम में न जाने की सलाह या यु कहिये धमकी तो पहले ही दी जा चुकी थी .लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ.  बाद में घर के बहार धरना देने जैसे विचार भी जनवादियों के दिमाग में आये. लेकिन नामवर तो नामवर है नहीं सुनी, किसी की नहीं सुनी. जब से वे मंच साझा करके आये है जनवादियों और प्रगतिशीलों ने अपनी चिर परिचित शैली में नाटक का शुभ आरम्भ कार दिया है. सभी ने अपने अपने तरीके से बयानबाजी प्रतियोगिता में भाग लिया. कोई कहता है नामवरजी का हमारे से कोई सम्बन्ध नहीं. तो किसी ने उन्हें जनवादी लेखक संघ से अलग करने की बात की.  किसी ने सत्ता के आगे नतमस्तक होने जैसे तंज कसे. अचम्भा तो  तब हुआ जब घोर प्रगतिशील `नैतिकता की दुहाई` दे दे कर कोसने लगे . जिनके यंहा मानव मूल्यों के लिए एक मात्र जगह है `कचरा पात्र` वे ही नैतिकता की ढपली बजा- बजाकर अपनी विचारधारा पर अटल रहने का प्रवचन करते नजर आये. देखकर सभी को विस्मय तो हुआ। लेकिन ये सब पहली बार हुआ हो ऐसी बात भी नहीं है

           इससे पहले, बहुत पहले रामविलास शर्मा को कुत्सित `समाजशास्त्रीय` कहकर उनकी जीवन भर की साहित्य साधना को धता बताने वाले उन्ही के` साहित्यिक- पंथ` के ये कर्ता- धर्ता थे. मुक्तिबोध या रांगेय राघव के साथ भी प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से इस प्रकार का व्यवहार करने वाले इन `वादप्रिय` लेखको ,या सही अर्थ में `साहित्यिक -राजनीतिकरो` ने दो वर्ष पूर्व `जनवादी केडर`मंगलेश डबराल को राकेश सिन्हा के साथ मंच साझा करने के ` जुर्म ` में साहित्यिक भाषा में ऐसी `गालिया` दी की मंगलेश जी को  दिल के किसी कोने में आये अपने स्वतन्त्र विचारो [ जिसके चलते वे संवाद में गए थे ]  को वापस अपने `वाद के पिटारे` में डालना पड़ा .ऐसी इक्की- दुक्की नहीं दसियों घटनाएं गिनाई जा सकती है .
लेकिन इन सब के निहितार्थ क्या है. आखिर क्या कारण है की वामपंथी लेखक ऐसी घटनाओ से बौखलाकर उल- जुलूल बोलने लगते है. इन्हें ऐसा कौनसा दर्द सताता है? की ये गालीयो की `कै` करने पर मजबूर हो जाते है? कारण कोई विशेष नहीं .केवल इतना ही है कि,  प्रगतिवादी दूसरे किसी भी विचार के प्रति सहिष्णुता नहीं रख सकते. अन्यो के  विचारो को सिरे से ख़ारिज करने की उनकी परम्परा बड़ी मजबूत है एक प्रकार से इनका स्वाभाव ही ऐसा हो गया है. कि अन्य कोई भी विचार इन्हें थोथा ही लगता है.किसी भी विचारधारा में ऐसी परम्परा का होना  अपने आप में ` नाजी -फासिस्ट` सोच से कम नही. संकीर्ण विचारधारा में दुसरो की अपेक्षा अपनों पर शक जयादा रहता है. वैसे मार्क्स ने  कहा भी है“ हर चीज पर शक करो“.  अब पितृ-पुरुष` ने कहा है तो उस पर चलना भी पड़ेगा.  लिहाजा इस `साल की शक की सुई` नामवरजी पर गई. इनका` डर` शक के रूप में हलक से बाहर निकला. कुछ भी हो इनके ऐसे आपसी अन्तर्विरोधो से मुझे कोई सरोकार नहीं है .
लेकिन !
जेहन में एक प्रश्न सहसा उठ ही गया, उठना भी चाहिए . की यदि किसी विरोधी विचार  वाले के साथ बैठने पर अपनी सोच और चिंतन में फर्क आ सकता है या अपनी प्रतिबद्धता पर कोई आँच आ सकती है  तो या तो अपने विचार में कोई कमी है या हम केवल `बौद्धिकता का ढोंग` कर रहे है ? जब अपने विचार में तार्किकता की कमी आती है तभी तो अन्य विचार हम पर हावी होता है. यदि ऐसा नहीं है तो निः संकोच भाव से संवाद करना चाहिए. लेकिन प्रगतिवादियो के साथ ऐसा नहीं है. क्योंकी इनकी विचार धारा के विरोधाभासी सिद्धांत इन्हें ऐसा करने से रोकते है. जरा सोचिये  राजनाथ सिंह के साथ मंच साझा करने से नामवर सिंह  की प्रतिबद्धता पर आच आ सकती है तो अभय कुमार दुबे के साथ बैठने पर राकेश सिन्हा की प्रतिबद्धता में भी कमी आनी चाहिए.लेकिन ऐसा नहीं है .यदि ऐसा होता तो  राजनाथ सिंह वंहा नहीं जातें न ही अभय कुमार दुबे IPF में आमंत्रित किया जाता.
विचारधारा पर अड़ जाना अच्छी बात है लेकिन संवाद भी होना चाहिए. विचार -भेद पहले भी होता था.किन्तु जिस प्रकार का `साहित्यिक- छुआछुत` आज दिखाई देता है वैसा उस समय नहीं था.भारतीय साहित्यिक क्षेत्र में यथार्थवाद के सबसे समर्थ विचारक तो प्रेमचंद है . लिखनी और करना दोनों में उनके समान महात्मा आज तक कोई नहीं हुआ.  लेकिन वे उन जयशंकर प्रसाद के साथ संपर्क सम्वाद करते थे जिन्हें इन `वाद-विशेषज्ञो` ने प्रतिक्रियावादी कहकर साहित्य क्षेत्र से किनारे करने का काम किया. उनसे मित्रता रखने में प्रेमचंद जी। को। कोई झिझक अनुभव नहीं हुई क्योंकि उन्हें आज के जनवादियों की तरह यथार्थ के खोल में मार्क्सवाद की राजनीती करना पसंद नहीं था. आज तो यथार्थ वादी रचनाये  कम  मार्क्सवादी बयानबाजी ज्यादा होती है.अपने आप को प्रगतिवाद का चोला ओढ़ाकर कला में साम्प्रदायिकता का खेल तो ये ही  खेल रहे है.
` किसी भी विचार में जब आग्रह आता है  तो वह सम्प्रदाय बन जाता है और सम्प्रदाय में जब उग्रता का समवेश होता है तो वह वाद का रूप ले लेता है.ऐसा दादा धर्माधिकारी जी ने कहा है. प्रगतिवादियों के साथ भी यही हुआ. पहले इन्होंने यथार्थ के विचार में मार्क्स का सौंदर्य शास्त्र मिलाकर सम्प्रदाय का रूप धारण किया बाद में उसमे ` भौतिकता को मिलाकर प्रगतिवाद का चोला पहन लिया . अन्यथा यथार्थवादी रचनाये तो 1936 से पहले भी होती थी. किसान मजदूरो की चिंता लेखको को पहले भी थी. फिर इस नविन `पंथ` ने आकर साहित्य रचना और साहित्यिक- अश्पृश्यता` के अलावा कौनसी क्रांति कर दी. अपनी उग्रता और अतिआग्रह के कारण ये समाज के निकट आने की अपेक्षा दूर ही गए है ये कटु सत्य है. स्वयं इनके भीतर ही विचारो का इतना द्वन्द्व है की इन्हें बाहर की सुधि लेने का अवकाश ही नहीं. लेखन इनके हाथ से छुट गया है केवल` पर्चे` बनाने और `फतवे`  देने का अभ्यास बचा है सो कर देते है.
इनके साथ ऐसा क्यों हो रहा है?  क्यों की इन्होंने अपने आप को पंथिकता में लपेट लिया है. जिसका जिक्र हजारी प्रसाद जी द्विवेदी ने किया था. वे  ज्योतिश्चर्य थे इसलिए शायद उन्हें प्रगतिवाद के भविष्य का ज्ञान हो गया था उन्होंने संकेत करते कहा था की “ प्रगतिवाद में यदि संप्रदायिकता का शमवेश नहीं होता है तो यह बड़ा आंदोलन सिद्ध होगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. वास्तव में  मार्क्सवाद अपने आप में एक सम्प्रदाय है वह भी शुद्ध अर्थ में.भारतीय यथार्थवाद के जिस्म में जब मार्क्सवाद की आत्मा घुसी तभी वह उग्र, असहिष्णु,आदि गुणों से युक्त `प्रगतिवाद` बन गया. और लग गया क्रांति की जमीन तैयार करने.
विडम्बना यह  है कि  इन्होंने क्रांति के नाम पर केवल भ्रान्ति फैलाई.  कूलर-पंखो के नीचे सोफे पर बैठकर कलम कागज़ काले तो खूब किये. अपनी रचनाओ में किसानो मजदूरो के हित के विचार भी खूब लिखे लेकिन उन शोषितो जैसा जीवन जिकर वह अनुभव इक्के दुक्के को छोड़कर और किसीने नहीं किया जो इनके लेखन के केंद्र ये लोग प्रतिदिन श्राप की तरह करते है.ये इन किसान- मजदूरो के लिए कोई ठोस कार्य नहीं कर पाये. शोषण का विरोध करने के नाम पर अपनी झोली तो भर ली लेकिन उसे मिटाने में सफल नहीं हुए. अपने अस्सी साल  के कार्यकाल में प्रगति के नाम पर पश्चिमी भौतिकता की जो दुर्गन्ध देश में इन्होंने फैलाई उसका खामियाजा देश भुगत रहा है.
यदि प्रगतिवाद अपने  कार्य में सफल रहा होता तो आज देश में `दक्षिणपंथी` सरकार नहीं बनती. इनकी कमजोरी यही पर स्पष्ट देखि जा सकती है कि ये जिन-जिन का विरोध अप्रसंगीकता के बहाने करते है वह और मजूबत हो जाता है. साहित्य को भी इन्होंने सिवाय अपना स्वार्थ साधने के , क्या दिया है. पहले इन्होंने  तुलसीदास को पुनरुत्थानवादी घोषित किया फिर लगा की इनकी पाठक संख्या तो ज्यादा है तो अपने `खेमे` में ले लिया. रामविलास शर्मा जब तक वर्ग संघर्ष की बात करते थे तो अच्छे थे. जैसे ही परम्परा और मूल्यों की चर्चा शुरू की तुरंत `कुत्सित` हो गए.
इतना सब मिलकर भी इन्हें अपना उद्देश्य पूरा होता दिखाई नहीं पड रहा है. पुरस्कार वापसी जैसे हलके क्रियाकलाप अपना रहे है वह भी उनके सामने जिन्होंने इन्हें पुरस्कार दिए ही नहीं. क्या प्रगत्तिशीलता है !!!

 

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