वैदिक ग्रंथों में भारतीय राष्ट्र की कल्याण कामना

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अशोक “प्रवृद्ध”

पुरातन भारतीय परम्परानुसार जिस प्रकार एक जीवात्मा का निवास एक शरीर में होता है और परमात्मा का निवास इस विशाल ब्रह्मांड में है, ठीक उसी प्रकार देश एक शरीर है तो राष्ट्र उसकी आत्मा है। देश भौतिक तत्व है, दृश्यमान है, स्थूल है, दृश्य अर्थात दिखता है, जबकि राष्ट्र अदृश्य है, सूक्ष्म है, दिखता नहीं है। देश सभ्यता है, तो राष्ट्र संस्कृति है। देश भौतिक है तो राष्ट्र एक आध्यात्मिक विचार है। देश को आध्यात्मिक विचारों से अथवा सांस्कृतिक मूल्यों से ही महान बनाया जा सकता है। भारत कभी विश्वगुरू था तो केवल अपने उत्तुंग राष्ट्रीय आध्यात्मिक भावों के कारण ही था। वैदिक ग्रंथों में भारतीय राष्ट्र की अवधारणा स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है और वेदों में भारत राष्ट्र की महिमागान के साथ ही राष्ट्र के कल्याण की कामना की गई है । वैदिक ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि राष्ट्र की अवधारणा भी वेदों‌ विशेषकर ऋग्वेद तथा अथर्ववेद  में‌ व्यक्त है। सहस्त्राब्दियों से ऋग्वेद के अनेक मंत्र हमारी मातृभूमि तथा संस्कृति के गुणों और मह्त्व की प्रेरणा देते आए हैं और आज भी ये मंत्र अत्यन्त प्रासंगिक तथा उपयोगी‌ हैं । विश्व का सर्वाधिक प्राचीन परमेश्वरोक्त ग्रन्थ ऋग्वेद इसकी पुष्टि करता है –

श्रेष्ठं यविष्ट भारताग्ने द्युमन्तमा भर ।

वसो पुरुस्पृहं रयिम्‌ ॥ -ऋग्वेद 2-7-1

अर्थात – भारत वह देश है जहाँ के ऊर्जावान युवा सब विद्याओं में अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान हैं, सब का भला करने वाले हैं, सुखी हैं और जिऩ्हें ऋषिगण उपदेश देते हैं कि वे कल्याणमयी, विवेकशील तथा सर्वप्रिय लक्ष्मी को धारण करें ।

वैदिक परम्परा में ब्राह्मण के लिए लक्ष्मी ज्ञान है , क्षत्रिय के लिए बल है, वैश्य के लिए धन है और शूद्र के लिये सेवा है ।

ऋग्वेद में ही कहा है –

त्वं नो असि भारता sग्ने वशाभिरुक्षाभि: ।

अष्ठापदीभिराहुत: ॥ -ऋग्वेद 2-7-5

अर्थात – भारत में सभी विषयों में‌ अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान गायों तथा बैलों के द्वारा खेती कर समृद्ध तथा सुखी‌ हैं , और आठ सत्यासत्य निर्धारक नियमों द्वारा संचालित जीवन जीते हैं।

 

ऋग्वेद 6-16-45 में ऋषि प्रार्थना करते हैं कि, हे सभी विषयों में अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान ! आप निरंतर उऩ्हें ज्ञान देते हो जो ज्ञानवान हैं, अत: आप और अधिक ज्ञान प्राप्त कर उऩ्हें‌ ज्ञान दीजिये ।

राष्ट्र कल्याण की कामना करते हुए ऋग्वेद में कहा है –

तस्मा अग्निर्भारत: शर्म यंसज्ज्योक्‌ पश्यात्‌ सूर्यमुच्चरन्तम्‌।

य इन्द्राय सुनवामेत्याह नरे नर्याय नृतमाय नृणाम ॥ -ऋग्वेद 4-25-4

अर्थात – सभी विषयों में अग्नि के समान तेजस्वी विद्वानों को धारण करने वाला भारत सभी मनुष्यों को घर के समान सुख दे, और जो यह कहते हैं कि विद्यावान, उत्तम शीलवान मनुष्यों के मुखिया (इन्द्र) कुशल तथा ऐश्वर्यवान समाज का निर्माण करें, वे बहुत काल तक सूर्योदय देखें।

 

वेदों में ईश्वर से भारत, भारतीय व भारतवासियों की कल्याण की कामना की गई है। ऋग्वेद 6-16-19 में कहा है – हे अग्नि के समान तेजस्वी विद्वतजन, प्रकाश देने वाले, मेघ के द्वारा वर्षा कराने, भरण पोषण करने वाले और मानव की चेतना जगाने वाले, श्रेष्ठ स्वामी सूर्य की स्तुति करते हुए उनका हम सदुपयोग करें। ऋग्वेद 3-53-12 में विश्वामित्र कहते हैं, हे मनुष्य ! हम (इंद्र) की स्तुति करें‌ जो अंतरिक्ष तथा पृथ्वी दोनों के द्वारा भारत में जन्म लेने वालों की रक्षा करता है । ऋग्वेद 3-23-2 के अनुसार, हे अग्नि ! धारण कर्ता और पालन कर्ता और विद्वानों के वचनों के श्रोता और श्रेष्ठ प्रेरणाकारक से प्रेरित पुरुष अनुकूल दिवस पर श्रेष्ठ कौशल के द्वारा धन उत्पन्न करने वाली अग्नि को मन्थन द्वारा उत्पन्न करें जो हम लोगों के लिये सुमार्ग में अग्रणी होवे, (हे अग्नि)आप बहुल धन तथा अन्नादि की कृपादृष्टि रखें।

भारतीळे सरस्वति या व: सर्वा उपब्रुवे ।

ताताश्रिये ॥ – ऋग्वेद 1-188-8

अर्थात – हे भारत माता, हे धरती माँ, हे सरस्वती मैं प्रार्थना करता हूं कि आप हमें लक्ष्मी प्राप्त करने के लिये प्रेरणा दें। अर्थात हमें भारत माता, धरती माँ और विद्या का सम्मान करते हुए धन कमाना है।

 

ऋग्वेद1-142-9 के अनुसार, भारती (भारत माता अर्थात धारण पोषण करने वाली), इला धरती तथा वाक्‌देवी सरस्वती शुद्ध, अमर और देवों को समर्पित यज्ञ का संपादन करने वाले अग्नि देव विशाल यज्ञ को सफ़ल करें। अर्थात, किसी‌ भी महान कार्य को करने के लिये यह तीनों देवियों तथा ऊर्जा के देव अग्नि आवश्यक होते हैं। ऋग्वेद 2-1-11 के अनुसार हे विद्या देने वाले विद्वान देव प्रकाशमान अग्ने ! आप दानशील शिष्य के विकास के लिए अन्तरिक्ष को प्रकाशित करने वाली सूर्य की‌ माता अदिति के समान विद्या के गुणों को प्रकाशित करते हैं। यज्ञ संपादिका, विद्याशील भारती तथा ज्ञानवृद्ध इला आपके सम्मान को बढ़ाती हैं। हे धन के पालन हारे आप मेघहन्ता सूर्य के समान तथा ज्ञान विज्ञानयुक्त वाक्देवी के समान हैं। ऋग्वेद 3-4-8  तथा ऋग्वेद 7-2-8 के अनुसार, प्रबुद्ध, प्रवृद्ध तथा संस्कारित निस्वार्थ सेवा करने वाली‌ भारती (भारतमाता), दिव्य एवं विचारशील पुरुषों को निस्वार्थ संसाधन प्रदान करने वाली‌ इला (पृथ्वी) और अग्नि के समान तेजस्वी ज्ञान विज्ञानमय वाणी वाली सरस्वती, यह तीनों देवियां यहां के (भारत के) वायुमंडल में उपलब्ध हैं, सभी मनुष्य इनका आश्रय लें। ऋग्वेद 3-62-3  में कहा है – हे वज्रधारी इन्द्र और हे ब्रह्माण्ड के नियंता वरुण हमारे पास उचित धन हो, हे पवन देव मरुत हम सब वीर और कुशल हों जो लक्ष्मी प्राप्त कर सकें। वरुत्री: अर्थात हमारी रक्षक देवी, होत्रा अर्थात यज्ञ संपादिका, तथा भारती अर्थात संपूर्ण विद्याओं को पूर्ण करती वाणी की हम शरण लें जो दोनों हाथों से हमारी रक्षा करें। अर्थात- बिना सैन्य शक्ति तथा नैतिकता, वीरता, कौशल, कार्य संपादन की क्षमता तथा श्रेष्ठ विद्या एवं संचार शक्ति के न तो हम लक्ष्मी प्राप्त कर सकते हैं और न अपनी रक्षा।

भारती पवमानस्य सरस्वतीळा मही ।

इमं नो यज्ञमा गमन्‌ तिस्रो देवी: सुपेशस: ॥ ऋग्वेद 9-5-8

अर्थात – हमारे सोम यज्ञ में उत्तम गुणों वाली तीन देवियां – भारती, सरस्वती एवं महान इला – सम्मिलित हों।

 

ध्यातव्य  हो कि ऋग्वेद में इन तीन देवियों -भारत माता, ज्ञान और कार्य करने की जमीनी क्षमता की महिमा बार बार गाई गई है।ऋग्वेद 10-110-8 के अनुसार, हमारे यज्ञ में सूर्य की सी कान्ति वाली भारती, और मनुष्य को ज्ञानी बनाने वाली इळा और उत्तम ज्ञानदा सरस्वती शीघ्र आवें । तीनों उत्तम कार्य करने वाली, प्रकाश और ज्ञान के देने वाली देवियां इस उत्तम आसन पर सुखपूर्वक विराजें । ऋग्वेद 1-22-10 में प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि, हे कार्यकुशल विद्वान अग्ने ! हमारी रक्षा करने के लिये कुल रक्षक देवियों को यहां ले आओ; हमें ऐसी वाणी (भारती) दो जिससे हम देवों को बुला सकें एवं निष्ठापूर्वक सत्य भाषण कर सकें।

 

इस प्रकार यह स्पष्ट कि ऋग्वेद में भारत, भारती अथवा भारतवासी के अनेक अर्थ हैं। जैसे, सब का पोषण करने वाला, अग्नि के समान तेजस्वी तथा भला करने वाला, विद्यावान, उत्तम शीलवान, वाणी के महत्व को समझने वाला, सुख प्रदान करने वाला, चरित्रवान, ज्ञान प्रदान करने वाला, योग्य मुखिया को चुनने वाला, मानवीय चेतना से प्रेरित, भारत माता, धरती माँ और विद्या का सम्मान सहित उपयोग करने वाला, शक्ति और कौशल के द्वारा धन पैदा करने वाला, अपनी रक्षा के लिये चौकस, ऊर्जा का सही उपयोग करने वाला, गुणवानों का सम्मान करने वाला, भारती, इला, सरस्वती तथा अग्नि की सहायता से कार्यों को यज्ञ की‌ भावना से करने वाला इत्यादि। लोगों का कहना है कि ऐसे गुण वाले भारत के रहने वाले भारतवासी भारतीय हैं, बाकी सब इण्डिया में रहने वा ले इण्डियन हैं ।ऋग्वेद के अनुसार हमारी राष्ट्र की परिभाषा का मुख्य आधार संस्कृति है, जीवन मूल्य हैं, और अथर्ववेद के कुछ सूक्त भी जनमानस में मानसिक एकता तथा समानता का उपदेश देते  हुए इसी‌ भावना को बल प्रदान, पुष्टि और सुदृढ़ करते हैं। अथर्ववेद के अनेक सूक्त राष्ट्र की‌ भावनात्मक एकता के लिये बहुत ही उपयोगी ज्ञान, उपदेश देते हैं । इस दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण अथर्ववेद के 1-20, 6-64, 3-30, 3-8-5 आदि सूक्तों के अनुसार अथर्ववेद में मंत्रों में समानता (सामंजस्य) के होने पर बहुत बल दिया गया है। इच्छाओं, विचारों, उद्देश्यों, सकल्पों आदि की एकता के लिये जन मानस में‌ उनके मनों का द्वेषरहित होना, आपस में प्रेम भावना का होना आवश्यक है। वेदों का यह ज्ञान मनुष्य मात्र की एकता का आह्वान करता है, किन्तु विभिन्न देशों की प्रतिद्वन्द्वता तथा कुछ देशों के जीवन मूल्य इन भावनाओं के विपरीत होने के परिप्रेक्ष्य में  इऩ्हें हमारे राष्ट्र की रक्षा के लिये अनिवार्य शिक्षा मानना चाहिये ।

 

 

 

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