मूल्यों पर आधारित राजनीतिक पार्टी की जरूरत

न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी फिलहाल भारतीय नागरिकों की रुचि का अगर कोई विषय है तो वह बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव ही हैं। हालांकि चुनाव बिहार में हैं इसके बावजूद हर उस स्थान पर जहां बिहार के लोग रहते बस्ते हैं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष चुनाव में व्यस्त हैं। दूसरी ओर प्रचलित तरीकों के अलावा खबरों के द्वारा यह बात भी सामने आरही है कि एक नया और रचनात्मक प्रयास बिहार से चलाई जाने वाली वह ट्रेन है जो बिहार के रहने वाले लोगों को को भाजपा शासित राज्यों में ले जारही है ताकि वे लौट कर बताएं कि वहाँ किस प्रकार का विकास हुआ है। इसके लिए बाक़ायदा एक स्पेशल ट्रेन चलाई गई है, जो बिहार के विभिन्न जिलों से युवाओं को लेकर जा रही है। ट्रेन में खाने के पैकेट, पीने का पानी और आवश्यक वस्तुएँ प्रदान की जा रही हैं। 14 डिब्बों वाली ट्रेन में बिहार के विभिन्न क्षेत्रों से युवाओं को यात्रा करवाई जा रही  है। साथ ही यात्रियों को मीडिया से बात करने से भी रोका जा रहा है। और कहा यह जा रहा है कि ट्रेन भाजपा ने नहीं बल्कि एक एन.जी.ओ. की ओर से चलाई गई है। इसके विपरीत यही ट्रेन जब मुगल सराय स्टेशन पर रुकती है तो खबर के मुताबिक़ तुरंत ही स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता यात्रियों को भोजन के पैकेट, पानी और दूसरी चीज़ें पहुँचाने का प्रबंधित करते हैं। इस पूरे संघर्ष का नतीजा क्या निकलेगा यह तो समय ही बताएगा लेकिन यह स्पष्ट है कि इस बार एक एक मतदाता पर अनगिनत धन लुटाया जाना ते है। और इस धन का लुटाया जाना, तरीके और हथकंडे सिर्फ वही पार्टी इख़तियार नहीं कर रही है जिसका हमने उल्लेख किया है बल्कि सभी राजनीतिक दल अपने अपने दायरे में रहते होए खूब बढ़-चढ़ कर नए-नए तरीक़े इख्तियार कर रहे हैं। यानी वह धन जो एक विधानसभा उम्मीदवार को चुनाव आयोग की ओर से तय किया जाता है, उससे कहीं अधिक होगा, लेकिन तरीक़ा वह अपनाया जाएगा जिससे विधानसभा उम्मीदवार पर आंच ना आए। शायद यही कारण है कि सभी राजनीतिक दल आर टी आई के क्षेत्र से बाहर रहने पर सहमत दिखाई देते हैं।

विधानसभा चुनाव की चर्चा करें तो मालूम होता है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पिछले 2010 में जनता दल यूनाइटेड से 115 सीटों पर कामयाब हुए थे, साथ ही भारतीय जनता पार्टी को 91 सीटें मिली थीं। नतीजे में कुल 206 सीटों पर कायबी का सहरा पहनने वाले एन डी ए गठबंधन की  सरकार बनी थी। जब की 2010 में लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल केवल 22 सीटों पर ही सिमटना पड़ा था। दूसरी ओर BJP, BSP, CPI, INS, JDU और LJP से लेकर SSD, SWJP और VIP तक कुल 90 राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों ने विधानसभा चुनाव में अपनी क़िस्मत आज़माई थी। दूसरी ओर 2005 विधानसभा चुनाव में जनता दल यूनाइटेड को 88 और भाजपा को 55 सीटें हासिल हुई थीं और तब पहली बार BJP और JDU गठबंधन वाली सरकार राज्य में बनी थी। वहीं लालू यादव की राजद को उस समय 54 सीटें मिली थीं जो 2010 के मुकाबले 32 अधिक थीं। और अगर पार्टियों की जाए तो 2005 में कुल 58 राजनीतिक दलों ने चुनाव में हिस्सा लिया था, जो 2010 के मुक़ाबले 32 कम थीं। उससे पहले सन 2000 में लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल को 124 सीटें मिली थीं और गठबंधन की सरकार सामने आई थी। कांग्रेस पार्टी जो एक ज़माने में 1951 से लेकर 1972 तक राज्य की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी रही, उसका ग्राफ उस समय ढे गया जब 1977 में जनता पार्टी ने 214 सीटें पर जीत कर एक नया इतिहास रचा। इसके बावजूद 1980 और 85 में फिर कांग्रेस को मौका मिला और उस ने क्रमश: 169 और 196 सीटें प्राप्त कीं, और सरकार बनाई। वहीं 1990 और 95 में जनता दल को क्रमश: 122 और 167 सीटों पर कामयाबी मिली और सरकार बनाई। संक्षेप में यह वह पृष्ठभूमि है जिस में विभिन्न पार्टियां और उनकी सरकारें आती जाती रही हैं।

फिलहाल बिहार में 82.7% प्रतिशत हिंदू, 16.9% प्रतिशत मुस्लिम, 0.1% प्रतिशत क्रिस्चियन और 0.3% अन्य धर्मों के लोग रहते बस्ते हैं। राज्य में 85% प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है तो वहीं 58% प्रतिशत ऐसा वर्ग है जिनकी उम्र 25 साल से कम है। मौजूदा स्थिति में युवाओं की एक बड़ी संख्या ऐसी है जिनके हाथ में बिहार का भविष्य है। लेकिन यह युवा 1977 में जनता पार्टी के रूप में परिवर्तन से अवगत नही हैं, दूसरे अल्फ़ाज़ में राज्य के हालत भी बदल चुके हैं। दूसरी ओर लोकसभा चुनाव के बाद देश में बड़ा परिवर्तन सामने आया है, साथ ही कांग्रेस पार्टी परिणाम के अनुसार फिर से पूरे देश में शर्मनाक हार से दो चार हुई है, राज्य स्तर पर बिहार में BJP और JDU का रिश्ता जो काफी समय से क़ायम था टूट चुका है, जीतन राम मांझी अपनी पार्टी ‘HAM’ बना चुके हैं। वहीं 11 जनवरी 2015 राज्य में गठित एक नया गठजोड़, जो पिछले 20 साल पुरानी रनजशों को भुलाते हुए क़ायम हो चूका है, यानि लालू और नितीश एक प्लेटफॉर्म पर मुजूद हैं। जनता परिवार में शामिल समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह अलग हो चुके हैं। आगे यह भी कि मुलायम सिंह यादव को लोकतंत्र का सबसे बड़ा समर्थक बताते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क़सीदाह खुवानी की है। यह दृश्य वह पृष्ठभूमि है जो स्पष्ट करती है कि बिहार में होने वाले चुनाव, आने वाले दिनों में न केवल देश की राजनीतिक स्थिति का रुख बदलने का स्रोत बनेंगे बल्कि उत्तर प्रदेश के चुनाव पर भी प्रभावित हो सकता हैं। यही कारण है कि राजनीतिज्ञ बड़ी चतुराई और सफाई से चारों ओर व्यस्त हैं।

इस पूरी पृष्ठभूमि में अगर मुसलमानों की बात की जाए तो यह बात सही कहलाएगी की  मुसलमान हर पार्टी के लिए नरम चारा हैं। इसी कारण न उनकी कोई अहमियत है और न ही वह खुद अपनी अहमियत का अहसास रखते हैं। हां यह अलग बात है कि 16.9% यानी 17 प्रतिशत मुसलमान नतीजों के आधार पर न केवल अत्यंत महत्वपूर्ण बल्कि फैसलों का रुख बदलने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। और पूर्व में यह किरदार वह दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान भी निभा चुके हैं। जहाँ सिर्फ 12% प्रतिशत मुसलमानों के मिलने से एक नया इतिहास लिखा गया है। इसके बावजूद न उनकी बात की जाती है, न उनके विकास और समृद्धि पर ध्यान दिया जाता है और न ही उनकी समस्याओं से किसी को लेना देना है। हाँ इस बात से सभी परिचित हैं कि मुसलमान अगर किसी को वोट देंगे तो वह लोकतांत्रिक मूल्यों वाले राजनीतिक दलों ही के पक्ष में देंगे, सांप्रदायिक और हिंसक व्यक्तियों व दलों से परहेज करेंगे। इसके बावजूद मुसलमानों की यह खूबी, आज उनकी एक बड़ी ख़ामी बनकर सामने आ रही है। शायद यही कारण है कि कांग्रेस पार्टी के मीम अफजल, असदुद्दीन ओवैसी के नाम खुला पत्र लिखते हैं और बताते हैं कि इतिहास गवाह है कि मुसलमानों ने अलग राजनीतिक पार्टी बनाने का फार्मूला खारिज किया है। इसलिए बतौर कोंग्रेसी नहीं, बल्कि एक मुसलमान यह अनुरोध है कि आप दुर्लभ चुनावी राजनीति को छोड़ कर बहुत ही सकारात्मक, दीर्घकालिक राजनीति और सामाजिक गतिविधियों पर ध्यान दें, यही समय और मौजूदा हालात का तक़ाज़ा है। यहाँ मीम अफजल साहब की बात उचित मालूम होती है, कि उत्तेजना, दूरदर्शिता, साझा रणनीति से अलग होकर कोई कदम उठाना दीर्धकाल में नुकसान से भरा हो सकता है। इसके बावजूद अफजल साहब खुद बताएं कि 1985 से 90 के दौरान आपकी पार्टी और जनता दल जबकि बिहार में सत्तारूढ़ रहे, उसी दौरान भागलपुर दंगों सामने आए, सवाल यह है की आप और आपकी पार्टी ने पिछले 10 साल जबकि केंद्र में रहे और उससे पहले भी जब जब सरकार और गठबंधन में रहे, भागलपुर दंगों की जांच के लिए किया कुछ किया है? आप चाहें तो जवाब बतौर कांग्रेसी दें या बतौर मुसलमान, लेकिन सवाल केवल आप ही से नहीं बल्कि हर भारतीय मुसलमान को इस पर विचार करना चाहिए कि आखिर कब तक वह मूल्यों पर आधारित राजनीतिक पार्टी की ज़रूरत महसूस नही करेंगे? यहाँ यह संदेह हरगिज़ नहीं रहना चाहिए कि इस अवसर पर हम किसी मुसलमान से असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एम आई एम को वोट देने की बात कर रहे हैं !

2 COMMENTS

  1. लेख तो बहुत ही साफ सुथरा लगा .. केवल इसके कि अंत में एक पुछल्ला छोड़ दिया कि हम ओवैसी का समर्थन कर रहे हैं – ऐसा न सोचें.

    • M. R. Iyengar sb. हमने लिखा है की “यहाँ यह संदेह हरगिज़ नहीं रहना चाहिए कि इस अवसर पर हम किसी मुसलमान से असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एम आई एम को वोट देने की बात कर रहे हैं !” यहाँ तो साफ़ तौर पर एम आई एम को वोट देने से मना करने की बात है, पुछल्ला कहां है ? आप या और लोग कंफ्यूज ना हों, हमने बिहार के मौजूदह हालात को सामने रखते होए एम आई एम को वोट देने से मना है

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