वर का शिकार

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वर

 

वर
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कुछ लोग कहते हैं कि रिश्ते ऊपर से ही बनकर आते हैं। फिर भी विवाह के विज्ञापनों का कारोबार खूब फल-फूल रहा है। किसी समय उत्तर भारत में हर रेलमार्ग के किनारे दीवारों पर ‘रिश्ते ही रिश्ते’ जैसे विज्ञापन लिखे मिलते थे; पर अब इनकी जगह पत्र-पत्रिकाओं और इंटरनेट ने ले ली है। आजकल लड़के और लड़की में समानता की बातें बहुत कही जाती हैं, फिर भी लड़की के माता-पिता उसके विवाह के लिए चिन्तित रहते ही हैं। लड़की के लिए वर ढूंढना तो एक सामान्य सी बात है; पर ‘वर के शिकार’ की बात सुनने में अजीब सी लगती है; पर मेरे एक मित्र का प्रसंग ऐसा ही है।

बात लगभग 35 साल पुरानी है। मैं मेरठ विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में एम.ए. कर रहा था। उन दिनों जिन दो-चार मित्रों से बहुत घनिष्ठता हुई, उनमें मेरा सहपाठी राजेश वर्मा भी था। मेरठ से हरिद्वार मार्ग पर एक छोटा सा कस्बा है दौराला। वहां एक बड़ी चीनी मिल है। उसके पिता श्री रामलाल जी उस मिल द्वारा संचालित प्राथमिक स्कूल में प्रधानाचार्य थे। उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी तो नहीं थी; पर हर महीने मिलने वाले वेतन से घर में खाने, पहनने और बच्चों की पढ़ाई में कोई परेशानी नहीं थी।

वैसे तो वे बरेली के मूल निवासी थे; पर पिछले 25 साल से यहीं नौकरी कर रहे थे। सब बच्चों का जन्म भी यहीं हुआ। मिल की ओर से उन्हें दो कमरे का मकान मिला था; पर उन्होंने थोड़ी जमीन लेकर निजी मकान भी यहीं बना लिया था। विद्यालय के बाद वे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते थे। इससे भी कुछ आय हो जाती थी। कुछ खेती की जमीन भी उन्होंने ले ली थी, जिसे वे हर साल बटाई पर दे देते थे। साल भर के लिए राशन वहां से आ जाता था।

राजेश पढ़ाई में बचपन से ही अच्छा था। इंटर तक तो उसे द्वितीय श्रेणी ही मिली; पर बी.ए. करने के लिए वह मेरठ में ही कमरा लेकर रहने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि बी.ए. में उसकी प्रथम श्रेणी आयी। उसके पिताजी चाहते थे कि अब वह भी उनकी तरह किसी स्कूल में नौकरी कर ले; पर उसके सपने ऊंचे थे। अतः उसने राजनीति शास्त्र से एम.ए. करने का निर्णय लिया। बी.ए. की तरह उसे एम.ए. में भी प्रथम श्रेणी मिली। पूरे काॅलिज में उसके सबसे अधिक नंबर आये थे। वि.वि. की मेरिट सूची में भी उसका नाम था।

उन दिनों राजनीति शास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. यादव थे तथा उनके बाद डा. सिन्हा का नंबर आता था। जिस दिन मार्कशीट मिली, उस दिन काॅलिज में सभी छात्र प्रफुल्लित होकर घूम रहे थे। अचानक सिन्हा जी की नजर राजेश पर पड़ी, तो उन्होंने उसे अपने कमरे में बुला लिया। उसकी पीठ थपथपाते हुए वे बोले, ‘‘बेटा राजेश, तुमने अपने माता-पिता का ही नहीं, हमारे काॅलिज का नाम भी ऊंचा किया है। बहुत-बहुत बधाई हो।’’

– सर, ये आपके आशीर्वाद का ही फल है।

– तो अब आगे क्या करने का विचार है ?

– सर, मेरी इच्छा है कि इलाहबाद जाकर सिविल सेवा की तैयारी करूं। अगर भाग्य ने साथ दिया, तो…।

– ये तो बड़ी अच्छी बात है; लेकिन तुमने इसके दूसरे पक्ष पर भी विचार किया है क्या ?

– जी दूसरा पक्ष कौन सा ?

– वो ये कि हर साल लगभग एक लाख छात्र इस परीक्षा में बैठते हैं, और उसमें से सिर्फ एक हजार चुने जाते हैं। उनमें भी आई.ए.एस. तो दो-ढाई सौ ही बनते हैं। बाकी लेखा विभाग, वन विभाग या विदेश विभाग आदि में भेज दिये जाते हैं। यद्यपि मुझे तुम्हारी योग्यता पर भरोसा है; फिर भी मैं तुम्हें एक सुझाव और देना चाहता हूं।

– जी सर बताएं।

– मेरी राय है कि तुम मेरे निर्देशन में यहां से ही पीएच-डी. करो। इसमें ढाई-तीन साल लगेंगे। दो साल बाद यादव जी रिटायर हो रहे हैं। उसके बाद विभागाध्यक्ष मैं बनूंगा। तब मैं तुम्हें इसी विभाग में प्राध्यापक बना दूंगा।

– लेकिन सर, सिविल सेवा में जो प्रतिष्ठा है, वह…?

– हां, तुम ठीक कहते हो; पर वहां चयन होगा या नहीं, इसमें संदेह है, और यहां चयन की शत-प्रतिशत गारंटी है। जहां तक प्रतिष्ठा की बात है, तो डिग्री काॅलिज के प्राध्यापक की प्रतिष्ठा भी कम नहीं होती। फिर अभी तुम्हारी आयु भी कम है। इसलिए तुम प्रोफेसर, रीडर और प्रधानाचार्य तक तो बड़े आराम से पहुंच जाओगे। यदि राजनीतिक माहौल अनुकूल रहे, तो किसी वि.वि. में उपकुलपति या राज्य और केन्द्र के शिक्षा विभाग में भी अच्छा स्थान मिल सकता है। इन पदों की प्रतिष्ठा और सुविधाएं भी किसी आई.ए.एस. अधिकारी से कम नहीं होती।

– सर, आपने तो मेरे दिमाग में हलचल पैदा कर दी है; पर मेरे पिताजी मुझे डी.एम. की कुर्सी पर बैठे देखना चाहते हैं।

– इसमें तो कुछ गलत नहीं है; पर उन्हें इसके व्यावहारिक पक्ष की जानकारी नहीं है। मैंने भी इस चक्कर में दो साल खराब किये हैं। वरना आज मैं इस काॅलिज में प्रधानाचार्य होता; पर मुझे कोई ठीक सलाह देने वाला नहीं था। खैर, मैं तुम्हारा मनोबल तोड़ना नहीं चाहता; पर जो जमीनी सच है, उसे भी ध्यान में रखना चाहिए।

‘‘ठीक है सर, मैं विचार करूंगा।’’ इतना कहकर राजेश ने उनके पैर छुए और बाहर आ गया।

सिन्हा जी ने राजेश के मन में उथल-पुथल मचा दी। उसके पिताजी की नजर में डिग्री काॅलिज में प्राध्यापक होना बहुत बड़ी बात थी। मेरी राय थी कि उसे सिविल सेवा में जाना चाहिए। इसी उलझन में एक सप्ताह बीत गया। अंततः उसने सिन्हा जी का प्रस्ताव मानकर पीएच-डी. के लिए आवेदन कर दिया। सिन्हा जी उसके निर्देशक थे ही। अतः कुछ ही दिन में उसे एक सरल विषय और वि.वि. से छात्रवृत्ति स्वीकृत हो गयी।

इसके बाद वही सब हुआ, जैसा सिन्हा जी ने कहा था। अर्थात उसके नाम के साथ डाॅक्टर की उपाधि लग गयी और उसे मेरठ काॅलिज के राजनीति शास्त्र विभाग में नियुक्ति भी मिल गयी।

मैंने एम.ए. के बाद पढ़ाई को विराम दे दिया था। अब होली-दीवाली के शुभकामना संदशों से ही हम एक-दूसरे को याद करते थे। प्राध्यापक बनने पर उसने सभी मित्रों को एक छोटी सी पार्टी दी। वहां उससे मिलकर बहुत खुशी हुई। हमारी मित्रमंडली में वह सबसे आगे निकल गया था। इसकी चमक उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखायी दे रही थी। मैंने उससे पूछा, ‘‘अब अगले कार्यक्रम की तैयारी कब है ?’’ उसने मतलब समझते हुए कहा, ‘‘जल्दी ही तुम्हें खुशखबरी दूंगा।’’

साल भर बाद उसके विवाह का निमन्त्रण मिला। उसका विवाह सिन्हा जी की बेटी से हो रहा था। विवाह में सभी मित्र सपरिवार पहुुंचे। खूब आनंद का वातावरण रहा। विवाह के छह माह बाद वह किसी काम से दिल्ली आया, तो मेरे पास ही रुका। रात में गपशप करते हुए जो रहस्य प्रकट हुआ, वह बहुत रोचक था।

हुआ यों कि पीएच-डी. करते हुए राजेश का सिन्हा जी से सम्पर्क काफी बढ़ गया। वे काॅलिज में तो उसे गाइड करते ही थे, कभी-कभी घर भी बुला लेते थे। इससे उसका परिचय उनकी बेटी शुभ्रा से हुआ, जो अंग्रेजी में एम.ए. कर रही थी। यह परिचय धीरे-धीरे घनिष्ठता में बदल गया। सच तो यह है कि सिन्हा जी इस घनिष्ठता को प्रोत्साहित ही कर रहे थे। पीएच-डी. पूरी होने पर राजेश को नियुक्ति मिल गयी। इस दौरान राजेश और शुभ्रा ने एक-दूसरे को अच्छे से समझ लिया था। अतः सिन्हा जी ने राजेश और फिर उसके पिताजी से बात की और इस प्रकार दोनों विवाह बंधन में बंध गये।

यह सुनकर मैं खूब हंसा, ‘‘जैसे बकरी बांधकर शेर को फंसाया जाता है, ऐसे ही सिन्हा जी ने नौकरी का लालच देकर अपनी बेटी के लिए ‘वर का शिकार’ कर लिया।’’

राजेश ने कहा, ‘‘हां, सच तो ये ही है; पर शायद मेरे भाग्य में यही लिखा था। नौकरी भी अच्छी है और शुभ्रा भी। इसलिए दोनों से संतुष्ट हूं। घर वाले भी खुश हैं।’’

इसके बाद राजेश क्रमशः आगे बढ़ता गया। शुभ्रा को भी पीएच-डी. के बाद अंग्रेजी विभाग में नियुक्ति मिल गयी। इस प्रकार दोनों जीवन में उन्नति करते गये।

यद्यपि अब सिन्हा जी नहीं हैं; पर उनकी दूरदर्शिता की प्रशंसा तो करनी ही होगी। उन्होंने जैसा सोचा था, लगभग वैसा ही हुआ। पिछले महीने एक वि.वि. के उपकुलपति पद से सेवा निवृत्त होकर राजेश ने अपने पुराने मित्रों को पार्टी दी। पुराना समय और बातें याद कर सब बहुत आनंदित हुए।

यद्यपि राजेश अपनी जीवन यात्रा को सफल मानता है; पर मुझे आज भी लगता है कि उसमें प्रतिभा बहुत अधिक थी। यदि वह सिन्हा जी द्वारा फैलाये गये जाल में न फंसता, तो निःसंदेह बहुत बड़ा प्रशासनिक अधिकारी होता; पर जो हुआ, उसे उसका भाग्य कहें या दुर्भाग्य, इसका निर्णय आप करें।

 

विजय कुमार

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