‘‘ वतन का हर ज़र्रा देवता है ‘‘।

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vark जावेद उस्मानी
भारत का सौहाद्र दुनिया के लिए मिसाल है लेकिन गाहे बगाहे कुछ सरफिरे अपने निहित स्वार्थ के कारण व्यर्थ के विवादो को हवा देते रहते है  इनमें दिशाविहीन और विचारहीन ,सियासतदां भी शामिल हैं। धर्म ,जाति और भाषा पर ऐसे तत्वो का हस्यापद आचरण व विषवमन समरसता और मानवता के विरुद्ध  अपराध से कम नही है। राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् पर कतिपय तत्वों का आपत्ति जनक रुख भी ऐसा ही एक, अक्षम्य कृत्य हैं।
24 जनवरी 1950 संविधान सभा की अध्यक्षता कर रहे प्रथम राष्ट्रपति डा0 राजेन्द्र प्रसाद ने  वंदे मातरम को राष्ट्रीय गीत के रुप में मान्यता की घोषणा करते हुए कहा था कि ‘जन गण मन राष्ट्रीय गान है और वंदे मातरम् राष्ट्रीय गीत होगा। राष्ट्रीय गान के तुल्य राष्ट्रीय गीत का दर्जा व मान होगा। तत्कालीन राष्ट्रपति का संविधान सभा में दिया गया वक्तव्य और सदन की स्वीकृति इस विषय की संपूर्ण व्याख्या है। इस लिहाज से राष्ट्रीय गान और गीत के सम्मान मघ्य, भेदभाव करना असंगत हैं। इसलिए जब, 10 मई 2013 बजट सत्र के अंतिम दिन बहुजन समाज पार्टी के सांसद शफीक उर रहमान द्वारा राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम का बष्हिकार करना पूरे सदन को नागवार लगा था। लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने गहरी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा था कि ‘आइंदा ऐसा न हो ‘ लेकिन बजाए शर्मिंदा होने के बर्क, बकायदा बायकाट का ऐलान करके, 5 अगस्त 2013  को मानसून सत्र के पहले दिन अनुपस्थित रहे , यह तीसरा मौका है  जब उन्होने ऐसी हरकत की है  इससे पहले वे  सन् 1997 में संसद स्थापना के स्र्वण जयंती कार्यक्रम में ऐसा कर चुके है ।
अपने कृत्य के औचित्य को जायज ठहराते हुए, 80 वर्षीय बर्क ने कहा था कि उनका कृत्य असंसदीय नही है। संविधान में राष्ट्र गान भांति राष्ट्रीय गीत के सम्मान का प्रावधान नही है। मै, राष्ट्र गान  जन  गण मन  का पूर्ण सम्मान करता हूं, राष्ट्र के लिए जीवन दे सकता हू, मां के चरणो के नीचे स्र्वग है लेकिन ईश्वर के अतिरिक्त मैं किसी को नमन नही कर सकता। उन्होने उच्चतम न्यायालय एक फैसले पी वी एम्मानुएल बनाम केरल राज्य का जिक्र भी किया , जिसमें सबसे बड़ी अदालत  गायन को अनिवार्य नही मानती है। बर्क ने अपने बचाव में अर्ध सत्य का सहारा लिया, उन्होने जितना हिस्सा पक्ष में था उसका उल्लेख किया जो नही था उसे उद्धृत नही किया।
संविधान व न्यायालय, के हवाले जो तर्क उन्होने परोसा हैं, उसे एक पल लिए सही मान लिया जाये तो उनके कथनानुसार, जब , वंदे मातरम् के गायन का कोई  कानूनी  बंधन  हैं नही , तो वे बष्हिकार किसका कर रहे थे ? बचाव के लिए ढाल की तरह उन्होने विजोय एम्मानुएल बनाम केरल राज्य 86 का जिक्र किया है उस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने सुस्पष्ट किया था कि गायन ऐच्छिक है किंतु राष्ट्रगान का सम्मान अनिवार्य है। सबसे बड़ी अदालत ने स्कूल से जिनोवा छात्रो के निकाष्सन आदेश को रद्द करते हुए ,यह भी कहा है कि हमारी विरासत और दर्शन सहिष्णूता है, इसे कायम रखना चाहिए।
धर्म आधारित एक मामला कलकत्ता हाई कोर्ट के सामने आया था। याचिकाकर्ता ने अपने विश्वास को ठेस पहुचने  का हवाला देते हुए धार्मिक ग्रंथ को प्रतिबंधित करने की मांग की थी , इस पर उच्च न्यायालय का फैसला एक नजीर  है। संविधान का अनुच्छेद 29, 30 धारा 398 व 398 ए में अल्पसंख्यक व उनके अधिकार वर्णित है। भारतीय दंड प्रक्रिया की धारा 153 क व धारा 295 क  कोई ऐसा कार्य  जिसमें धर्म वंश,भाषाई, क्षेत्रीयता, जाति ,समुदाय के बीच मधुर संबध पर विपरित प्रभाव पड़ता हो और ऐसे कृत्य से लोकशांति में विघ्न पड़ने की संभावना होने पर लागू होती हैं। इस संबध में चंदनमल बनाम पश्चिमी बंगाल का मामला विशेष है। धारा 153 -क के संदर्भ में चदंनमल चोपड़ा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले में कलकत्ता उच्च न्यायलय का निर्णय सभी धर्म ग्रंथो पर आशालीन प्रहार से संरक्षण देता है। उच्च न्यायालय में अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत दायर याचिका में, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 95 के अंर्तगत कुरान की सभी प्रतिया जब्त करने की मांग यह कहकर की गयी थी कि उसमें देवमूर्तियो को खंडित करने तथा गैर मुस्लिमों के प्रति हिंसा के प्रयोग का समर्थन किया गया है। जिससे गैर मुस्लिमों की भावना को ठेस प्रदायो में वैमनस्य तथा घृण्णा उत्पन्न होती हैं याचिकर्ता के अनूसार इस कारण कुरान का प्रकाशन दण्ड संहिता की धारा 153 क तथा धारा 295 क के अधीन अपराध सृजन करता हैं अपने तर्क की पुष्टि में याचिकाकर्ता ने कुरान के अलग अलग भागो के अलग अलग उदहरण को उद्वत किया था उच्च न्यायलय ने दलील को अस्वीकार्य करते हुए अभिकथन किया कि इस मामले में धारा 153 क एंव  295 क लागू नही होता हैं कुरान उतना ही पवित्र धर्म ग्रंथ हैं जितना बाइबल, रामायण, महाभरत और गीता हैं। कुरान के कारण आज तक लोकशांति भंग नही हुई हैं न आगे होने की संभावना हैं न्यायालय ने अपने मत प्रगट करते हुए कहा था कि याचिकाकर्ता को 153 क के अपराधी माना जाना चाहिए क्योकि उसने मुस्लिम गैर मुस्लिम के बीच धर्मके आधार पर शत्रुता व वैमनस्य फैलाने का यत्न किया हैं संविधान के अनुच्छेद 25 के अधीन मिली अंतकरण की आजादी का सरासर उल्लंघन है। लेकिन बर्क ,मतलब साधने के लिए केवल याचिका का उल्लेख करे और सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय को छुपा ले जाये तो उनकी नीयत  और चंदनमल चोपड़ा की सोच में अंतर नही दिखता है।
बर्क के अनुसार मान्यताओ के अधीन अपने आराध्य के अतिरिक्त किसी अन्य की आराधना उनके लिए वर्जित है। किंतु उसी धर्मग्रंथ में अन्य मजहब का सम्मान करने की बात भी अंकित हैं। किसी पंथ की विधि का अनुकूलन नही करना एक अलग विषय हैं किंतु बष्हिकार, उसके प्रति अनादर की अभिव्यक्ति हैं। धर्मग्रंथ में अनुयायियो से आचरण संबधी और भी आपेक्षाए है, मिसाल के तौर पर झूठ नही बोलना, और कौल (वचन) निभाना, अब राजनीति कर रहे बर्क ही बता सकते है कि वे इसका कितना प्रतिपालन कर रहे हैं?
वंदे मातरम से देश की भावनाएं जुड़ी हुई है , राष्ट्रीय महत्व के इस गीत से स्वाधीनता संग्राम की यादो  का गहरा नाता है। सदन में किसी धर्म के आराध्य का सम्मान जनक उल्लेख वर्जित नहीं है, सर्व धर्म सम भाव की दृष्टि है मज़हबी समस्याओ पर चर्चा होती है तो हर समुदाय के लोग हिस्सा लेते हैं । शाहबानो जैसे उदाहरण सामने है। धार्मिक मान्यताओं परंपराओ  से संबधित जो  कानून बने है , उसके प्रावधानो पर उस धर्म विशेष की भी सहमति / असहमति होती है, लेकिन लागू वही अंश होता है जो बहुमत द्वारा पारित किया जाता है। मतभेद की स्थिति में मतदान भी होता है। इसमे अन्य धर्मों  को मानने वाले सांसद भी हिस्सा लेते है।, प्रावधानो से असंतुष्टि अलग बात है लेकिन उसका निरादर करना अलग विषय है। विशेषकर ईश्वर के नाम पर संविधान के अनुसार आचरण करने के शपथग्रहण करने के बाद निर्धारित प्रक्रिया का पालन अध्यात्मिक विश्वास के हवाले नही करना अपने आराध्य की अवमानना है।
गौर तलब है कि बर्क की आपत्ति, वंदे मातरम् की तरह अन्य राष्ट्रीय प्रतीको पर नही है। राष्ट्रीय पुष्प कमल, एक पार्टी का चुनाव चिन्ह है और धार्मिक क्रिया कलापो में प्रयुक्त होता है लेकिन चुनावी पोस्टर व विज्ञापन में अंकित इसके  चित्र का मान, राष्ट्रीय और धार्मिक प्रतीक जैसा नही हैं , इससे स्पष्ट है कि आदमी वस्तु को जिस नजरिये से देखता है वैसी ही उसकी अनुभूति व प्रतिक्रिया होती है मिसाल बतौर नमाजी,  जब काबा शरीफ के जानिब मुख का उल्लेख कर नमाज की नीयत बांधते है तो आशय काबे की दिशा में मुंह करने के इरादे से होता हैं , काबा के निर्माण व भवन अथवा काबा की पूजा से नहीं , काबा के सामने नमाज़ अदा करते समय भी यही संकल्प किया जाता है। हज के दौरान इसकी परिक्रमा और संगअसवत पत्थर का श्रद्वापुर्वक चुम्बन स्र्पश के समय, किसी के दिल में यह ख्याल नही आता है कि वह किसी साकार की उपासना कर रहा है, इस पर सवाल नहीं उठता क्योंकि अनुयायी के लिए वह केवल एक पवित्रतम स्थल है , ईश्वर नहीं।  राष्ट्रगीत में मातृभूमि को मां मानते हुए उसका नमन् है । जब एक व्यक्ति के विश्वास एवं श्रद्धा के अनुसार ईश्वर ही मात्र परमपूज्य है, निराकार है, तो एक मां या भारत मां को वंदन कहते हुए , अपने विश्वास या श्रद्धा के विरूद्ध कल्पना उसकी नीयत की खोट ही हैं। मां तो हर बच्चे के लिए मान योग्य, वंदन योग्य होती है, फिर एक नागरिक द्वारा मातृभूमि (भारत) को मां कह कर उसकी वंदना या गायन करने से किसी का धार्मिक विश्वास कैसे प्रभावित होता है?  बर्क खुद मानते है कि मां के चरणों में  जन्नत है , वे इसका सम्मान करते है । जाहिर है  कि मान का प्रगटीकरण कर्म से होता हैं लेकिन इसके उद्घोष पर उनकी आपत्ति हैं यानि व्यवहारिक  आचरण में वें, जिसका सम्मान करते है उसकी अभिव्यक्ति को नकारते है , यह उनके स्वयं के  दोमुहे नजरिये को उजागर करता है। मनुष्य का  दृष्टिकोण उसकी  सोच  और समझ का प्रतिबिम्ब हैं। वास्तव में उनका सारा तर्क शब्द वंदे को ले कर है, जो मूलतः संस्कृत का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ वंदना करना या पूजा करना है, जबकि व्यवहार में इसका एक अर्थ सम्मान प्रकटन भी है। उदाहरणार्थ हिन्दी समाचारपत्रों में , किसी सम्मानीय या जनप्रिय व्यक्ति के आगमन पर प्रकाशित विज्ञापनों में अक्सर चंदन, वंदन, अभिनंदन जैसे शब्दों का उपयोग होता है, और विज्ञापनदाताओं में सभी संप्रदाय से संबंधित लोगों  के नाम भी होते हैं । सबसे सुंदर उदाहरण तो ए.आर.रहमान एवं लता मंगेश्कर जी द्वारा गाए युगल गीत वंदे मातरम – मां तुझे सलाम़़ है, जिसमें देश को मां कहते हुए सलाम किया गया है अर्थात्  मां के समान इज्ज्त दी गई है । गौर तलब हैं कि कोई मां को देश नहीं कहता लेकिन देश को हर कोई मां कहता है क्योंकि मां एवं मां का स्नेह वह श्वाश्वत सत्य है, जिसे हर कोई सलाम कहता है, इज्जत देता है, कोई मां में रब देखता है कोई ईश्वर, क्या मां के सम्मान से ,मां को सलाम करने से, मां को वंदन करने से किसी का विश्वास आहत होता है? यदि नही तो स्वदेश को मां मानकर उसे सलाम करन या मूल शब्द वंदे मातरम्  कहने से किसी की शफीक साहब की धार्मिक मान्यता पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। वैसे भी एक मुस्लिम का ईमान कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ही है और कोई नहीं, वह निराकार है और बस वही इबादत के योग्य है, इतना गहन है कि उस पर कोई अन्य परिकल्पना हाबी ही नहीं होनी चाहिए। अंततः भारत सहित समस्त बह्मांड का निर्माता ईश्वर ही है, यह मान्यता एवं विश्वास तो सभी धर्मों में है। देश को सर्वोपरि सर्वाधिक सम्मानीय मानने के कारण ही वंदे मातरम गीत के सर्वमान्य अंश को तत्कालीन संसद की  सहमति से राष्ट्रगीत का दर्जा दिया गया, जिसका सम्मान करना हम सब का फर्ज है।
एक भारतीय के रूप में हम भिन्न मान्यताओं एवं विश्वास वाले समाज में रहते हैं। किसी एक के पूजा के तरीके से या सांस्कृतिक विधान से अथवा पर्व उत्सव मनाने के ढंग से दूसरे की परम्पराएं एवं विश्वास प्रभावित नहीं होते बल्कि सब मिलजुल कर जीवन को गति देते हैं, प्रेम एवं स्नेह के बंधन को मज़बूत ही करते है, यही इस देश का वर्तमान सामाजिक सत्य है  इसे बनाए रखना हमारा हमारा कर्तब्य है, इसे केवल कुतर्कों के सहारे पर विशेषतः धार्मिक विश्वास या श्रद्धा की आड़ ले कर , गलत सिद्ध करना सरासर अनुचित है। अरदास, आरती, शंख ध्वनि, अज़ान , प्रवचन, भजन, कबीरवाणी, चाहे अनचाहे सुनना हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हैं, यह हमारे  दैनिक जीवन से इतना घुली मिली हुई है कि आमतौर पर इनके अलग होने का एहसास नही होता हैं। हमारी संस्कृति की पंथ निरपेक्षता का यह सबसे लाजबाब पहलू है।

 

5 COMMENTS

  1. उस्मानी सर, आपको नमन…

    आज के माहौल में भी आप अपने को उन कट्टरवादी विचारों से दूर रख एक सच्चे भारतीय की सोच रखते हैं…इसलिए आपको बधाई… मैं आप जैसे मुसलमानों और सच्चे भारतियों को दिल से नमन करता हूँ… काश सभी भारतीय मुसलमान इसी तरह की सोच रखें तो कोई दंगे-फसाद और मन मुटाव ही न हों

    आर त्यागी

  2. आज एक लेख बहुत दिनों बाद देखने को मिला जो हिन्दू मुस्लिम समरसता के लिए सुन्दर उपयोगिता यमुना,, दर्शाता है ।हम गर्व के साथ कह सकते है की सत्य तो यह है की उन सम्बन्धो जो की हिन्दू- मुस्लिम के लिए हैं । परिभाषित ही नहीं किया गया । राज्य का नेतृत्व उनका स्वतंत्रता के बाद से ही दोहन करता रहा सरकारें किसी भी दल की रहीं हो ।एक लेख जो मिमंसत्मक है आज मेरे समक्ष है आप लोग भी पढ़ें और गुने ….
    यमुना,,

  3. वाह उस्मानी साहब…. अति उत्तम…. अभिनन्दन आपका. कदाचित स्वार्थी लोगों ने सारी परिभाषाएँ मर्यादाएं अपने अनुकूल ढालने कि प्रवृत्ति बनाई हुई है. स्वार्थ और दुराग्रह पर तार्किक चोट करता लेख.

    सादर

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