कहानी – वत्सला

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motherमंगलवार को साप्ताहिक बाजार बंदी के कारण कुछ फुर्सत रहती है। कल भी मंगलवार था। शाम को मैं अपनी पत्नी राधा के साथ चाय पी रहा था कि देहरादून से शिबू का फोन आ गया।

– कैसे हो भाई.. ?

– भगवान की दया है।

– एक शुभ समाचार है। तुम्हारी सोनचिरैया के पर निकल आये हैं। इस वंसत पंचमी पर वो अपने घर चली जाएगी।

मैंने चाय का कप मेज पर रख दिया। आंखों में आंसू आ गये।

राधा ने पूछा – क्या बात है; किसका फोन था ?

– देहरादून से शिबू का फोन था। अगली वसंत पंचमी पर हमारी सोनचिरैया का विवाह है।

– ओह..।
……………

आगे बढ़ने से पहले शिबू और सोनचिरैया के बारे में बताना जरूरी है।

शिबू यानि शिवनाथ और मैं बचपन के दोस्त हैं। मेरठ में उसका और मेरा घर पास-पास ही है। कक्षा बारह तक हम दोनों साथ पढ़े। मेरी रुचि विज्ञान में नहीं थी। गणित की किताबें देखकर मुझे बुखार आ जाता था; पर उन दिनों लड़के प्रायः विज्ञान लेते थे और लड़कियां कला, गृह विज्ञान आदि। विज्ञान न लेने वाले लड़कों को पढ़ने में कमजोर माना जाता था। इसलिए मुझे भी विज्ञान वाले विषय लेने पड़े। हाईस्कूल तो जैसे-तैसे पार हो गया; पर इंटर में मेरी गाड़ी अटक गयी।

दूसरी ओर शिबू पढ़ने में बहुत तेज था। उसने हाई स्कूल में प्रथम श्रेणी पायी थी और इंटर में तो जिले के पहले दस छात्रों में उसका नाम था। इसके बाद मैंने जैसे-तैसे इंटर किया और फिर पिताजी से साफ कह दिया कि अब आगे विज्ञान पढ़ना मेरे बस में नहीं है। पिताजी ने गुस्से में आकर पढ़ाई बंद कर दुकान संभालने को कहा; पर मैंने बताया कि मुझे परेशानी पढ़ाई से नहीं, बल्कि विज्ञान से है।

अंततः वे मेरी परेशानी समझ गये; पर उन्होंने यह शर्त रखी कि मुझे दुकान पर भी बैठना पड़ेगा। मैंने यह बात मान ली। हमारे यहां आयुर्वेदिक दवाएं बनती हैं। उनकी एजेंसियां कई जगह हैं। बी.ए. कर मैं पूरी तरह कारोबारी हो गया। काम के सिलसिले में पहले पिताजी बाहर जाते थे। अब मैं जाने लगा।

उधर शिबू ने लगातार प्रथम श्रेणी में गणित में एम.एस-सी. और पी-एच.डी की। फिर वह देहरादून के डी.ए.वी. डिग्री काॅलिज में पढ़ाने लगा। देहरादून में वह जिस मकान में किराये पर रहता था, उसके मालिक सूबेदार पानसिंह अवकाश प्राप्त फौजी थे। उनके दोनों बेटों की शादी हो चुकी थीं। बस सबसे छोटी लड़की चंदा बाकी थी, जो देहरादून में ही केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ाती थी। आते-जाते दोनों में परिचय हो गया। चंदा यद्यपि शिबू से तीन साल बड़ी थी, फिर भी दोनों ने विवाह का निश्चय कर लिया।

शिबू मेरठ का रहने वाला था और सूबेदार जी टिहरी गढ़वाल के। अतः यह सम्बन्ध अंतरजातीय के साथ ही अंतरप्रांतीय जैसा भी था; पर सूबेदार जी खुले विचारों के थे। उन्होंने यह प्रस्ताव मान लिया। शिबू के घर वालों ने कुछ आपत्ति की; पर दोनों की पक्की और अच्छी सरकारी नौकरी देखकर वे भी राजी हो गये।
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सूबेदार साहब ने अवकाश प्राप्ति के समय मिले पैसे से देहरादून में एक बड़ा भूखंड लिया था। उनका विचार था आधा-आधा दोनों बेटों को दे देंगे, जिससे वे अपने-अपने मकान बनाकर ठाठ से रहें। उसके आधे पर उन्होंने मकान बना लिया था। उसी में वे रह रहे थे, जबकि बाकी आधा खाली था। उनका बड़ा बेटा रूपेश एक विदेशी फर्म में काम करने जर्मनी गया था। उसने वहीं एक लड़की से शादी कर नागरिकता ले ली। अब दो-तीन साल में वह एक बार भारत आता है।

दूसरा बेटा दिनेश फौज में कैप्टेन था। उसकी पत्नी और बच्चे यहीं रहते थे। चंदा के विवाह में रूपेश आया था। सूबेदार जी ने उसकी सहमति से उसके हिस्से का भूखंड दहेज में चंदा को दे दिया। शिबू और चंदा दो साल तो सूबेदार जी के साथ ही रहे, फिर उन्होंने अपना अलग मकान बना लिया। यद्यपि दोनों भूखंड साथ-साथ होने के कारण कहने मात्र को ही अलगाव था। फिर भी शिबू और चंदा की गृहस्थी स्वतंत्र रूप से अपनी राह पर चल पड़ी।
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पर समय की गति सदा एक समान नहीं होती। उसमें फूल हैं, तो कांटे भी हैं। अगले दस साल में चंदा ने दो बार गर्भ धारण किया; पर दोनों ही बार सफलता नहीं मिली। उसकी आयु भी इस दृष्टि से कुछ अधिक हो चुकी थी। पहली बार तो प्रसव से दो-तीन दिन पूर्व उसका रक्तचाप बहुत गिर गया। इस कारण शिशु की गर्भ में ही मृत्यु हो गयी। दूसरी बार उसकी घबराहट के कारण समय से एक महीने पूर्व ही प्रसव हो गया। अतः बच्चा बहुत कमजोर पैदा हुआ। डाॅक्टरों के प्रयास के बावजूद वह दो ही दिन जीवित रह सका। चंदा की जान भी बड़ी मुश्किल से बच सकी।

व्यक्ति इतनी भागदौड़ अपने बच्चों के लिए ही करता है। वह सोचता है कि बुढ़ापे में बच्चे उसे सहारा देंगे; पर शिबू और चंदा के सब सपने बिखर गये। अब उनके जीवन में केवल अंधकार ही अंधकार था। चंदा इससे अवसाद की शिकार हो गयी। विद्यालय से उसने एक साल की छुट्टी ले ली। शिबू काॅलिज जाता था; पर अब उसका मन पढ़ाने में नहीं लगता था। ऐसा लगता था मानो दोनों जैसे-तैसे समय को काट रहे हैं।

अपने कारोबार के सिलसिले में देहरादून जाने पर मेरी शिबू से भेंट होती ही थी। उसके आग्रह पर एक बार मैं राधा को भी साथ ले गया। इससे राधा और चंदा में मित्रता हो गयी। साल भर बाद चंदा काम पर तो जाने लगी; पर अब पढ़ाने के नाम पर वह औपचारिता ही पूरी करती लगती थी। इससे विद्यालय के प्राचार्य कुछ रुष्ट हो गये। उन्हें छात्रों का भी ध्यान रखना था। अतः उन्होंने चंदा का स्थानांतरण करवा दिया। दूसरी जगह जाकर चंदा का मन कुछ ठीक हुआ; लेकिन पहले जैसी बात तो फिर भी नहीं थी। कई लोगों ने सुझाव दिया कि वे कोई बच्चा गोद ले लें; पर चंदा कहती थी कि जब भगवान ने हमें संतान सुख नहीं दिया, तो हम ऐसे ही ठीक हैं; पर यह कहते हुए उसके मन की पीड़ा छलक ही जाती थी।
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लेकिन 20 अक्तूबर, 1991 की रात देवभूमि उत्तराखंड के लिए कालरात्रि बन गयी। दशहरे का उत्सव मनाकर लोग थके-हारे सो रहे थे कि धरती थरथरा गयी। भूकंप का केन्द्र उत्तरकाशी के पास होने से सबसे अधिक नुकसान गंगाघाटी में हुआ। उत्तरकाशी से गंगोत्री मार्ग पर 10 कि.मी. आगे ‘जामक’ गांव में तो 80 लोग मारे गये। यह तो गनीमत हुई कि उस रात वहां रामलीला हो रही थी। सैकड़ों लोग चैपाल में जमा थे। अन्यथा मरने वाले इससे चार गुने होते।

पहाड़ में दीवारें मिट्टी और अनगढ़ पत्थर से बनती हैं। नींव भी दो-चार इंच से अधिक नहीं होती। छत के लिए लोग लकड़ी की कडि़यों की कैंची बनाकर उनके सहारे टीन की चादर और स्लेट पत्थर रख देते हैं। ऐसे में यदि भूकंप आये, तो छत पर लगे पत्थर बिखर जाते हैं। यदि वे किसी के सिर पर गिरें भी, तो चोट भले ही लगे; पर मृत्यु नहीं होती; लेकिन सड़कें बनने से पहाड़ के लोग मैदानी क्षेत्र में आने-जाने लगे। उन्हें लगा कि हमारे मकान तो पिछड़ी शैली के हैं। अतः हमें भी लिंटर की छत वाले पक्के मकान बनाने चाहिए; पर वे यह भूल गये कि बिना नींव की दीवारों पर लिंटर टिकेंगे कैसे ?

बस इसी सोच ने गड़बड़ कर दिया। दूसरों की देखादेखी लोगों ने सरिया और सीमेंट लेकर लिंटर वाली छतें बना लीं। उन दिनों गंगा पर बांध बन रहा था। उसके लिए भारी मात्रा में सीमेंट और सरिया आया था। लोगों ने भ्रष्ट कर्मचारियों से मिलकर उसमें से ही कुछ खरीद लिया और पक्की छतें बनवा लीं। जिन पर अच्छा पैसा था, उन्होंने दोमंजिले भवन बना लिये।

भूकंप से पहाड़ी शैली के मकानों में नुकसान कम हुआ; पर जहां कच्ची और बिना नींव की दीवारों पर सीमेंट और सरिये वाली पक्की छतें बनी थीं, वे नीचे आ गिरीं और सोने वालों की मृत्यु का कारण बन गयीं। जामक गांव में सर्वाधिक जनहानि का कारण वहां बन रहा बांध ही था, जिसके सीमेंट और सरिये ने घर-घर पहुंचकर विनाश कर दिया।

भूकंप का समाचार मिलते ही सरकार और समाजसेवी संस्थाएं दौड़ पड़ीं। सबने अपनी सामथ्र्य के अनुसार राहत कार्य में हाथ बंटाया। यद्यपि जो नुकसान हुआ, उसकी पूर्ति तो नहीं हो सकती थी। फिर भी स्कूल, छात्रावास, रोजगार के साधनों का विकास, महिला उत्थान आदि की सरकारी और स्वयंसेवी योजनाओं से माहौल बदलने लगा। लोग भी नये सिरे से जीवन की रचना में लग गये। इस आपदा में सैकड़ों बच्चे अनाथ हो गये। किसी की मां मरी, तो किसी के पिता। किसी के मां-बाप दोनों ही मारे गये। कुछ को उनके चाचा, ताऊ, बुआ या मौसी ने संभाल लिया; पर सैकड़ों फिर भी अनाथ रह गये।

एक दिन शिबू और चंदा बैठे अखबार देख रहे थे। उसमें दो साल की एक बच्ची का चित्र छपा था, जिसका पूरा परिवार भूकंप की भेंट चढ़ गया था। चंदा ने कहा कि क्यों न हम इसे गोद ले लें ? इसे भी सहारा मिल जाएगा और हमें भी। शिबू को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। उन्होंने उत्तरकाशी के जिलाधीश से संपर्क किया। बच्ची का भविष्य सुरक्षित जाकर उन्होंने सहमति दे दी। इस प्रकार वह बच्ची उनके घर आ गयी।
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बह बच्ची बहुत सुंदर थी। उसके आने से उनके सूने आंगन में बहार आ गयी। धीरे-धीरे चंदा उसके साथ व्यस्त होने लगी, तो उसकी उदासी भी दूर हो गयी। चंदा ने उसका नाम सोनिया रखा; पर घर में सब उसे सोना कहते थे। चार साल की होने पर उसे एक अच्छे विद्यालय में भर्ती करा दिया गया। वह चंदा को मां कहती, तो शिबू को बाबू। नाना और नानी भी वहां थे ही। साल में एक-दो बार शिबू और चंदा मेरठ आते थे। तब वह भी साथ होती थी। अपनी चंचलता से वह मोहल्ले भर की दुलारी बन गयी। मुझे वह चाचा, राधा को चाची और हमारी मां को दादी मां कहने लगी। इस प्रकार वह हमारे परिवार की भी सदस्य बन गयी।

हमारे घर के पीछे बरगद का एक पेड़ है। उस पर सैकड़ों पंछियों का डेरा है। मेरी मां वहां कुछ दाने या रात के बचे चावल और रोटी के टुकड़े रख देती हैं। एक बड़ी थाली में पानी भी भर देते हैं। इससे वे पंछी वहां बने रहते हैं। मां का कहना है कि जिस घर में पंछी आते हों, वहां कभी कोई निःसंतान नहीं रह सकता। शाम को घर लौटने पर उनकी चीं-चीं बहुत सुहानी लगती है। सोना भी उस समय खेल छोड़कर वहां आ जाती थी। वह रोटी का टुकड़ा हाथ में ले लेती थी। उसका भोलापन देखकर पंछी उसके पास आकर वह ले लेते थे। मां और राधा भी इस दृश्य का आनंद लेते रहते थे।
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एक बार मैं राधा के साथ देहरादून गया था। उन दिनों विद्यालय में गर्मी की छुट्टियां थीं। राधा ने सोना को साथ चलने को कहा, तो वह राजी हो गयी। अतः हम उसे मेरठ ले आये। मेरे बच्चे काफी बड़े थे; पर उन दिनों उनकी भी छुट्टियां थीं। अतः उन्हें एक नया खिलौना मिल गया। शिबू के भाई लोग भी दूसरी गली में ही रहते थे। वह कभी-कभी वहां भी हो आती थी।

पर इस बीच शाम को उसका पीछे के बरामदे में बैठने का क्रम कभी नहीं टूटा। इन दिनों एक विशेष बात यह हुई कि एक नयी चिडि़या रोज वहां आने लगी। उसके गले पर धारियों का एक घेरा बना था। ऐसा लगता था जैसे किसी सुहागिन नारी ने मंगलसूत्र पहना हो। अतः मां ने उसका नाम ‘मंगला’ रख दिया। जब तक सोना उसे रोटी नहीं देती, वह चिल्लाती रहती थी। रोटी मिलते ही वह खुश हो जाती थी। कभी-कभी तो वह सोना की गोदी में ही बैठ जाती थी। एक दिन सोना कुछ देर से आयी। ऐसे में राधा ने उसे रोटी देनी चाही; पर उसने नहीं ली। बस चीं-चीं करते हुए आसमान सिर पर उठाती रही।

एक दिन राधा ने कहा – मां, यह चिडि़या पहले तो नहीं आती थी। जब से सोना आयी है, तब से ही दिखायी दे रही है। रोटी भी उसके हाथ से ही लेती है।

– हां, ये सोना की मां है। ये अपनी बेटी से मिलने आती है। इस जन्म में उसे चिडि़या का शरीर मिला है। बेटी को हंसते-खेलते देखकर उसे भी खुशी होती है। वो अपने हाथ से तो बेटी को नहीं खिला सकती; पर उसके हाथ से खा तो सकती है।

– लेकिन इसके गले पर ये धारियां कैसी हैं ?

– सोना की मां सुहागिन रहते हुए मरी है। पति और पत्नी की मृत्यु भी एक साथ हुई है। न पति को विरह का दुख झेलना पड़ा और न पत्नी को वैधव्य का। ऐसी मृत्यु भाग्यवानों को ही मिलती है। इसीलिए इस जन्म में ये मंगलसूत्र साथ लेकर आयी है।

यह कहते हुए मां की आंखें भर आयीं। तभी सोना आ गयी। उससे रोटी लेकर वह चिडि़या चली गयी।

हमारे घर कुछ बाल पत्रिकाएं आती थीं। एक पत्रिका में ये शिशु गीत छपा था –

सोनचिरैया सोनचिरैया, बता कहां है तेरा घर
बिना बताये उड़ जाऊंगी, जब आएंगे मेरे पर।

यह कविता सोना को बहुत अच्छी लगी। दिन भर वह सबको इसे सुनाती रही। शाम को चिडि़यों को रोटी खिलाते हुए वह इसे गाती रही। अगले दो-तीन दिन में उसने इतनी बार वह कविता बोली कि मां ने उसका नाम ‘सोनचिरैया’ ही रख दिया।

उसकी ऐसी ही भोलीभाली बातों के बीच दिन बीतते रहे। फिर शिबू उसे ले गया। उसके जाने के बाद एक खास बात यह हुई कि मंगला चिडि़या ने भी आना बंद कर दिया। आप इसे कुछ भी कहें, पर मेरी मां को पूरा विश्वास था कि वह सोना की दिवंगत मां ही है।
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अगले दो साल में कई परिवर्तन हुए। शिबू के पिताजी के निधन के बाद उनकी पुश्तैनी सम्पत्ति का बंटवारा हुआ। किसी समय मेरठ का वह क्षेत्र, जहां हमारे घर थे, गांव माना जाता था; पर अब वहां आवास-विकास कालोनियां बन रही थीं। अतः जमीनों के दाम आसमान छू रहे थे। शिबू ने अपने हिस्से की जमीन भाइयों को ही बेच दी। इस प्रकार उसे एक मोटी राशि मिल गयी।

पर इस पैसे का क्या हो ? मकान बन ही चुका था। पति-पत्नी दोनों को अच्छे वेतन मिल रहे थे। खर्च के नाम पर वे तीन प्राणी ही थे। सोना का पालन-पोषण करने से उन्हें बहुत मानसिक संतोष मिलता था। अतः उनके मन में यह विचार आया कि क्यों न हम सोना जैसी कुछ और बच्चियों का पालन करें ?

उन्होंने अपने कुछ मित्र और परिचितों से बात की। सबने उन्हें प्रोत्साहित किया। मैंने सलाह दी कि वे इसके लिए एक संस्था बना लें। इससे कई और लोग इसमें जुड़ जाएंगे। इसके साथ ही सोनचिरैया के खर्च की जिम्मेदारी मैंने ले ली। शिबू और चंदा के भाइयों ने भी इस भले काम में पूरा सहयोग देने की बात कही। मैं जिस समाजसेवी संस्था से जुड़ा हूं, उसका देहरादून में भी अच्छा काम है। मैंने शिबू और चंदा को उसके पदाधिकारियों से मिलवा दिया।

इस विचार-विमर्श के बाद कुछ प्रभावी लोगों की बैठक में ‘वत्सल वाटिका’ नामक संस्था का गठन हो गया। उसके अध्यक्ष नगर के एक बड़े उद्योगपति बने। मंत्री की जिम्मेदारी शिबू को मिली। उपाध्यक्ष, कोषाध्यक्ष तथा सदस्य मिलाकर ग्यारह लोगों की टोली बन गयी। कुछ ही दिन में संस्था का पंजीकरण भी हो गया। काम बहुत तेजी से आगे बढ़ने लगा।

वाटिका की पहली बैठक में तय हुआ कि घर की खाली छत पर कुछ कमरे बना लिये जाएं। पैसा तो शिबू के पास था ही। दशहरे पर नवनिर्माण शुरू हुआ और छह महीने में चार कमरे, रसोई आदि बन गये। बिस्तर, पलंग, कुर्सी, मेज आदि भी आ गये। एक बार फिर उत्तरकाशी के जिलाधीश से सम्पर्क किया गया। उनके प्रयास से छह निराश्रित लड़कियां मिल गयीं। एक ऐसी महिला भी मिली, जिसके पति और बच्चे भूकंप में मारे गये थे। वह बच्चियों की देखरेख के लिए आ गयी। इस प्रकार वह वाटिका नन्ही कलियों से महकने लगी। चंदा उन सबकी मां थी, तो शिबू सबके बाबू। खाना बनाने और देखभाल करने वाली महिला को सब मौसी कहते थे।
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चंदा और शिबू ने शुरू से ही यह ध्यान रखा कि बच्चियां स्वयं को अनाथ न समझें। उनकी शिक्षा, कपड़े, भोजन तथा मनोरंजन आदि का प्रबंध उन्होंने ऐसा किया, जैसे कोई अपने बच्चों के लिए करता है। सब बच्चियां ऊपर के कमरों में रहती थीं। सोना उनसे खेलने भले ही वहां चली जाए, पर नींद उसे चंदा के पास ही आती थी। शुरू में तो उसने इस बात पर झगड़ा भी किया कि वे चंदा और शिबू को मां और बाबू क्यों कहती हैं ? वह उन पर केवल अपना ही अधिकार समझती थी; पर फिर सब सामान्य हो गया। अगले साल तीन बच्चियां और आ गयीं।

धीरे-धीरे चंदा और शिबू ने अपने आप को पूरी तरह वाटिका में खपा दिया। भोजन का स्तर अच्छा रहे, अतः वे भी वहीं खाना खाते थे। दिन में तो विद्यालय के कारण चंदा व्यस्त रहती थी; पर रात का खाना वह स्वयं बनाती थी। बेटियों को अच्छे संस्कार मिलें, इसके लिए सुबह की सामूहिक प्रार्थना, भोजन से पहले मंत्रपाठ, रविवार को यज्ञ और मंगलवार को आरती शुरू की गयी। इससे वाटिका का वातावरण मंदिर जैसा हो गया। संचालन समिति के सदस्य भी आते रहते थे। उनमें से कुछ ने एक-एक लड़की के व्यय की जिम्मेदारी ले ली। इस प्रकार वाटिका हर तरह से सुव्यवस्थित हो गयी।

कुछ समय बाद सरकार ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (वी.आर.एस.) योजना लागू की। चंदा ने इसका लाभ उठाया और विद्यालय से अवकाश लेकर पूरी तरह बेटियों की सेवा में लग गयी। जीवन में परिवर्तन कैसे होता है, यह उससे अधिक कौन समझ सकता था ? पहले तो वह एक बच्चे के लिए तरस रही थी; पर अब वह गर्व से खुद को दस बेटियों की मां कहती थी।
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लीजिये, आप भी क्या कहेंगे कि ‘वत्सल वाटिका’ के विस्तार में हमारी प्यारी सोनचिरैया तो कहीं खो ही गयी। जी नहीं, वह तो इस कथा की प्राण ही है। गर्मी की छुट्टियों में वह हर साल हमारे घर आती थी। बाकी लड़कियां भी अपने रिश्तेदारों के घर चली जाती थीं। मौसी भी कुछ दिन के लिए अपने गांव हो आती थी। चंदा और शिबू भी इस दौरान मेरठ आ जाते थे।

समय कुछ और आगे बढ़ा। हमारी सोनचिरैया ने प्रथम श्रेणी में हाई स्कूल और फिर इंटर किया। इस दौरान कुछ प्रतियोगी परीक्षाओं के कारण उसका मेरठ आना कम हो गया। यद्यपि जब भी वह आती, हम उसे सोनचिरैया वाली कविता याद दिलाते और पूछते कि तुम्हारे पर कब निकलेंगे ? वह कुछ शरमाकर बात टाल देती।

इंटर के बाद उसने बी.काॅम में भी प्रथम श्रेणी प्राप्त की। अब उसका लक्ष्य कोई अच्छी नौकरी पाना था। अतः उसने अपना पूरा ध्यान कोचिंग की ओर लगा दिया। चंदा और शिबू ने शुरू से ही तय कर लिया था कि जो लड़की जहां तक पढ़ना चाहेगी, वे पढ़ाएंगे। वे चाहते थे कि हर लड़की अपने पैरों पर खड़ी हो जाए।

उन्हीं दिनों स्टेट बैंक में लिपिक की नौकरियों के लिए विज्ञापन निकला। सोना ने उसके लिए दिन-रात एक कर दिया। अतः पहले ही प्रयास में उसका चयन हो गया। जिस दिन उसे नियुक्ति पत्र मिला, उस दिन चंदा और शिबू की खुशी का ठिकाना न था। उन्हें लगा, मानो उनका जन्म सफल हो गया। वाटिका की सब लड़कियां भी उत्साहित थीं। वह उन सबकी प्रेरणा का केन्द्र बन गयी थी। अगले दो साल में बैंक में काम करते हुए ही उसने एम.काॅम भी कर लिया। इससे उसे प्रोन्नति भी मिल गयी।
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पर अब सोना 22 साल की हो गयी थी। ऐसे में शिबू और चंदा के मन में वही चिन्ताएं थीं, जो हर बेटी के मां-बाप के मन में होती हैं। वे चाहते थे कि कोई अच्छा घर और वर देखकर उसके हाथ पीले कर दिये जाएं। चंदा ने एक बार सोना से पूछा, तो उसने साफ कह दिया कि जहां आप दोनों कहेंगे, मैं वहीं विवाह करूंगी। आपकी पसंद ही मेरे लिए सर्वोपरि है।

शिबू और चंदा ने अपने सब परिचितों से बात की। एक परेशानी यह थी कि उसकी पृष्ठभूमि किसी को मालूम नहीं थी। यद्यपि शिबू और चंदा उसे अपनी बेटी मानते थे; पर स्वयं को प्रगतिशील कहने वाले भी विवाह के समय जाति और गोत्र ढूंढने लगते हैं।

लेकिन सोना के भाग्य का एक दरवाजा खुलना अभी बाकी था। एक दिन अध्यक्ष जी और उनकी पत्नी ने वाटिका में आकर सोना का हाथ अपने एकमात्र बेटे के लिए मांग लिया। शिबू और चंदा क्या कहते ? उनकी और अध्यक्ष जी की हैसियत में भारी अंतर था। उनकी कई फैक्ट्रियां और करोड़ों रु. का कारोबार था। शिबू ने बेटे की इच्छा के बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया कि वह इसके लिए सहमत है। फिर क्या था, अगले रविवार को सगाई की रस्म पूरी हो गयी। शिबू और चंदा ने सबको यह शुभ समाचार दे दिया।

कल शिबू के फोन से ये सब घटनाएं चलचित्र की तरह आंखों के सामने घूम गयीं। आज पहली बार लगा कि हमारी सोनचिरैया सचमुच बड़ी हो गयी है और उसके पर निकल आये हैं।
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विवाह बहुत शालीनता से सम्पन्न हुआ। विदाई के समय चंदा का रो-रोकर बुरा हाल हो गया। शिबू का दिल भी फटा जा रहा था; पर वह क्या करता ? बेटी को एक न एक दिन तो अपने घर जाना ही होता है। दो महीने बाद सोना अपने पति के साथ मेरठ आयी। हमारा घर उसकी वर्तमान हैसियत से बहुत छोटा है, फिर भी वह वहीं ठहरी। हमें यह बहुत अच्छा लगा।

सोनचिरैया के जीवन का पहला अध्याय इस तरह पूरा हुआ। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी होने पर भी उसने बैंक में काम छोड़ा नहीं है; लेकिन अपना पूरा वेतन वह वाटिका को दे देती है। उसके परिवार की भी इसमें सहमति है।

और एक शुभ समाचार। पिछले दिनों हमारी सोनचिरैया के घर में एक चिरैया और आ गयी है। उसने अपनी इस चिरैया का नाम रखा है ‘वत्सला’।

सचमुच इससे अच्छा कोई और नाम हो भी नहीं सकता था।

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